पद्मश्री : साल में मात्र 2 रुपये लेकर शिक्षा प्रदान करते हैं मास्टर सुजीत चट्टोपाध्याय

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कोलकाता : केंद्र सरकार से पद्मश्री सम्मान से सम्मानित होने वालों में पश्चिम बंगाल के भी सात लोग हैं। उनमें सबसे खास हैं सेवानिवृत्त शिक्षक सुजीत चट्टोपाध्याय। साहित्य और शिक्षा श्रेणी में केंद्र ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है। भारत सरकार के इस बार सामान्य किन्तु विशेष कार्य के लिए आमलोगों को पद्म सम्मान देने से लोग भी खुश हैं।
बेहद आम जीवन जीने वाले सुजीत चट्टोपाध्याय को यह सम्मान यूं ही नहीं मिला है बल्कि वह हैं भी बेहद खास। सेवानिवृत्त हो जाने के बावजूद वह अपने पैतृक गांव बर्दवान के रामनगर के जंगलमहल से सटे इलाके के सैकड़ों छात्रों को शिक्षा का महादान महज दो रुपये सालाना में देते रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से सूरज कभी रिटायर्ड नहीं होता ठीक उसी तरह साहित्यकार और शिक्षक अंतिम सांस तक सेवानिवृत्त नहीं हो सकता। समाज और भावी पीढ़ी के प्रति उनकी जिम्मेदारियां आजीवन बनी रहती हैं, इसीलिए वह सेवानिवृत्त हो जाने के बावजूद 300 से अधिक छात्रों को सालाना महज दो रुपये की फीस लेकर पढ़ाते हैं। इन रुपयों को भी वह आसपास के गरीब बच्चों के लिए किताबें, कपड़े और थैलेसीमिया पीड़ित आदिवासी परिवारों के लिए कैंप लगाकर दवाइयां भी वितरित करते थे। उन्होंने जीवनभर शिक्षक के तौर पर शिक्षा का दान तो किया ही है, साथ ही उम्र के आखिरी पड़ाव में भी तन मन और धन का आखरी कतरा समाज को समर्पित कर चुके हैं। ऐसे ही धरोहरों को पद्मश्री मिलना खुद पद्मश्री का ही सम्मान होगा। राष्ट्रपति के हाथ से सम्मानित होने से वह बेहद खुश हैं। इस सम्मान से उनके सभी छात्र भी बेहद खुश हैं। सुजीत ने बताया कि वह अपने घर पर बनी पाठशाला में गरीब बच्चों को पढ़ाते हैं। कक्षा दसवीं तक के छात्रों को सभी विषय तथा 11वीं और डिग्री कॉलेज के छात्रों को बांग्ला साहित्य पढ़ाते हैं। उनके छात्रों की मांग है कि उनके इलाके में बैंक और कॉलेज खोले जाने चाहिए। सुजीत ने बताया कि जंगली क्षेत्र में उनके घर से 30 किलोमीटर दूर बैंक है और आसपास कोई कॉलेज भी नहीं है। इसलिए रामनगर ग्राम पंचायत में बैंक और कॉलेज दोनों खोले जाने की जरूरत है। एक विडंबना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि इस संबंध में वह स्थानीय प्रशासन को कई बार पत्र लिख चुके हैं लेकिन कोई जवाब तक देना जरूरी नहीं समझा है। सुजीत ने कहा कि हम जब तक जीते हैं, तब तक केवल अपने लिए नहीं जी सकते, हमें समाज के लिए भी कुछ ना कुछ करते रहना है। उन्होंने बताया कि जंगली क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी और अन्य समुदाय के लोग थैलेसीमिया के बीमारी से जूझ रहे हैं। उनके लिए हर साल कैंप लगाकर दवाइयां देने के साथ-साथ रोगियों की देखभाल की व्यवस्था अपने छात्रों के साथ मिलकर करते हैं। उन्होंने कहा कि वह जिन बच्चों को पढ़ाते हैं उनमें सामाजिक सेवा की भावना उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं ताकि वह जो समाज के लिए कर रहे हैं, वह उनके छात्र भी बड़े होकर पर करें।

(साभार – सलाम दुनिया डिजिटल)

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