साहित्य के आकाश का खोया हुआ सितारा कवयित्री विष्णुप्रसाद कुंवरि

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, राजवंश की साहित्य- सेवी रानियों की शृंखला के‌ अंतर्गत आज मैं आपका परिचय बाघेली विष्णुप्रसाद कुंवरि से करवाऊंगी। विष्णुप्रसाद कुंवरि बाघेल वंश की कन्या थीं इसीलिए इनके नाम के साथ बाघेली शब्द जुड़ा था। आप रीवां के महाराज रघुराजसिंह की पुत्री थीं। महाराजा रघुराज सिंह स्वयं हिंदी के प्रसिद्ध कवि के रूप में जाने जाते थे और उनके दरबार में बहुत से कवियों को आश्रय मिला था। वह अपनी वैष्णव भक्ति के लिए भी ख्यात थे। ऐसे कविह्रदय राजा की पुत्री के मन में काव्य- प्रेम का अंकुरण होना स्वाभाविक ही था। कवयित्री विष्णु प्रसाद कुंवरि का जन्म संवत् 1903 में हुआ था। संवत 1921 में इनका विवाह जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह के छोटे भाई किशोर सिंह के साथ हुआ। पिता से इन्हें भगवद्भभक्ति और काव्यप्रतिभा दोनों ही विरासत में मिली थी। वैष्णव मत के प्रति समर्पित कवयित्री के इष्ट देव कृष्ण थे और वह अपना हस्ताक्षर “दीनानाथ” के नाम से करती थीं। इन्होंने जोधपुर में दीनानाथ का एक मंदिर भी बनवाया था। संवत 1955 में अपने पति की आकस्मिक मृत्यु से वह शोक- सागर में डूब गईं और अंततः भक्ति के द्वारा उन्होंने अपने जीवन की शून्यता को भरने का प्रयास किया। कृष्ण- भक्ति इनका सहारा बनी और इसके द्वारा वह सांसारिक- मानसिक कष्टों  से मुक्ति का मार्ग खोजने निकल पड़ीं। ह्रदय में संचित कविता का बीज अश्रुजल से पुष्पित हुआ और कृष्ण के प्रेम में डूबकर विष्णुकुंवरि कविताओं की रचना करने लगीं। इनके कुल तीन ग्रंथ बताएं जाते हैं-  अवध- विलास, कृष्ण- विलास और राधा-रास- विलास। “अवध- विलास” में राजा रामचंद्र के चरित्र का वर्णन है और यह दोहा और चौपाई छंद में लिखा गया है। “राधा- रास -विलास” की रचना में गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। अतः इसे चंपू काव्य कहा जा सकता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें राधा का वर्णन किया गया है। “कृष्ण विलास” में कृष्ण की लीलाओं का अत्यंत सरस वर्णन हुआ हे। कानपुर से प्रकाशित होने वाले “रसिक मित्र” नामक पत्र में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती थीं। “स्त्री कवि कौमुदी” में इनका जीवन- परिचय लिखने और इनकी कविताओं को संकलित वाले लेखक ज्योति प्रसाद मिश्र “निर्मल” इनकी काव्य- प्रतिभा पर इस प्रकार प्रकाश डालते हैं- “ग्रंथों को‌ देखने से मालूम होता है कि इनकी कविता सुंदर, भगवद्भक्ति से परिपूर्ण होती थी।” 

इनके ग्रंथ “अवध- विलास” का एक पद‌ देखिए जिसमें कवयित्री ने‌ वनवासी राम के जीवन का वर्णन किया है-

“आये प्रागराज में प्रभुवर, मुनिन कीन्ह प्रनामा।

चित्रकूट में फेर विराजे, निरख अनेक सुनामा।।

बन में बसे प्रभू लछिमन सँग, कैसा था वह देसा।

तहाँ सुपनखा आई छलकूँ, सुन्दर निरख रमेसा।।

आई कही राम की ओरा, भूल गई-मन मोरा।

 रहूँ तुम्हारे घर में प्यारे, सुनो अवध -चित्त-चोरा।।

हँसे प्रभू सीता को लख के, बोले बैन गँभीरा।

हमरे नारी बड़ी सुन्दरी, जाओ लछिमन ओरा।।

जाके नारी नहीं है वाके, जाय घरे तुम रहहू।।

कुँवर बड़ो है रसिक लाडिली, मुदित मना हो रहहू।।

चली सुपनखा लछिमन ओरा, कहे वचन मुसुकाई।

राखो हमसी नारि सुन्दरी, हिल हिल रहो सदाई।।”

उपरोक्त पद को पढ़ते हुए यह साफ महसूस किया जा सकता है कि इसमें बहुत ज्यादा लालित्य या काव्यकौशल नहीं है लेकिन कथा को सहज ढंग से काव्यमयता के साथ प्रस्तुत करने की कला कवयित्री को अवश्य आती है।

