पर्यावरण संरक्षण की शुरुआत घर से..लगाइए हर कमरे में दो पौधे

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यह भयावह समय है, कठिन समय है। काल का तांडव, मृत्यु की विभीषिका है, प्रकृति के कोप से पूरा देश और पूरी पृथ्वी आक्रांत है और इस बीच बहस चल रही है, विवाद हो रहे हैं, ऑक्सीजन और दवाओं की कालाबाजारी हो रही है..एक दूसरे को नीचा दिखाने और कमतर साबित करने की होड़ लगी है…मुख पर प्रेम और हृदय में घृणा है..आस – पास के ऐसे लोगों को जाते देख रही हूँ जिनको देखते हुए बड़ी हुई…सीखा…मन क्लान्त हो पड़ा है…हम दिखावे की ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ उदारता से लेकर रोग तक, सब प्रदर्शन की वस्तु बन गये हैं..
जरा सोचिए तो ईश्वर ने ऐसी ही दुनिया दी थी आपको? क्या ऐसा ही संसार दिया था..? यही देश था जहाँ लोग दीर्घायु हुआ करते थे…स्वस्थ रहा करते थे और तब आज की तरह महँगी चिकित्सा प्रणाली भी नहीं थी। यह समय देखिए सब ईश्वर को पुकार रहे हैं..कोई निर्मम बता रहा है तो कोई विश्वास रख रहा है…कोई एक दूसरे को कोस रहा है तो कोई सरकारों को दोष दे रहा है…औऱ यहीं पर कोई खुद से सवाल नहीं कर रहा है….
आज कृत्रिम ऑक्सीजन के लिए दौड़ लगाते मनुष्यों को ईश्वर ने ऑक्सीजन प्रदाता वृक्षों और वनों से लदी धरती ही दी थी तो वृक्ष काटते हाथों ने क्या यह भयावह भविष्य देखा होगा…नहीं देखा होगा..अगर ऐसा भविष्य देखते तो हाथ उठते ही नहीं कुल्हाड़ी उठाने के लिए…तो दोषी कौन?
हम बचपन से ही सुनते आए कि धूम्रपान, मदिरापान हमारे फेफड़ों को नष्ट करते हैं। हमारी प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती है मगर आपने इन दोनों को बुरी आदत नहीं माना बल्कि कवियों ने भी महिमामंडन किया। नशे की लत ऐसी कि लॉकडाउन से पहले और लॉकडाउन के बाद पहली कतार यहीं लगती है तो ऐसे में पहले से कमजोर पड़े फेफड़े खराब होते हैं और इन पर कोविड -19 समेत अन्य बीमारियों का प्रहार होता है तो दोषी कौन?
पढ़ा – लिखा शिक्षित मध्यम वर्ग भी मानता है कि उसका काम सिर्फ टैक्स भरना है, इसके आगे कोई जिम्मेदारी नहीं मगर बात जब खुद पर आती है तो उसे लगता है कि वह अकेला ही सब कुछ क्यों करे? क्या आप किसी संस्थान के मालिक होते हैं तो वेतन दे देने से आपकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है…अगर नहीं तो सिर्फ टैक्स भर देने से आपकी जिम्मेदारी पूरी कैसे हो सकती है? प्रवासी श्रमिकों को काम से निकालने और शहर से निकालने में सुशिक्षित लोगों की बड़ी भूमिका है। इनका काम सोशल मीडिया पर 4 शब्द लिखने से या लम्बी सी कविता लिख देने से पूरा हो जाता है। ऐसे में अगर अपने जीवन की रक्षा करने के लिए हर ओर से सताये गये ये लोग राशन की दुकानों के सामने परहेज के सारे नियम भूल जाएं तो जिम्मेदारी किसकी है? नेताओं की रैलियों में 5 रुपये और भात के लिए अगर भीड़ लगा लें तो दोष किसका है? अगर प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को कोविड से पहले चुनावों की चिन्ता हो तो कोविड और चीन को दोषी कहकर क्या बिगाड़ लेंगे आप? मास्क पहनाने के लिए जहाँ पर पुलिस तैनात करनी पड़ रही हो, कोरोना योद्धाओं को सम्मान जताते हुए उनको घर से बाहर निकालने के लिए लोग खड़े हों तो क्या उस देश के लोगों को कोई अधिकार है कि वह दूसरों पर उंगली उठाए?
