विजय दिवस पर विशेष: जब पाकिस्तानी जनरल को मौत के मुंह से बचा दिये हमारे जवान

लोकनाथ तिवारी

16 दिसंबर 1971 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने कार्यालय में स्वीडिश टेलीविज़न को साक्षात्कार दे रही थीं कि तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल रंग का टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर उठाकर उन्होंने मात्र चार शब्द कहे, यस-यस, थैंक यू. फोन पर दूसरी ओर भारतीय सेना के जनरल मानेक शॉ थे जो प्रधानमंत्री को बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे. श्रीमती गांधी साक्षात्कार बीच में ही छोड़कर तुरंत वहां से उठकर तेज़ क़दमों से लोक सभा की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने घोषणा की ” ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है.” बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी के बीच डूब गया.
आजाद भारत के इतिहास की उस स्वर्णिम घटना का आज स्वर्ण जयंती वर्ष आज शुरू हो रहा है. एक ऐसी घटना जिसने भारतीय सेना के पराक्रम को इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज कर दिया. इस युद्ध और विजय का श्रेय जांबाज भारतीय सेना के साथ भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी जाता है, जिन्होंने पड़ोसी मुल्क में शांति बहाली और अपनी सीमाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए युद्ध का फैसला लिया. 16 दिसंबर 1971 की तिथि हर भारतीय के लिए गर्व का दिन है. महज 13 दिनों तक चली भारत-पाक की लड़ाई में हमारी सेना ने लगभग 95000 पाकिस्तानी सैनिकों को घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया. साथ ही पाकिस्तान के चंगुल से बांग्लाभाषी लोगों को मुक्त कर उनके लिए स्वतंत्र देश के गठन में महती भूमिका निभायी. आज भी भारतीय सेना, विशेष रूप से पूर्वी कमान की ओर से यह दिवस विशेष रूप से मनाया जाता है. भारत-बांग्लादेश सीमा पर तैनात बॉर्डर सीक्यूरिटी फोर्स के जवान भी विजय दिवस को खास तौर पर मनाते हैं.
लड़ाई, और पाकिस्तान के विभाजन का कारण
विजय दिवस की जयगाथा की नींव तो 25 फरवरी 1948 को उसी समय पड़ गयी थी, जब पाकिस्तानी संसद में उर्दू और अंग्रेजी के साथ बांग्ला को भी मान्यता देने की बात उठायी गयी. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने न केवल उसे खारिज कर दिया, बल्कि बांग्ला को मान्यता देने की बात का मजाक भी उड़ाया. यहीं से शुरुआत हुई एक नये देश के जन्म की, जिसे आज हम बांग्लादेश के नाम से जानते हैं.
अविभाजित भारत से 14 अगस्त को धार्मिक आधार पर पाकिस्तान बना. लेकिन इसी पाकिस्तान में भी भाषा-बोली, खान-पान और मान्यताओं को लेकर भारी फर्क था. एक हिस्सा पंजाबी, सिंधी बोलता तो दूसरे में बांग्लाभाषी रहते. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में विषमताएं इतनी ज्यादा थीं कि जल्द ही राजनैतिक रूप से ज्यादा समृद्ध पश्चिमी हिस्सा पूर्वी हिस्से पर नियंत्रण की कोशिश करने लगा, वहां के लोगों को चुनाव में हिस्सा लेने से रोका जाता, राजनैतिक पद नहीं मिलते थे. ऐसे में पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीब-उर-रहमान ने अवामी लीग बनाते हुए अपने हिस्से के लोगों की बात सामने रखने की कोशिश की.
सन् 1970 में पाकिस्तान में हुए चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान आवामी लीग ने 169 में से 167 सीटों पर जीत दर्ज की और शेख मुजीबुर रहमान ने संसद में सरकार बनाने की पेशकश की, मगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो ने इसका विरोध किया और हालात इतने गंभीर हो गए कि राष्ट्रपति को सेना बुलवानी पड़ी, फौज में शामिल अधिकतर लोग पश्चिमी पाक के थे, पूर्वी पाक की सेना को यहां हार का सामना करना पड़ा और शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया, बस यहीं से यद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई.


