ब्रज भाषा की उत्कृष्ट कवयित्री आनंद कुंवरी राणावत

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, राजस्थान के राजघराने की नारियों का साहित्य के क्षेत्र में बहुत अवदान रहा है। उनमें से कुछ के अवदान को याद रखा गया तो कुछ इतिहास के बीहड़ में गुम हो गईं। मैं सिलसिलेवार ढंग से उनके अवदान से आपको अवगत करवाने का तुच्छ प्रयास कर रही हूँ। उम्मीद है कि आप इन विस्मृत कवयित्रियों की रचनाओं का पाठ कर न केवल स्वयं इनके व्यक्तित्व से परिचित होंगी बल्कि इसे दूसरों तक पहुँचाने का प्रयास भी करेंगी। 

सखियों, आज मैं राजपूताने की कवयित्री आनंद कुंवरी राणावत के साहित्य से आपको परिचित करवा रही हूँ। आनंद कुंवरी जी शाहपुरा (मेवाड़) के राजा अमरसिंह की पुत्री एवं राजा माधव सिंह की बहन थीं। उनका विवाह  अलवर रियासत के महाराजा विजयसिंह के साथ हुआ था। महाराजा विजयसिंह स्वयं भी एक अच्छे कवि थे। उनका शासनकाल विक्रम संवत 1871 से 1914 तक रहा था। माना जा सकता है कि इसी कालखंड के आस पास महारानी आनंद कुंवरी ने काव्य सृजन किया होगा। उन्होंने “आनंद सागर” नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसमें विभिन्न राग रागिनियों के आधार पर रचित 105 पद संकलित हैं। ब्रज भाषा में रचित इस ग्रंथ में श्रीराम और श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति भाव का अंकन एवं उनकी लीलाओं का गायन हुआ है। कहा जा सकता है कि इसका मूल स्वर सगुण भक्ति है लेकिन कवयित्री ने सगुण भक्ति के दोनों ही आराध्यों की अराधाना की है। किसी मतवाद के फेर में वह नहीं पड़ी हैं। उन्हें राम और कृष्ण दोनों समान रूप से प्रिय हैं। भक्ति के अतिरिक्त इन पदों में श्रृंगार और वात्सल्य के भावों का भी सुंदर समावेश मिलता है।

कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर आयोजित उत्सव का वर्णन करते हुए बरवा रागिनी में रचित एक सुंदर पद दृष्टव्य है‌। नवजात कृष्ण को देखने के लिए ब्रज की तमाम नारियाँ सुंदर वस्त्र- आभूषणों से सज्जित होकर आती हैं। एक से बढ़कर एक बहुमूल्य गहनों- कपड़ों से सजी नारियाँ जब कृष्ण को देखती हैं तो अपने तमाम ऐश्वर्य को भूलकर कृष्ण की मनमोहक छवि पर स्वयं को न्योछावर कर देती हैं। इस पद में वात्सल्य और भक्ति आपस में घुलमिल गये हैं और ब्रजनारियों की साज सज्जा का वर्णन भी अत्यंत मोहक बन पड़ा है। पद देखिए-

“पुत्र जन्म उत्सव सुनि भारी भवन आवत ब्रिज नारी|

लहंगे महंगे मांलन के सूचि कुचि कंचुकि सिरन सुभ सारी||

बेदी भाल खौर केसर की नथ नकबेसर मांगी संवारी||१||

अलकै लखि अलि अवलि लजावत काजर काजर रेख दिए कारी|

हार हमेल हिमन बिच राजत अमित भांति भुसित सुकामारी ||२||

चाल गयंद चंद से आनन् लखि लाजति रति अमित विचारी|

मंगल मूल बस्ति सजि सुन्दरि कर कमलन लिए कंचन थारी||३||

गावति गीत पुनीत प्रीति युत आई जिहां जिहां भवन खरारी |

आनंद प्रभु को बदन देखि सब दैहि नौछावर वित्त विसारी||४||”

कृष्ण जन्मोत्सव का एक और‌ दृश्य रानी आनंद कुंवरी की कलम का स्पर्श पाकर साकार हो उठा है। कृष्ण के जन्म का समाचार सुनकर याचक नंद बाबा के‌ द्वार पर दौड़े आए हैं। पुत्र जन्म की खुशी में नंद बाबा मणि माणिक्य लुटा रहे हैं, बधाइयाँ बज रही हैं और यह दृश्य इतना सुंदर लग रहा है कि ब्रजभूमि के नर -नारी ही नहीं स्वर्ग के देवता भी प्रसन्नता से झूमते दिखाई दे रहे हैं। इस तरह के पदों को पढ़ते हुए सूरदास के बाललीला के पद अनायास याद आते हैं।

“पुत्र जन्म भयो सुनि जाचक जन नंद महर धरि आये|

अमित भांति करि वंश प्रशंसा बाजे विविध बजाये ||

परम पुनीत अवनि अस्थित व्है विपुल बधाई गाये|१||

रीझत सब नर नारि नौछावर दें निज चित्त भुलाये|

सिव ब्रह्मादिक सव सुर सुरतरु मेघ झरलाये||२||

नभ अरु नगर भई जय जय धुनि मुनि सुख होत सवाये|

द्वार द्वार बाजत निसानं बर गावत नारि बधाये||३||

बहु पर भूषण द्रव्य दान तैं जानकि लेत अधाये|

रहौ सदा आनंद नद सुन कहि निज सदन सिधाये||४||”

आनंद कुंवरी जी के भक्ति रस में आप्लावित‌ पदों को पढ़ते हुए भक्तिकाव्य के महान कवियों की कविताओं की पंक्तियां सहज ही मन मस्तिष्क में कौंध जाती हैं। उदाहरणस्वरूप एक पद देखिए-

“तुम बिन को भव विपति नसावै।

कौन देव दरबार जाय तहां आरत अरज लगावै ||१||

को दलि दोस दीन के पल मै परम पुनीत कहावै|

मोसे पतितन को आनंद प्रभु हरि बिन को अपनावै||२||”

इस पद को पढ़ते हुए अनायास तुलसीदास का पद “जाऊं कहां जति चरण तिहारे..” या सूरदास का पद “प्रभु हौ सब पतितन को टीकौ..” की स्मृति मन में कौंध उठती है। वही दास्य भाव, वही विनयशीलता, वही समर्पण जिसमें पूर्णतः सराबोर कवयित्री अपने आराध्य के चरणों में स्वयं को पूर्णतः न्योछावर कर देती हैं।

सखियों, आनंद कुंवरी के पदों का पाठ करते हुए यह निसंकोच कहा जा सकता है कि वह ब्रजभाषा की एक सफल एवं उत्कृष्ट कवयित्री थीं। भाव पक्ष के साथ ही उनकी कविताओं का कलापक्ष भी काफी निखरा हुआ था। 

 

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