 “राधा- रास- विलास” से एक पद‌ उद्धृत है जिसमें पावस ऋतु में वृंदावन की प्राकृतिक शोभा को वर्णित करते हुए कवयित्री ने अपने प्रेमानुराग को‌ भी अभिव्यक्ति दी है। उन्हें काले बादलों में अपने आराध्य देव और प्रियतम कृष्ण का मुख नजर आता है-

“बृन्दावन पावस छायो।

चहुँ दिसि धार अम्बर छाये, नील मणि प्रिय मुख छायो।

कोयल कूक सुमन कोमल के कालिंदी कल कूल सुहायो।”

यमुना तट पर कृष्ण और गोपियों के बीच होनेवाली रासलीला का अत्यंत सरस चित्र उन्होंने उद्धृत पद में खींचा है जिसे  रचते हुए कवयित्री तो आनन्द मग्न होती ही हैं, पाठक भी इस ह्रदयग्राही सरस पद को पढ़कर आनंद -सागर में गोते लगाने लगता है- 

“जमना तट रंग की कीच बही।

प्यारेजी के प्रेम लुभानी आनंद रंग सुरंग चही।।

फूलन हार गुंथे सब सजनी, युगल मदन आनंद लही।

तन मन सुमरि भरमती विव्हल, विष्णु कुंवरि है लेत सही।।”

कृष्ण-राधा और गोपियों की लीला के अत्यंत जीवंत चित्र कवयित्री ने अपने पदों में खींचे हैं। होली प्रसंग के पद तो अत्यंत सरस बन पड़े हैं। कृष्ण की बाँसुरी पर केंद्रित पदों की रचना भी कवयित्री ने की है लेकिन रसखान के बाँसुरी प्रसंग की तरह यहाँ बाँसुरी के प्रति गोपी या राधा के असूया भाव का वर्णन नहीं हुआ है बल्कि प्रशंसा और प्रेम का मधुर स्वर गुंजरित होता है। जब कृष्ण से अथाह प्रेम है तो भला उनकी बाँसुरी से प्रेम क्यों नहीं होगा। देखिए-

“बाजैरी बँसुरिया मन-भावन की।

तुम हो रसिक रसीली वंशी अति सुन्दर या मन की।

या मुख लै वाको रस पीवै अंग- अंग सुखमा तन की।।

या मुख की मैं दासि चरन रज दोउ सुख उपजावन की।

शोभा निरखत सखि सबै मिलि विष्णुकुँवरि सुख पावन की।।”

विष्णुकुँवरि के कुछ पदों पर पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव भी लक्षित किया जा सकता है। उद्धृत पंक्तियों को पढ़ते हुए मीराबाई के पद (छांड़ दई कुल की कानि…)  की याद स्वाभाविक रूप से ताजा हो जाती है-

“छोड़ि कुन कानि और आनि गुरु लोगन की, जीवन सु एक निज जाति हित मानी है।

दरस उपासी प्रेम- रस की पियासी वाके, पद की सुदासी दया दीठि की बिकानी है।।”

ऐसे ही एक और पद को पढ़ते हुए पद्माकर का पद (सुंदर सुरंग रंग शोभित अनंग अंग…) याद आता है-

“सुंदर सुरंग अंग अंग में अनंग धारो, जाके पद पंकज में पंकज दुखारो है।

पीत पटवारो मुख मुरली सँवारो प्यारो, कु़ंडल झलक मुख मोर- पंख धारो है।।”

कवयित्री के पदों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उनका मन रामकथा से अधिक कृष्णकथा में रमा है। रामकथा के वर्णन में जहाँ कथा ही प्रधान है वहीं कृष्ण के प्रति कवयित्री का प्रेम, समर्पण, अनुराग, भक्ति आदि  भाव अत्यंत मुखरता से व्यंजित हुए हैं। राधा- कृष्ण की प्रेम लीलाओं के सरस वर्णन के माध्यम से  वह अपने जीवन के खोए हुए प्रेमिल क्षणों को पुनर्जीवित करती जान पड़ती हैं। कृष्ण और राधा की कथा में कल्पना का विलास भी है और प्रेमसिक्त भक्ति का सुवास भी। भाषा में सहज लालित्य आ जाता है और काव्यकला भी निखर उठती है। भाषा की सहजता इनकी कविता का एक विशेष गुण है जिससे कविता सीधे पाठक के मन में उतर जाती है और अपनी सरसता से स्थायी प्रभाव छोड़ने में भी सफल हो जाती है। कवयित्री विष्णुप्रसाद कुंवरि के पद साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं लेकिन हैरानी इस बात की है कि इनके रचनात्मक योगदान के विषय म़े  भी हिंदी साहित्य की इतिहास की पुस्तकों में शायद ही कोई जिक्र मिले। जिस दौर में वह लिख रही थीं वह भक्ति का दौर भले ही नहीं था लेकिन उनकी भक्तिपरक रचनाओं में छिपी उनकी पीड़ा और व्याकुलता में उस भारतीय स्त्री की व्यथा को सहजता से महसूस किया जा सकता है जिसके पास भक्ति के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता।

 

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