अपने प्रिय नेता को प्रधानमंत्री बनता देखने का सपना संजोये लोगों में पहले ही गुस्सा चरम पर था. पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल याह्या खान की ज्यादतियों ने उन्हें और उकसा दिया. उनके आदेश पर जनरल टिक्का खान ने सैनिकों को बांग्लाभाषी पाकिस्तानियों को जहां दिखें, मार देने का आदेश दिया. खासकर पूर्वी हिस्से में रहने वाले गैर-मुस्लिम लोगों को निशाना बनाया गया. लाखों लोगों के रक्तपात का आदेश देने वाले जनरल खान को इतिहास में बंगाल का कसाई भी कहा जाता है. इस हत्याकांड पर जनरल ने कहा था, ‘महज 30 हजार बंगाली ही तो मरे हैं, क्या हो गया.’
शेख मुजीबुर रहमान पर हुए जुल्म से भड़के लोगों को शांत करने की बजाए पाकिस्तानी सरकार जनसंहार पर उतर आई. पूर्वी लोगों को भारत का एजेंट कहा जाना लगा और ऑपरेशन सर्च लाइट चलाकर उन्हें मारने का अभियान चल पड़ा. निहत्थे, मासूम लोगों को घर से निकाल-निकालकर मारा गया. औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार के दौर चलने लगे. बड़ी संख्या में ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों को गोलियों से भून दिया गया. आज भी ढाका मस्जिद के पास एक बड़ी सी कब्र है जिसमें दफ्न हजारों लाशें उस दौर की स्मारक हैं. पाकिस्तानी सेना द्वारा हत्या, बलात्कार और टॉर्चर से बचने के लिए बड़ी संख्या में अवामी लीग के सदस्य भागकर भारत आ गए. भारत में शरणार्थी संकट बढ़ने लगा. एक साल से भी कम समय के अंदर बांग्लादेश से लाखों शरणार्थियों ने भागकर भारत के पश्चिम बंगाल में शरण ली. इससे भारत पर पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बढ़ गया.
मुक्तिवाहिनी को भारत का समर्थन
पश्चिमी पाकिस्तान की बर्बरता के कारण मुक्ति वाहिनी का गठन हुआ. मुक्तिवाहिनी दरअसल पाकिस्तान से बांग्लादेश को आजाद कराने वाली पूर्वी पाकिस्तान की सेना थी. मुक्तिवाहिनी में पूर्वी पाकिस्तान के सैनिक और हजारों नागरिक शामिल थे. 31 मार्च, 1971 को इंदिरा गांधी ने भारतीय सांसद में भाषण देते हुए पूर्वी बंगाल के लोगों की मदद की बात कही थी. 29 जुलाई, 1971 को भारतीय सांसद में सार्वजनिक रूप से पूर्वी बंगाल के लड़कों की मदद करने की घोषणा की गई. भारतीय सेना ने अपनी तरफ से तैयारी शुरू कर दी. इस तैयारी में मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को प्रशिक्षण देना भी शामिल था.
इस दौरान पड़ोसी मुल्क की अस्थिरता का असर पड़ा भारत पर. वहां से लोग भाग-भागकर भारत की शरण लेने लगे. माना जाता है कि उसी दौर में लगभग एक करोड़ शरणार्थी भारत आए. भारत ने बॉर्डर खोल दिए थे, प्रवासी कैम्प बनवा दिए थे और शरणार्थियों की देखभाल के लिए आर्थिक व राजनैतिक प्रयास हो रहे थे. भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ये मामला पहले वैश्विक पटल पर उठाया लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. दूसरी ओर जनसंहार जारी रहा.
अक्टूबर-नवंबर, 1971 के महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके प्रतिनिधियों ने यूरोप और अमेरिका का दौरा किया. उन्होंने दुनिया के लीडरों के सामने भरत के नजरिये को रखा, लेकिन इंदिरा गांधी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के बीच बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची. निक्सन ने मुजीबुर रहमान की रिहाई के लिए कुछ भी करने से हाथ खड़ा कर दिया. निक्सन चाहते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार को दो साल का समय दिया जाए. दूसरी ओर इंदिरा गांधी का कहना था कि पाकिस्तान में स्थिति विस्फोटक है. यह स्थिति तब तक सही नहीं हो सकती है जब तक मुजीब को रिहा न किया जाए और पूर्वी पाकिस्तान के निर्वाचित नेताओं से बातचीत न शुरू की जाए. उन्होंने निक्सन से यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान ने सीमा पार (भारत में) उकसावे की कार्रवाई जारी रखी तो भारत बदले कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा.
