अपने काम के प्रति बहुत प्रतिबद्ध थीं सुशील गुप्ता

सुधा अरोड़ा

(दूरदर्शन की चर्चित पत्रकार एवं अनुवादक सुशील गुप्ता से जुड़ी स्मृतियों को ताजा कर रही हैं वरिष्ठ साहित्यकार सुधा अरोड़ा। यह संस्मरण पत्रकारिता और साहित्य के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है)

सुशील में उस तरह की महिलाओं वाली नजाकत नहीं थी। वह बहुत दबंग महिला थी तो उस वजह से उसे वह सब कुछ नहीं झेलना पड़ा जो आम महिलाओं को झेलना पड़ा मतलब उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न। पुरुष भी जानते हैं कि वहाँ उनकी दाल नहीं गलेगी मगर फिर भी महिला अगर ईमानदार और काम के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे नकारने वाले भी बढ़ जाते हैं। काम के प्रति प्रतिबद्धता और लगाव अधिक था, वे एक अविवाहित और स्वतन्त्र महिला थीं, इस प्रतिबद्धता का यह भी एक बड़ा कारण था। जब वे कॉलेज में थीं तो माता -पिता घर से अलग हो गयी थीं। माँ सौतेली थीं तो सुशील ट्यूशन वगैरह पढ़ाया करती थीं। अच्छी बात यह थी कि उनको बिड़ला परिवार से ट्यूशन मिलते और लगातार मिलते रहे इसलिए उनका खर्च चल जाता था।

जब मेरी उनसे मुलाकात 1967 में हुई तो वह ट्यूशन पढ़ाया करती थीं और मैं एम. ए. पास करके निकली थी। मैं एम. ए. में टॉपर थी और पी.एच.डी. कर रही थी। मुझसे सुशील का परिचय साहित्यकार धर्मवीर भारती की पत्नी पुष्पा भारती ने करवाया था। मैं काफी प्रभावित हुई, मैंने उस तरह की स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर महिलाएँ देखी नहीं थी, जो बगावत करके अलग रह रही हो, अपना खर्च खुद चलाती हो। मुझसे वह बड़ी थीं। 1939 में उनका जन्म हुआ था। मैं तुरन्त पास करके निकली थी और टॉपर थी तो बतौर व्याख्याता मेरी नियुक्ति भी हो गयी थी। सुशील ने तब बी.ए. कर रखा था तो मैंने उसे आगे एम. ए. करने का सुझाव दिया जिससे उसके लिए आगे के रास्ते खुलें। उसने काफी समय पहले पढ़ाई छोड़ रखी थी और मैंने उसकी पढ़ाई में काफी सहायता की। उसने प्राइवेट से एम. ए. किया।

मैं भी काफी जुनूनी हूँ तो दो कॉलेजों में पढ़ाती थी, सुशील की पढ़ने में सहायता करती थी..फिर मेरे निजी जीवन में व्यस्तता थी। मैं सुशील को दीदी कहा करती थी, उसने मुझसे दीदी कहना छुड़वा दिया। मैंने पी.एच.डी. छोड़ दी थी पर मुझे यूजीसी की तरफ से छात्रवृत्ति मिल रही थी। सुशील ने एम. ए. किया, पास हुई और इस बीच मेरी शादी हो गयी। शादी के बाद मैं मुम्बई चली आई और सुशील ने दूरदर्शन के लिए आवेदन किया। इसके पहले वह आकाशवाणी में सहायक के तौर पर काम करती थी। उसने दीपनारायण मिठौलिया जी के साथ भी काम किया। इसके बाद दूरदर्शन में गयी तो उसे एक साल के लिए पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया। वहाँ से सुशील की जिन्दगी सफलता की तरफ मुड़ गयी और उसने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा कभी।

