‘विट्ठल गिरधर’  छाप लगाई, लीला पद गंगा बहु गाई’

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को दीपावली की राम- राम। सखियों, जैसा कि आपको पहले भी बता चुकी हूँ कि मध्ययुगीन रचनाकारों में ऐसी बहुत सी स्त्रियाँ रचनाकर्म से जुड़ी हुई थीं जिन पर इतिहास- लेखकों की दृष्टि नहीं पड़ी। न जाने कितनी भक्त कवयित्रियाँ अलक्षित ही  रह गई हैं। उनमें से कुछ की गिनी- चुनी रचनाएँ उपलब्ध हैं तो कुछ के नाम भी समय के प्रवाह में लुप्त हो गये हैं। ऐसा ही एक नाम है, गंगाबाई का जो‌ श्री विट्ठल गिरधर या विट्ठल गिरधरन के नाम से काव्य- सृजन करती थीं। गंगाबाई गुसाईं विट्ठलनाथ की शिष्या थीं। “दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता” के अनुसार गंगाबाई की माता क्षत्राणी थीं। वह महावन में रहती थीं और श्री गुसाईं विट्ठलनाथ जी की सेवा करती थीं लेकिन वह गुसाईं जी को गुरु भाव से नहीं बल्कि काम -भाव से देखती थीं। जब गुसाईं जी को इस बात का आभास हुआ तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने उन्हें गोकुल आने की मनाही कर दी। महावन में रहते हुए और गुसाईं जी की वियोग-व्यथा को झेलते हुए एक दिन वह उनका ध्यान कर रही थीं कि स्वप्नावस्था में उन्हें लगा कि वह गर्भवती हैं।  उन्होंने गंगाबाई को जन्म दिया तथा पुन: भगवद्भक्ति में लीन हो गईं। इस कथा का सार यही है कि गंगाबाई की माता गुसाईं विट्ठलनाथ की शिष्या या सेविका थीं। गंगाबाई भी बड़ी होकर उन्हीं की सेवा करने लगी और बाद में वह महावन से गोपालपुर आकर रहने लगीं। कहा जाता है कि श्री गोवर्धन जी (कृष्ण का एक स्वरूप) उनके साथ हँसते- खेलते और बातें करते थे। वह उन्हें अपनी लीलाओं का दर्शन भी कराते थे। गंगाबाई गोवर्धन जी अर्थात कृष्ण की स्तुति करने हेतु पदों की रचना और उनका गायन करती थीं। इन पदों को वह अपने गुरु ‌विट्ठलनाथ जी को भी सुनाती थीं। संभव है कि गुरु उन पदों में कुछ संशोधन-परिमार्जन करते हों। चूंकि वह विट्ठलनाथ जी की शिष्या थीं संभवतः इसीलिए वह विट्ठल गिरधरन के नाम से काव्य- रचना किया करती थीं।

 उनके पदों का संग्रह और संपादन  करने वाले रमणिक लाल पीठदिया के अनुसार उनका जन्म संवत 1628 में और मृत्यु 1736 में हुई। इसके अनुसार उनकी उम्र तकरीबन 108 वर्ष की ठहरती है। गुसाईं जी के प्रपौत्र श्री हरिराय जी ने अष्टछाप के कवियों के पदों का जो संचयन किया उसमें गंगा बाई के पदों को भी शामिल किया गया है। श्री रूपचंद खंडेलवाल “भूप” ने “विट्ठलायन” ग्रंथ में गंगाबाई को श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। उनका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है-

“रह गोपालपुर त्याग महावन। नित्य जहां तेहि लीला दर्शन।।

गोवर्धन ता ढिंग आवैं। चौपड़ खेले हँसे- हँसावैं।।

‘विट्ठल गिरधर’  छाप लगाई। लीला पद गंगा बहु गाई।।” 

