लावारिसों को अपनों सा सम्‍मान दे रहीं मुजफ्फरनगर की शालू

मुजफ्फरनगर । कोविड महामारी महामारी अपने चरम पर थी। मुजफ्फरनगर में एक कोविड मरीज का शव लावारिस पड़ा था। लावारिस… शायद इसलिए कि उस बुजुर्ग शख्‍स के परिवार के पास अंतिम संस्‍कार के लायक पैसा नहीं था या फिर शायद इतना साहस नहीं बचा था कि कोविड संक्रमण का खतरा मोल ले सकें। दिन भर शालू सैनी (Shalu Saini) ने उस शव को खुले में पड़े देखा, फिर उनसे रहा नहीं गया। शालू घर से बाहर निकलीं और खुद उसका अंतिम संस्‍कार किया। उसके बाद से पूरी महामारी में शालू सैनी (37) अपने दम पर 200 से ज्‍यादा कोविड से जान गवां चुके मरीजों का अंतिम संस्‍कार किया। आज तक वह करीब 500 से ज्‍यादा शवों का अंतिम संस्‍कार करा चुकी हैं। ये शव या तो लावारिस होते हैं या फिर इनके परिजनों के पास इतना पैसा नहीं होता कि अंतिम संस्‍कार का खर्च उठा सकें।
‘कम से कम अंतिम संस्‍कार तो इज्‍जत से हो’
दो बच्‍चों की सिंगल मदर लेकिन शालू कहती हैं, ‘इंसान पैदा होने से लेकर अपनी आख‍िरी सांस तक संघर्ष करता है। कम से उसका इतना तो हक बनता है कि उसका क्रियाकर्म सम्‍मान के साथ हो। यह हमारा फर्ज है।’ लेकिन एक अकेली मां के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं था। शालू बताती हैं कि कोविड साल 2020 में जब अपने चरम पर था उस समय एक अंतिम संस्‍कार करने पर पांच हजार रुपयों तक का खर्च आता था। परिवार असहाय हो चुके थे, उनका रोजगार बंद हो गया था, लकड़ी की भी कमी थी।’
अब लोग भी मदद करने लगे
धीरे-धीरे कोविड की आपदा कम हुई लेकिन जब भी कहीं किसी को कोई लावारिस शव दिखाई देता वह शालू को इसकी जानकारी देता। इस समय भी अंतिम संस्‍कार पर चार हजार से कम नहीं खर्च होता, और यह भी काफी बड़ी रकम है। लेकिन शालू मुस्‍करा कर कहती हैं, ‘धीरे-धीरे लोगों को मेरे बारे में पता चला तो अनजान लोग भी पैसों की मदद करने लगे।’
लावारिस लाशों के लिए आते हैं कॉल
अब शालू गरीबों और लावारिस शवों के लिए ‘भगवान’ सरीखी हैं। वह बताती हैं, ‘मेरे पास मुर्दाघर, पुलिस, एनजीओ, झुग्गियों, श्‍मशान घरों से कॉल आने लगे हैं। लेकिन मेरे लिए यह आध्‍यात्मिक मसला है, मैं यह सब करके खुद को ईश्‍वर के और निकट पाती हूं।’
बच्‍चों की प्रेरणा है
शालू की एक छोटी सी गारमेंट्स की शॉप है। अपने परिवार के बारे में बताती हैं, ‘मैं साल 2013 से अकेली रह रही हूं। मैंने अपने जीवन में बहुत झेला है।’ उनके दो बच्‍चे हैं, साक्षी (15) और सुमित (17) और दोनों के दिल में उनकी मां के इस अनोखे काम की बहुत इज्‍जत है।
प्रशासन ने भी की तारीफ
मुजफ्फरनगर के एडीएम नरेंद्र बहादुर सिंह ने भी शालू की तारीफ की। वह कहते हैं, ‘शालू हमारी कई तरह से मदद करती हैं। अकसर वह सामाजिक मुद्दों पर जनता के बीच जागरुकता फैलाती हैं।’ मुजफ्फरनगर के एक श्‍मशानघाट के इंचार्ज कल्‍लू यादव बताते हैं, ‘शालू कोरोना के समय से ही यहां आ रही हैं। जैसे ही उन्‍हें किसी लावारिस लाश के बारे में पता चलता है वह यहां आने वाली पहली शख्‍स होती हैं। इसके बाद वह अंतिम संस्‍कार की पूरी तैयारी करती हैं और खुद अंतिम संस्‍कार भी करती हैं।’ शालू आजकल शवों की अस्थियों का विसर्जन भी करती हैं।
इनके लिए शालू बनीं देवदूत
हरियाणा, रोहतक के निवासी निखिल जांगरा के लिए वह किसी देवदूत से कम नहीं हैं। निखिल के पिता का शालू ने उस समय अंतिम संस्‍कार किया जब वह इस साल कांवड़ यात्रा में वापस लौट रहे थे। उस घटना के बारे में निखिल बताते हैं, ‘मेरे पिता (55) घर लौटते समय मुजफ्फरनगर में एक सड़क हादसे का शिकार हो गए। उनकी उस समय शिनाख्‍त नहीं हो सकी थी। ऐसे में शालू ने ही उनका अंतिम संस्‍कार किया।’
आसान नहीं था संघर्ष
पर शालू के लिए यह सब बहुत आसान नहीं है। वह बताती हैं, एक अकेली औरत के लिए यह सब बहुत आसान नहीं था। ऐसे भी दिन थे जब मेरे रिश्‍तेदार मुझे अंतिम संस्‍कार करने से यह कहकर रोकते थे कि मैं महिला हूं और मुझे यह सब नहीं करना चाहिए। महिलाओं को तो श्‍मशानघाट के पास भी नहीं जाने दिया जाता।’
(साभार – नवभारत टाइम्स)

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