आयुर्वेद और ऐलोपैथी : उपचार पद्धति, विवाद और विचार

वसुंधरा मिश्र

आज मनुष्य उत्तर-आधुनिक युग में जी रहा है जहां परंपरा, प्रकृति, पर्यावरण और विज्ञान को मानो उसने अपनी मुट्ठी में रख लिया है। आदर्श, मूल्य और चरित्र में भी आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। विज्ञान के नये- नये आविष्कार हुए जिनमें चिकित्सा के क्षेत्र में एलोपैथी यानी आधुनिक चिकित्सा पद्धति का विकास हुआ और दूसरी चिकित्सा पद्धतियाँ जैसे आयुर्विज्ञान, होम्योपैथिक, नेचरोपैथ आदि विकसित हुए।
आयुर्विज्ञान, विज्ञान अर्थात (आयु +र् + विज्ञान ) आयु का विज्ञान है। यह वह विज्ञान व कला है जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु (निरोगी जीवन) बढ़ाने से है। प्राचीन सभ्यताएं मनुष्य में होने वाले रोगों के निदान की कोशिश करती रही हैं। इससे कई चिकित्सा (आयुर्विज्ञान) पद्धतियाँ विकसित हुई। इसी प्रकार भारत में भी आयुर्विज्ञान का विकास हुआ जिसमें आयुर्वेद पद्धति सबसे ज्यादा जानी जाती है अन्य पद्धतियाँ जैसे कि सिद्ध वैद्य, नेचरोपैथ, योग प्रणाली, होम्योपैथी और एलोपैथी भी भारत में विकसित हुई। प्रारम्भिक समय में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा के समान ही किया गया था, बाद में ‘शरीर रचना’ तथा ‘शरीर क्रिया विज्ञान’ आदि को इसका आधार बनाया गया।
पाश्चात्य सभ्यता में औद्योगीकरण के समय जैसे अन्य विज्ञानों का आविष्कार व उद्धरण हुआ उसी प्रकार आधुनिक आयुर्विज्ञान एलोपैथी का भी विकास हुआ जो कि तथ्य आधारित चिकित्सा पद्धति के रूप में उभरी।
एलोपैथी चिकित्सा पद्धति आधुनिक चिकित्सा पद्धति है जिसकी दवाइयां बहुत जल्दी असर दिखाती हैं। एलो का अर्थ है अन्य और पैथी का अर्थ है पद्धति या विधि। इसका नाम होम्योपैथी के जन्मदाता जर्मन चिकित्सक सैमुअल हैनिमैन ने सन् 1810 में दिया था। होम्योपैथी में सही लक्षणों से सटीक इलाज होता है बशर्ते रोग की सही पहचान हो।
स्वतंत्रता के पहले आयुर्वेद उपेक्षित तो था ही किंतु स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक आयुर्वेद की उपेक्षा होती रही। स्वतंत्रता के बाद आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ही मानी गई। कोलकाता, बनारस, हरिद्वार, इंदौर, पूना, बंबई, केरल, गुजरात आदि क्षेत्रों में आयुर्विज्ञान के संस्थान बने।
वेदों में ऋग्वेद में च्यवन ऋषि को पुनः युवा करने का कथानक आता है और रोगों का निवारण जल, वायु, सौर, मानस आदि चिकित्सा पद्धति से किया जाने का विधान है।
यजुर्वेद में औषधि सूक्त, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का वर्णन है।
अथर्ववेद के प्रथम मंत्र में ही आयुर्वेद के सिद्धांत का परिचय मिलता है जो कि त्रिदोष सिद्धांत एवं सप्तधातु सिद्धांत है। तीन दोष वात पित्त और कफ़ तथा सात धातुएं रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि तथा शुक्र आदि है। ऋषि कहते हैं – – –
ये त्रिषप्ताःपरियन्ति विश्वा रूपाणि विभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे।।