इन विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि गंगाबाई कृष्ण की अनन्य भक्त थीं। ऐसी भक्तिन कि वह अपने कल्पना- लोक में विचरण करते हुए यह आभास भी करती थीं कि कृष्ण उनसे बातें कर रहे हैं और वह मीराबाई की तरह कृष्ण को अपने पदों का गायन करके सुना रही हैं। यह भाववावेश की एक स्थिति विशेष होती है जिसमें कल्पना भी सच लगती है, इसे आज मनोवैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है। गंगाबाई और कृष्ण को लेकर बहुत सी कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक कहानी यह भी है कि श्रीनाथ जी (कृष्ण का एक रूप विशेष जिसमें बालक के रूप में उनकी पूजा होती है) गंगाबाई को सदेह अपनी लीला में लेकर गये थे। एक ओर तो गंगाबाई के पदों और उनके बारे में प्रचलित कहानियों में यह संकेत मिलता है कि वह कृष्ण को बालक रूप अर्थात श्रीनाथ जी के रूप में पूछती थीं और कई ऐसी कहानियाँ मिलती हैं जिनमें वह श्रीकृष्ण को “लरिका” अर्थात बालक कहकर संबोधित करती हैं और उनके बालहठों को पूरा भी करती हैं तो दूसरी ओर वह सखी या संगिनी के रूप उनके साथ लीला भी करती हैं। वस्तुत: श्रीनाथ जी के प्रति वात्सल्य भाव तो दिखाई देता है लेकिन कृष्ण के प्रति माधुर्य भाव की भक्ति ही गंगाबाई के जीवन और उनके काव्य का मुख्य स्वर है। माधुर्य भक्ति से पूरित इन पदों में कृष्ण की प्राप्ति की उत्कंठा प्रस्फुटित हुई है। कृष्ण के रूप- सौन्दर्य का बहुत अधिक वर्णन तो कवयित्री नहीं करतीं लेकिन कृष्ण की रूप- माधुरी और उनकी रसिकता की चर्चा वह अवश्य करती हैं। उस स्वरूपवान कृष्ण के सामीप्य लाभ के लिए गोपियाँ तरह- तरह के जतन करती हैं और अपनी व्याकुलता को प्रकट करने से भी नहीं हिचकिचातीं। उस व्याकुलता के चित्रण में गंगाबाई के ह्दय के भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उद्धृत पद देखिए-

“सखी अब मो पै रह्यो न जाय।

चलि री मिल उन ही पैं जैये जहाँ चरावत गाय।।

अंग अंग की सब सुधि भूली देखत नंद किशोर।

मेरो मन हर लियो तब ही को जब चितयें यह ओर।।”

कृष्ण के प्रति अनुराग और कृष्ण के रूप का प्रभाव इतना ज्यादा है कि भक्त कवयित्री अपनी विकलता को अपने पदों में जीवन्त कर देती है। ऐसा नहीं कि कृष्ण पर इस विकलता कोई प्रभाव नहीं पड़ता।‌ वह भी अपनी भक्तिन की मनोकामना पूरी करने को तैयार हैं जाते हैं लेकिन बदले में या दान में कुछ मांगते हैं और यह भक्तिन दान में दे भी तो क्या। वह तो अपना सर्वस्व पहले ही कृष्ण पर वार चुकी है। प्रेमपूरित माधुर्य भाव की भक्ति में समर्पण ही मुख्य है और गंगाबाई भी यही करती हैं। स्वयं को कृष्ण के चरणों पर वारकर उनकी प्रेमासिक्त भक्ति में आपादमस्तक आप्लावित हो जाती हैं‌। उद्धृत पद में समर्पण भाव का सुंदर वर्णन हुआ है –

“ग्वालिनि दान हमारो दीजै।

अति मनमुदित होय ब्रजसुंदरि खत लाल हसि लीजै।।

दीजे मन मेरो अब प्यारे निरखि निरखि मुख जीजे।

अति रस गलित होत वः भामिनी मनमाने सो कीजे।।

चलि न सकत अति ठठकि रहत पग रूप रासि अब पीजे।

श्री विठ्ठलगिरिधरन लाल सों नवल नवल रस भीजे ।।”

 “गंगाबाई के पद” नामक संग्रह में गंगाबाई के तमाम पद संकलित हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इनके पदों की संख्या तकरीबन 296 है। ये पद कृष्ण की भक्ति और प्रेम के साथ ही उनकी दिनचर्या से जुड़े विभिन्न प्रसंगों पर केंद्रित हैं। इन पदों में नायिका भेद की परिपाटी पर विरह व्यथा से व्याकुल विरहिणी नायिका का वर्णन भी हुआ है और खंडिता नायिका का भी। रासलीला और दानलीला के पद तो अत्यंत ह्दयग्राही बन पड़े हैं। इनके अतिरिक्त वर्षा ऋतु में गाए जाने वाले हिंडोला के पद भी हैं और फागुन या होरी के पद भी। मल्हार, धमार, राग गौड़ आदि पर केंद्रित पदों की रचना भी गंगाबाई ने की है। जन्माष्टमी के अवसर पर गाए जानेवाले बधाई गीत एवं भजन तो बहुत ही सुंदर बन पड़े। गुसाईं जी को विभिन्न अवसरों पर बधाई देते हुए भी गंगाबाई ने कुछ पदों की रचना की है। वस्तुतः गंगाबाई सिर्फ भक्तिन ही नहीं थीं बल्कि काव्य मर्मज्ञ भी थीं। वह स्वयं को कृष्ण की अनन्य प्रेयसी मानती थीं‌। उनका पूरा जीवन कृष्णार्पित था। उन्हें राग- रागिनियों का पर्याप्त ज्ञान भी था जिनका उपयोग वह काव्य- रचना में करती थीं। सरल- सहज ब्रजभाषा में रचित उनके पद अत्यंत सरस तथा ह्दयग्राही हैं। 

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