प्रशिक्षण के बाद उसने दूरदर्शन के लिए काफी अच्छे कार्यक्रम किये मगर तब साक्षात्कार बड़े फोन पर हुआ करती थी। गलती यह हुई कि सुशील इन सबको सम्भालकर नहीं रख पायी। जैसे मैंने ही इस्मत चुगताई का एक घंटे का साक्षात्कार लिया था। वह इतना शानदार साक्षात्कार था इतनी बड़ी हस्ती का, पर कुछ भी सम्भालकर नहीं रख पायी। जब दूरदर्शन का टालीगंज से गोल्फग्रीन स्थानांतरित हुआ। तब ये सब रिकॉर्डिंग फेंक दी गयी। जब वह दूरदर्शन से जुड़ी तो तब दूरदर्शन रंगीन भी नहीं था, ब्लैक एंड व्हाइट था। उसने अनुवाद भी खूब किये। महाश्वेता देवी का भी मैंने 1 घंटे का साक्षात्कार लिया था मगर कुछ भी सम्भालकर नहीं रखा। आर्काइव में रखना चाहिए था, पर वहाँ भी नहीं रखा और अब तो कलकत्ता दूरदर्शन में हिन्दी को लेकर वह वातावरण भी नहीं रहा जैसा सुशील के समय में हुआ करता था। रीता गांगुली का साक्षात्कार लिया. गायिका रेशमा का भी साक्षात्कार लिया।

वह अपने अनुवाद कर्म में डूब गयी थी। सेवानिवृति के बाद भी अनुवाद ही करती रही। मैं जब कलकत्ता आती तो सुशील से जरूर मिलने जाती थी, यहाँ तक कि सुशील के निधन की खबर भी सबसे पहले मुझे ही मिली। मैं मुम्बई से कलकत्ता गयी था और रात को मैंने फोन किया, फिर सोचा कि रात को क्या परेशान करना, सुबह ही बात कर लूँगी। सुशील को मेरे घर का खाना पसन्द था तो मैं और मेरी बहन इन्दू खाना लेकर सुशील के घर जाते थे और साथ खाना खाते थे। 11 दिसम्बर को फोन किया कि मैं बताऊँ कि मैं खाना लेकर आ रही हूँ मगर फोन सुशील के भाई ने फोन उठाया। फोन पर पुरुष की आवाज सुनकर मुझे लगा कि कहीं गलत नम्बर तो नहीं लगा दिया। मैंने पूछा कि – ‘क्या यह सुशील का नम्बर है?’ तो वह बड़े ठंडे लहजे में बोले – हाँ, शी इज नो मोर। मुझे बड़ा धक्का लगा। मैंने पूछा – क्या तो बोले हाँ – शी इज नो मोर..शी पास्ड अवे लास्ट नाइट। मैंने कहा कि मैं आ रही हूँ तो बोले कि वह शव लेकर जा रहे हैं। मेरा मन खराब हो गया तो फिर मैं गयी नहीं।
ये तो है कि महिला पत्रकारों के योगदान का उल्लेख छूट जाता है। यह सुशील के साथ ही नहीं, बहुत सी महिलाओं के साथ थीं। कोलकाता की साहित्यकार थीं रजनी पन्नीकर। वह बहुत अच्छी कहानियाँ, उपन्यास लिखती थीं, रेडियो पर भी काफी काम किया पर उनका नाम ही रेडियो के इतिहास में नहीं मिलता। दीप नारायण मिठौलिया का नाम भी कोई याद नहीं करता। उनको मैं इसलिए याद किया करती हूँ कि मिठौलिया जी रचनाकारों को बहुत सम्मान देते थे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद आकाशवाणी की कैंटीन में जलपान करवाते थे और बाहर तक छोड़ने जाते थे। मुम्बई में आकर तो मैंने मना कर दिया कि दूर से आना पड़ता है औऱ समय बहुत नष्ट होता है। अब काम के प्रति वह प्रतिबद्धता नहीं रही।

(सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया से बातचीत पर आधारित)

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