अर्थात तीन और सात का यह संयोग या समुच्चय विश्व के समस्त रूपों को धारण करता हुआ गतिशील है, वाणी का पति सोम या इन्द्र उनके बलों को हमें प्राप्त कराएं। अथर्ववेद को क्षत्रवेद और भैषज्य वेद भी कहते हैं, इसमें औषधि रोग चिकित्सक एवं चिकित्सा का ज्ञान है। वेदों में बहुत ही विस्तार से शल्य, गर्भाधान, बाजीकर, विष आदि प्रकरणों का विश्लेषण मिलता है। वेदों में शरीर को ब्रह्मपुरी कहा गया है। रोग निवारण के लिए सूर्य, अग्नि, जल, विद्युत, वायु आदि का सहयोग होता है। वेदों में एक रोग के लिए एक औषधि का वर्णन मिलता है।
एलोपैथी में बीमारी के लक्षण उभर नहीं पाते और धीरे-धीरे ठीक होता है। डॉक्टर नर्स फार्मासिस्ट हेल्थकेयर प्रोफेशनल डिग्री और डिप्लोमा लेते हैं। इनको प्रेक्टिस करने के लिए लाइसेंस मिलता है। इसमें दवाएँ, सर्जरी रेडियेशन कई थैरेपी शामिल हैं। एलोपैथी में दवाओं के अलावा प्रिवेंटिव मेडिसिन भी मिलती है जैसे वैक्सीन जो बीमारी होने से रोकती है। साथ ही कोई दवा देने से पहले क्लिनिकल रिसर्च और फिर ह्युमन ट्रायल होता है।
कोरोना वैक्सीन आ गई हैं और सभी को दी जा रही है।
अभी भारत कोरोना की दूसरी लहर से जूझ रहा है। संभवतः अब महामारी अपनी ढलान की ओर है। दूसरी लहर खतरनाक रही जिसने बहुत से परिवारों को मृत्यु की ओर ढकेल दिया। तब वैक्सीन भी नहीं लग सकी थी।

एलोपैथी चिकित्सा बहुत वर्षों से आधुनिक समाज में लागू होने के कारण हम उसे ही प्रमुखता देते आए हैं। इसका कारण है हमें रोग से तुरंत आराम चाहिए। दर्द, पीड़ा और वेदना सहने की सहनशक्ति अब हमारे भीतर नहीं है। रोग से लड़ने की शक्ति तो बिल्कुल ही नहीं है यह बात अलग है कि शरीर में अपनी प्रतिरोधक क्षमता होती है जो छोटी-मोटी और साधारण मौसमी बिमारी जुकाम, सर्दी, खांसी आदि अपने आप तीन – चार दिनों में ठीक हो जाती है लेकिन हम अपने इन रोगों की एलोपैथी दवाई लेकर तुरंत ठीक होने पर तत्काल आराम पाते हैं जो मनुष्य स्वभाव का परिचायक है । एलोपैथी में एंटी बैक्टीरिया होते हैं जो इंफेक्शन को तुरंत समाप्त कर देते हैं। इससे एक समस्या का निदान होता है तो दूसरी समस्या या अधिक समस्याओं का जन्म भी हो सकता है। एलोपैथी में कैंसर जैसे रोगों तक का इलाज है।
आयुर्वेद में भी कैंसर का इलाज है लेकिन उसमें बहुत लंबा समय लगता है और उतनी सहनशक्ति किसी भी रोगी में नहीं होती। आयुर्वेदिक दवा खाने से कभी भी नुकसान नहीं होता। यह बिमारी को जड़ से खत्म करती है। आयुर्वेद हजारों वर्षों से स्वस्थ जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रही है। यह प्राचीन विज्ञान है जिसे सिस्टर सांइस के नाम से भी जाना जाता है। पांच हजार वर्षों से आयुर्वेद का मुख्य फोकस जीवन के भावनात्मक और भौतिक रूप को पहचान कर उसे जड़ से दूर करना है। इससे शरीर का शुद्धिकरण, स्वस्थ वजन, त्वचा बाल का रखरखाव, तनाव से बचाना, जलन सूजन को दूर करना, निम्न रक्तचाप, कोलेस्ट्राल और बहुत सी बीमारी का उपचार संभव है। आयुर्वेद सात्विक दृष्टिकोण के रूप में देखा जाता है। यह जीवन का भौतिक, मौलिक तथा आत्मिक ज्ञान का नाम है। आयुर्वेद का उपचार मानव शरीर और मस्तिष्क को प्राकृतिक रूप से ठीक करता है। आयुर्वेद के प्रति यह भ्रामक धारणा प्रचलित है कि यह केवल जप, योग, पिसे हुए पदार्थ, तेल की मालिश आदि तक ही सीमित है।