उपकरणों पुर निर्भर रहने की ऐसी लत लगी कि आप बात कहने के लिए भी उसे लिखते हैं…चिट्ठी लिखना आपको डाउन मार्केट लगता है। जिस देश में अड्डा. चौपाल, आंगन की परम्परा हो…जहाँ आध्यात्मिक चेतना हो…जहाँ एकान्त में सृजन की परम्परा रही हो…वहाँ के लोग कुछ दिन अलग रह जाने से घबराते हैं…आप खुद सोचिए कि आप कहाँ थे और कहाँ आ गये हैं। आज वीडियो कॉल है, सोशल मीडिया है…मगर कुछ नहीं है तो अपने लिए कुछ समय निकालने की ललक, अपने मित्रों से रूबरू होने की चाहत, हम अनौपचारिकताओं के बीच अनौपचारिक हो रहे हैं…जुड़ रह हैं ऊपर से। हमारी सारी रुचियाँ फेसबुक, सिनेमाहॉल, मल्टीप्लेक्स, मॉल, रेस्तराओं तक सिमट गयी है…छोटी – छोटी बातें पीछे छूटती गयीं। किताबों की जगह भी डिजिटल उपकरणों ने ले ली और कागज की वह सोंधी – सोंधी गन्ध भी हम भूलते जा रहे हैं…बस कितना कुछ तो है सोचने के लिए…। बच्चों को सुविधाओं के मायाजाल में ऐसा बाँधे जा रहे हैं कि एक हल्की सी चोट और हल्की सी तकलीफ भी उन पर भारी पड़ रही है।
हमारे पूर्वजों का जीवन प्रकृति के साहचर्य़ का जीवन था..वह उतना ही लेते थे जितना आवश्यक होता था…जितने की आवश्यकता होती थी, उतने की ही इच्छा रखते थे। आप किसी का भी जीवन उठाकर देखिए..वनों औऱ वनवासियों के साथ प्रकृति का संरक्षण ही किया उन्होंने..हम राम और कृष्ण को पूजते हैं…शिव की आराधना करते हैं पर उनके जीवन से हमने क्या सीखा…कुछ भी तो नहीं..वेदों में प्रकृति की आराधना है…,वेदों से प्रेम है तो प्रकृति से प्रेम करना सीखिए…संस्कृति से प्रेम है तो प्रकृति का संरक्षण करिए..,.आपने प्रकृति से खिलवाड़ किया…ईश्वर अपनी संतानों का क्रन्दन कैसे देख पाता इसलिए यह एक दंड ही समझिए…एक वृक्ष को 10 पुत्रों के बराबर माना गया है। आधुनिक युग में आचार्य़ जगदीश चन्द्र बोस ने भी प्रमाणित किया कि पौधों में जीवन होता है…आप उनको जीवन देते, वृक्ष लगाते तो सम्भवतः ऑक्सीजन प्लांट की जरूरत ही न पड़ती.. जो देता है, वही श्रेष्ठ होता है, छीनने वालों को श्रेष्ठ होने का दम्भ रहता है और वे अपनी श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र दूसरों से चाहते हैं….आप एक नकली जीवन जीते रहे और इसे अपनी उपलब्धि मानकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं पर हुआ क्या….प्रकृति के प्रतिकार ने आपको आपकी जगह दिखा दी।
हर साल की तरह इस बार भी पर्यावरण दिवस मनाने का मन बना रहे हैं। कोविड के कारण बड़े – बड़े समारोह होना कठिन है तो ऐसे में एक काम करिए न…मानते हैं हम कि सड़क पर पेड़ लगाना हमारे हाथ में नहीं है,,,मगर अपने कमरे में तो 2 पौधे लगाकर उनको पानी दे ही सकते हैं…उनका ख्याल रख ही सकते हैं। पौधे आपको ऑक्सीजन देंगे और आपको एक सन्तुष्टि मिलेगी…तो इस बार एक कमरा, दो पौधे और एक हरी -भरी सृष्टि।

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