भारत पर हमला और युद्ध की शुरुआत
पूर्वी पाकिस्तान संकट विस्फोटक हो गया था. पश्चिमी पाकिस्तान में भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की मांग की जाने लगी थी. दूसरी तरफ भारतीय सैनिक पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर चौकसी बरते हुए थे. 23 नवंबर, 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान ने पाकिस्तानियों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा. 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की वायु सेना ने भारत पर हमला कर दिया. भारत के अमृतसर और आगरा समेत कई शहरों को निशाना बनाया गया. इसके साथ ही 1971 के भारत-पाक युद्ध की शुरुआत हो गई. पाकिस्तानी सेना के हमले की प्रतिक्रिया में भारतीय सेना रणनीति के साथ बांग्लादेश की सीमा में घुसी और लगभग 15 हजार किलोमीटर के दायरे को अपने कब्जे में ले लिया. संघर्ष की शुरुआत हुई, जिसमें दोनों ओर से लगभग 4 हजार सैनिक मारे गए. युद्ध में भारतीय सेना ने जबरदस्त प्रदर्शन किया, 13 दिन चली इस लड़ाई में पाक सेना को मुंह की खानी पड़ी. 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की सेना के आत्मसमर्पण और बांग्लादेश के जन्म के साथ इस युद्ध का समापन हुआ. पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा बांग्लादेश के रूप में जाना जाने लगा.
30 लाख लोग मारे गये
पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के जुल्म इतने बढ़ गए थे कि भारतीय फौज ने पाकिस्तानी सेना पर हमला बोल दिया. तारीख थी 3 दिसंबर 1971. केवल 13 दिनों तक चले इस युद्ध में भारतीय सेना के आगे पाकिस्तान को घुटने टेकने पड़े और तभी पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा बांग्लादेश बन गया. इस युद्ध और आजादी के पीछे जनसंहार और मानसिक-शारीरिक-आर्थिक यातनाओं की लंबी-चौड़ी पृष्ठभूमि रही. हालांकि भारतीय सेना के दखल के पहले ही पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिमी पाकिस्तान की ज्यादतियों के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था. आंतरिक युद्ध साल 1971 में मार्च में ही शुरू हो गया था. तब के पूर्वी पाकिस्तानवासियों का मानना है कि इस दौरान बर्बर सेना ने 30 लाख से भी ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. आजादी की ये लड़ाई इतिहास में मुक्ति संग्राम के नाम से दर्ज है.
इंदिरा गांधी ने मनवाया लोहा
तीन दिसंबर 1971 को इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं. शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए. इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया. दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया. ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद उन्होंने देश को भी संबोधित किया.
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं. जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा के अनुसार जब आधी रात के समय जब रेडियो पर इंदिरा गांधी ने देश को संबोधित किया था तो उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब वे उनसे मिलने गये तो ऐसा लगा कि उन्हें कोई फ़िक्र ही नहीं. जब जंग के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है.
जब मुक्तिवाहिनी ने नियाजी को घेर लिया
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को जनरल मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. उसी दिन शाम को चार बजे पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल एके नियाज़ी और जैकब ढाका में भारतीय कमांडर ले जनरल जगदीश सिंह अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते में जैकब ने दो भारतीय जवानों को भी अपने पीछे आने के लिए कहा. तभी जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद भारतीय जवानों से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी राइफ़लें तान दें. जैकब ने विनम्रता पूर्वक सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए. जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने तब गुर्राते हुए कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले जाएं. तब टाइगर सिद्दीकी वहां से हटा.
साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे. रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया. अरोडा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें नम हो गयी थीं. वहां मौजूद भीड़ नारे लगा रही थीं. नियाजी को मारने पर उतारू भीड़ से बचाने के लिए हमारे जवानों ने मानव प्राचीर बना दी. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी को एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह पहुंचा दिया.

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