संस्कृत के शब्द अयुर यानी विज्ञान और वेद का यानी ज्ञान इन दोनों से आयुर्वेद नाम आया जो वेद पुराणों में मिलता है। भारत में ही इसका उद्गम हुआ है।आयुर्वेद प्रमुख रूप से शरीर को पंचतत्वों जल पृथ्वी आकाश अग्नि वायु से निर्मित मानता है जो विज्ञान पर आधारित है।
आयुर्वेद में तीन चीजों पर अधिक ध्यान दिया जाता है–वात पित्त और कफ़। इन तीनों के संतुलन से शरीर मन चेतना ठीक रहते हैं।वात पित्त और कफ़ में परिवर्तन से शरीर में विकार आते हैं। वात शरीर की गति से जुड़ी सूक्ष्म ऊर्जा है जो अंतरिक्ष और वायु से बनी है। यह श्वास निमिष मांसपेशियों ऊतक आंदोलन हृदय की धड़कन और साइटोप्लाज्म और कोशिका झिल्ली में होने वाले सभी आंदोलनों को नियंत्रित करता है। वात संतुलित न होने पर भय चिंता पैदा होती है। पित्त शरीर के पाचन अवशोषण आत्मसात पोषण चयापचय और शरीर के तापमान को नियंत्रित करता है। पित्त आग और पानी की से बना है। कफ़ वह ऊर्जा है जो शरीर की संरचना हड्डियों मांसपेशियों का निर्माण करती है। कोशिकाओं को जोड़ने का काम करता है। यह पृथ्वी और जल से बनता है। यह जोड़ों में चिकनाई देता है त्वचा को नमी देता है प्रतिरक्षा को बनाए रखता है। अतः शरीर में सब घटकों को संतुलित करने के लिए आयुर्वेद चिकित्सा का महत्व है।
कोरोना महामारी के दौरान आयुर्वेद के प्रति लोगों का रुझान बढा़ है क्योंकि कोरोना महामारी के इलाज की खोज एलोपैथी में अभी तक नहीं हो पाई है। इस महामारी की वैक्सीन आ गई है लेकिन दोनों डोज़ लगने के बाद भी देखा गया कि वह व्यक्ति कोरोना ग्रसित हो गया। कोरोना का निदान एकांत वास, योग, आहार-विहार, प्राणायाम, स्वच्छ वातावरण, घर में बना स्वच्छ और हल्का सुपाच्य भोजन करना आदि सब आयुर्वेद से संबंधित इलाज पर केंद्रित है।
जब घर के अंदर इसका इलाज हो सकता है तो ऐसे में एलोपैथी की बड़ी – बड़ी कंपनियों का मुंह लटक गया। उनकी मोनोपोली कहीं समाप्त न हो जाए और अरबों का घाटा कहीं उनकी दुकानदारी को खत्म न कर दे।
इस लोकतंत्र में वैसे तो सभी को अपनी सेवाएं देने का अधिकार है।
चिकित्सा पद्धति वही अच्छी और कारगर है जो रोगी के प्राण बचाए और स्वस्थ करे।
कोरोना का प्रामाणिक इलाज तो आयुर्वेद या एलोपैथी दोनों के ही पास अभी नहीं है लेकिन भारत सरकार द्वारा दी गई सावधानियों और सुझाव जैसे मास्क लगाना, सेनेटाइजर,
से हाथों को बार बार साफ करना, दो गज की दूरी बनाए रखना, छींक, जुकाम खांसी को दूरी से करना संक्रमण को दूर करने में सहायक है। आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों ही भारत में फले फूले, साधारण आदमी का यही मानना है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन एफडीए आदि वैश्विक संस्थाएं एलोपैथी पर नजर रखती हैं। आयुर्वेद का सरकारी बजट भी नाममात्र का है लेकिन एलोपैथी पर सरकारी बजट लगभग 90% से भी ज्यादा है। भारत की चिकित्सा पद्धतियों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। जब अथर्ववेद का मंत्र कहता है कि ” विश्वा रूपाणी विभ्रतः” तब आशय समस्त प्राणियों के शरीर से है चाहे वे मनुष्य हो अथवा पशु हो अथवा पादप स्थावर आदि। भारतीय का मंत्र “वसुधैव कुटुम्बकम” में निहित है।

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