ऐ सखी सुन 50वाँ अंक : रत्नकुँवरि कहै राम रँगीलो, रूप गुनन आगारो रे

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों साहित्य- सृजन के क्षेत्र में आज असंख्य स्त्रियाँ सक्रिय हैं लेकिन एक जमाना वह भी था जब अक्षर ज्ञान तक स्त्रियों के लिए वर्जित था, लिखना तो दूर की बात है। हालांकि राजकुल की स्त्रियों की नियति इस मायने में थोड़ी सी ही सही अलग जरूर हुआ करती थी। राजकुल की लड़कियों को पढ़ने- लिखने के अवसर आसानी से मुहैया हो जाते थे और उनमें से कुछ प्रतिभावान लड़कियाँ, स्त्रियाँ पोथी पढ़ते हुए ग्रंथ लिखने के रास्ते पर भी अनायास ही चल पड़ती थीं। राजस्थान की बहुत सी स्त्रियों ने साहित्य- सृजन कर तत्कालीन समाज और साहित्य को अपने रचनात्मक अवदान से समृद्ध किया है। राजस्थान राजघराने की ऐसी कुछ स्त्रियों की साहित्य साधना से मैं आपको परिचित करवा चुकी हूं। आज आपका परिचय मध्यकालीन कवयित्री रत्नकुँवरि बाई से करवाऊंगी जो रत्नकुँवरि भटियानी के नाम से भी जानी जाती हैं। 

रत्नकुँवरि बाई जोधपुर के महाराजा मानसिंह की महारानी प्रतापकुँवरि बाई के भाई ठाकुर लक्ष्मण सिंह जखाणा की सुपुत्री थीं। कहा जाता है कि जब इनकी उम्र सिर्फ पाँच वर्ष की थी तभी इनका ब्याह महाराजा तख्तसिंह के पुत्र प्रतापसिंह के साथ हो गया था जो बाद में ईडर (शेखावत)  के महाराजा बने। विवाह के समय प्रतापसिंह की उम्र नौ वर्ष थी। “स्त्री कवि कौमुदी” के रचनाकार श्री ज्योति प्रसाद “निर्मल” के अनुसार रत्नकुँवरि का विवाह पंद्रह वर्ष की उम्र में हुआ था और यह विवाह उनकी फूफी प्रतापकुँवरि ने करवाया था। प्रतापकुँवरि जो स्वयं एक ऊंचे दर्जे की राम भक्त  कवयित्री थीं, की संगति में रत्नकुँवरि का मन भी भक्ति में रम गया और उन्होंने राम की भक्ति में विभोर होकर भक्तिकाव्य की रचना की। सियावर राम के चरणों में स्वयं को न्योछावर करती हुई वह लिखती हैं –

“सियावर तेरी सूरत पै हूँ वारी रे।

सीस- मुकुट की लटक मनोहर मंजु लगत है प्यारी रे।।

या छवि निरखन को मो नैना जोवत बाट तिहारी रे।

रत्नकुँवरि कहे मो ढिंग आके झलक दिखा धनुधारी रे।।”

राम की भक्ति में आपाद मस्तक डूबी कवयित्री अपनी मनस्थिति का वर्णन इस प्रकार करती हैं –

“मेरा मन मोह्यो रंगीले राम।

उनकी छवि निरखत ही मेरो बिसर गयो सब काम।

आठों पहर ह्रदय बीच मेरो आन कियो निज धाम।।

रत्नकुँवरि कहै वाकै पल पल ध्यान धरूँ नित सा।।”

ध्यान देने की बात यह है कि धनुर्धारी और मर्यादापुरुषोत्तम राम को कवयित्री अपने इस पद में “रंगीले राम” कहकर संबोधित करती हैं। ऐसा लगता है मानो भक्तिभाव ही मुख्य है और उसके वेगमय प्रवाह में राम और कृष्ण की छवियाँ आपस में घुलमिलकर एक हो गई हैं। तभी तो राम भी कृष्ण की भांति रंगीले नजर आते हैं और उनके प्रति अपने ह्रदय का प्रेम उड़ेलती हुई, अपनी विरह व्यथा को चित्रित करती हुई मिलन की आकांक्षा को कवयित्री इस प्रकार स्वर देती हैं –

“रघुवर म्हांरा रे म्हांकू दरस दिखाजारे|

तो देखन की चाह बनी है, टुक इक झलक दिखा जा रे|

लाग रही तेरी केते दिन की, मीठे बैन सुना जा रे|

रतनकुँवरि तो सों यह विनती, एक बेर ढिग आ जा रे||

भक्तिकाव्य में भक्त द्वारा भगवान के रूप वर्णन की परंपरा देखने में आती है। कवयित्री रत्नकुँवरि भी इसका अपवाद नहीं हैं। अपने आराध्य देव राम के प्रेम में मगन होकर, उनके प्यारे, मनभावन रूप का वर्णन वह बेहद सरसता के साथ करती हैं-

“रघुवर प्यारो रे।

दसरथराज-दुलारो रे।

सीस मुकुट पर छत्र विराजत, कानन कुंडल वारो रे।

बाँकी अदा दिखाय रसीली, मोह लियो मन म्हाँरो रे।।

रत्नकुँवरि कहै राम रँगीलो, रूप गुनन आगारो रे।।

सहज, सरल ब्रजभाषा में रचित ये पद अत्यंत सरस और ह्दयग्राही हैं। जनमानस के बीच इनकी रचनाओं की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी इनके पद और भजन हरजस रात्रि जागरण पर गाए जाते हैं। इन्होंने राजस्थानी भाषा में भी पदों की रचना की है। भाषा भले ही अलग है लेकिन भाव वही हैं। यहाँ भी राम को प्रियतम के रूप में याद किया गया है और स्वयं को उनके चरणों में वारती हुई कवयित्री उनसे कृपा की आकांक्षा व्यक्त करती हैं। उदाहरण देखिए-

“थारी छूँ जी म्हाँरा प्यारा राम, कीजो म्हाँसू दिलदाड़ी बात।

मिल बिछुड़ण नहिं कीजै साँवरा, राखो जी चरणारी साथ।।

ध्यान धरूँ हरदय बिच तुमको, याद करूँ दिन रात।

रत्नकुँवरि पर महर करो अब, निज कर पकरो हाथ।।”

रत्नकुँवरि बाई के किसी संग्रह के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। विभिन्न पुस्तकों में संकलित उनके पद अवश्य मिलते हैं जो पाठकों को अपनी सरसता से सहज ही प्रभावित कर लेते हैं। भक्त कवयित्री की विरह व्यथा और व्याकुलता में बंधनों में जकड़ी मध्युगीन स्त्री की पीड़ा को सहजता से अनुभूत किया जा सकता है जो मुक्ति के लिए अपने आराध्य से विनती करती दिखाई देती है।   

 

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