विश्व परिवार दिवस पर विशेष कविता – परिवार

-बब्बन

जहाँ नहीं होता है कोई ईगो,
या औपचारिकता से सरोकार।
एक दूजे की सलामती के लिए,
होती रहती है छोटी मोटी तकरार।
जहाँ कभी अपनों के लिए,
अनिवार्य नहीं कोई आभार।
पत्नी की मुस्कुराहट पर,
पति हो जाए निसार,
अक्सर झेलता रहे निरीह बन,
पत्नी के प्रवचनों का गुब्बार।
फिर भी हर गतिविधियों में हो,
अपनापन का दीदार।
किसी को बहन से झिड़की,
तो किसी को भाई से दुलार।
कभी पिता के कंधों से चाँद देखना,
तो कभी माँ के गोद पर जमाना अधिकार।
कभी दादी की कहानी व दीदा,
तो कभी दादा की डाँट फटकार।
कभी नानी के तोहफे की बखान,
कभी बुआ के पकवानों की बहार।
माँ पर कब्जा जमाने के लिए,
बना देना तकिए की दीवार।
एक छू कर देखे, दूसरा थर्मामीटर लगावे,
तीसरा दवा खिलावे, होने पर बुखार।
एक दूजे के लिए कष्ट झेलकर भी,
नहीं जताता कोई उपकार।
आखिर में गिला शिकवा भूलकर,
हँसी ठिठोली में होता उपसंहार।
भारतीय परिवेश में इसी संस्था को,
आप कहते हैं आदर्श परिवार।

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