जाति और ब्राह्मणत्व

कुमार संकल्प
ब्राह्मणत्व का सम्बन्ध जाति से नहीं है।ब्राह्मणत्व एक गुण है।यह गुण जिसमें है वही ब्राह्मण है।ब्राह्मणत्व का अभिमान बुरी चीज नहीं है लेकिन यह यदि जाति पर आधारित हो गुण पर नहीं तो इसका अभिमान मिथ्या दम्भ है, जो केवल ऊंच-नीच की भावना को जन्म देने के लिए किया जाता है। रावण ब्राह्मण था, महान ऋषि पुलस्त्य का पौत्र और ऋषि विश्रवा का पुत्र था।परंतु उसे सभी एक राक्षस के रूप में जानते हैं ब्राह्मण के रूप में नहीं। उसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे परंतु उन्हें लोग एक ब्राह्मण के रूप में जानते हैं। महर्षि बाल्मीकि के बारे में भी एक मत है कि वे रत्नाकर नामक डाकू थे और आदिवासी शुद्र समुदाय से थे।परंतु अपनी साधना के बल पर ब्राह्मणत्व को अर्जित कर एक ब्राह्मण ऋषि के रूप में विख्यात हुए।
उसी आधार पर कई समुदाय अपना सरनेम बाल्मीकि रखते हैं।(हालाँकि एक मत यह भी है कि वे महर्षि प्रचेता के दशम पुत्र थे।कोई उन्हें ब्रह्मा का औरष पुत्र कहता है तो कोई प्रचेता का मानस पुत्र।)एक ब्रह्मर्षि और हैं जिनका इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्व है।वे हैं महर्षि कश्यप।उनकी कई संताने थीं। वे सब अपने गुणों के आधार पर जानी गईं पिता की जाति के आधार पर नहीं।उनकी संताने अपने-अपने गुणों के आधार पर देव, दानव, ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र की श्रेणी को प्राप्त हुईं। (हालाँकि इस विभाजन का आधार कुछ लोग इनकी माताओं को मानते हैं। परंतु ब्राह्मण पिता की संतान यदि ब्राह्मण नहीं कहला सकती तो क्षत्रिय माता की संतान क्षत्रिय कैसे कहलाएगी? अतः माता का आधार लेकर जातिवाद के पक्ष में कुतर्क गढ़ना उचित नहीं है। अतः महर्षि कश्यप की संतानों की पहचान उनकी माताओं के आधार पर न होकर गुणों के आधार पर है।)
कुछ लोग गोत्र के आधार पर अपनी श्रेष्ठता का दम्भ पाल लेते हैं। आपके गोत्र की श्रेष्ठता से आपका कुछ लेना – देना नहीं है। आप श्रेष्ठ हैं कि नहीं इससे आपका लेना-देना होना चाहिए। सारे गोत्र ही ब्राह्मण हैं , फिर उनमें श्रेष्ठ और तुच्छ का सवाल ही नहीं।महर्षि वशिष्ठ, भारद्वाज, कश्यप , अग्नि, अत्रि में कौन श्रेष्ठ है और कौन तुच्छ? गोत्र श्रेष्ठ है तो गर्व कीजिये परंतु यदि आप उसी अनुरूप स्वयं श्रेष्ठ नहीं हैं तो यह लज्जा का विषय है गर्व का नहीं। समस्त भारतवंशी ऋषियों की संतान हैं , अतः कोई छोटा या बड़ा अथवा ऊंच-नीच नहीं है। वर्ण गुण मूलक है, जाति मूलक नहीं। चारों वर्णों की परिभाषा गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत ही उत्तम तरीके से समझाया है। जातिवाद के चक्कर में उलझने वालों को एक बार गीता का यह प्रसंग जरूर पढ़ना चाहिए। गीता ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है, इससे बड़ा कोई शास्त्र नहीं, इसे स्वीकार करना चाहिए।उपनिषदों में भी चारों वर्णों की ऐसी ही परिभाषा बतलाई गयी है। इनका जाति- विशेष से कोई संबंध नहीं। इनका संबंध मनुष्य से है।
जो सत्व-गुण में स्थित है, ब्रह्म को जानने वाला है, जो भक्ति-योग में स्थित हो चुका है वही ब्राह्मण है। जो भक्ति-योग में स्थित होने के लिए संघर्षरत है, युद्धरत है वही क्षत्रिय है।भक्ति में इन्हीं का ऊंचा स्थान है , इसीलिए इनको श्रेष्ठ कहा जाता है परन्तु लोग इसे जाति-विशेष समझ कर ऊंच-नीच में उलझ जाते हैं। अर्जुन क्षत्रिय कुल का था फिर भी उसे कृष्ण महाराज कहते हैं, ‘ हे अर्जुन तू शूद्रत्व से ऊपर उठ, क्षत्रिय बन ,फिर ब्राह्मण बनना सहज हो जाएगा।’
चित-वृत्तियों को माया-मोह, काम-क्रोध आदि निकृष्ट वृत्तियों से मोड़कर उन्हें सत्व- गुण में स्थित करने के लिए जो मनुष्य निरन्त युद्ध करता रहता है वही सच्चा क्षत्रिय योद्धा है।जिसकी चित्तवृत्ति मोह, लोभ, काम, मद, आलस, निद्रा आदि का गुलाम है वही शुद्र है।वह जाति से चाहे बाबाजी हो या राजपूत, इसका इस ब्राह्मण और क्षत्रिय से कोई सम्बन्ध नहीं।यह भक्ति के क्षेत्र में गुण पर आधारित कोटियां हैं।(देखें श्रीमद्भागवत गीता, दूसरा अध्याय)आप अपने गुण के आधार पर खुद तय करें कि आप क्या हैं जाति के आधार पर नहीं।यही वैदिक परंपरा है, यही आर्ष परंपरा है, यही भारतीय परंपरा है।

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