स्त्री अस्मिता और समकालीन महिला उपन्यास को पढ़ते हुए

– डॉ. वसुंधरा मिश्र

डॉ. नमिता जायसवाल की पुस्तक’ स्त्री अस्मिता और समकालीन महिला उपन्यास’ वर्तमान समय की एक महत्वपूर्ण मौलिक कृति है। भारत में स्त्री को अभी भी दोयम दर्जे का स्थान पर माना गया है। परिवर्तन के इस दौर में जो कामना स्त्री बिरादरी के लिए अपेक्षित था, वह अब भी दूर है। चित्रा मुद्गल जी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि नमिता जायसवाल एक विचारशील शिक्षाविद् ही नहीं, बल्कि चैतन्य जूझारू स्त्री हैं जो हारना, हताश होना नहीं जानती, वह जानती हैं तो केवल जिजीविषा की उत्कटता को।
इस पुस्तक में पितृसत्तात्मक समाज के उस चेहरे को बेनकाब किया है जो अब तक अदेखा और अचीन्हा है। शोषण के बहुआयामी पक्षों को बहुत ही गहनता से विश्लेषित किया गया है।
स्त्री अस्मिता से जुड़े विभिन्न पहलुओं को इतिहास के आईने में पढ़ते हुए लेखिका ने बेबाक होकर अपने विचारों को व्यक्त किया है। वह ‘अपनी बात’ में लिखती हैं कि नारी जागरण और प्रगति का जो आधार पिछली सदी में तैयार हुआ उस पर ही इस सदी का नया सामाजिक ढांँचा निर्मित किया जाना था, जो नहीं हो पाया। इन सब विषम परिस्थितियों के बीच में, सामाजिक रूप से अपनी पहचान बनाती चेतना संपन्न नारी की भागीदारी साहित्यिक क्षेत्र में बढ़ी तथा स्वीकृत हुई। समकालीन महिला लेखन नारी की वैयक्तिक सत्ता, उसकी अस्मिता तथा उसे मानवी रूप में स्वीकारे जाने की सशक्त दावेदारी के साथ स्त्री अस्मिता के प्रश्न को भी दृढ़ता के साथ उपस्थित करता है।
लेखिका ने पुस्तक को सात अध्यायों में अपने विषय को समेटा है जो स्त्री मुक्ति आंदोलन, स्त्री अस्मिता के बदलते संदर्भों में आई चुनौतियांँ और रणनीतियांँ, हिंदी उपन्यास परंपरा तथा प्रारंभिक एवं समकालीन महिला उपन्यास लेखन की विशिष्टता और प्रमुख समकालीन महिला उपन्यासकारों कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मंजुल भगत, सूर्य बाला, राजी सेठ, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, गीतांजलि श्री जैसी प्रबुद्ध प्रतिभाओं के उपन्यासों में आईं स्त्री पात्रों के माध्यम से विभिन्न समस्याओं को पाठकों के समक्ष रखा है। वर्तमान समय में परिवार और समाज के बीच अवस्थित स्त्री की अस्मिता के स्वरूप को सामने रखा है।
लेखिका बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध को स्त्री जागरण का युग मानती है। नवजागरण काल के बाद से जब स्त्रियाँ स्वयं नेतृत्व में भाग लेने लगीं। उनके अधिकार सोच और स्थिति में किंचित परिवर्तन आने लगे। समान अधिकार, पुरुष उत्पीड़न से सुरक्षा, पुरुष शासन से मुक्ति आदि ऐसी नई दृष्टि दिखाई पड़ी जिसकी नींव पर ही आज का स्त्री मुक्ति संघर्ष खड़ा है। लेखिका ने महिला आंदोलन की जड़ों तक इस विषय को खंगाला है।
स्त्री मुक्ति का अर्थ है कि उसे एक मनुष्य की तरह आचरण मिले और उसे अपने निर्णय लेने का अधिकार हो। नारी मुक्ति आंदोलन महिला पुरुष के बीच की गैरबराबरी और उसके कारण महिलाओं पर हो रहे अन्याय व शोषण के विरुद्ध है, पुरुषों के विरुद्ध नहीं। पृष्ठ 17. महिला आंदोलन की जड़ें महिलाओं के रोजमर्रा जीवन से पनपी हैं, जहाँ स्त्री के अधिकार, जागरूकता, स्वतंत्रता, समानता, प्रगति, संघर्ष और विद्रोह जैसे अनगिनत सवाल हैं।
इसमें सीमोन द बोउवार के ‘सेकेंड सेक्स’ की भी चर्चा हुई है ‘जहाँ स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है’ । विवाह पूर्व और विवाहेत्तर यौन संबंध आदि के विषय में भी विस्तार से जानकारी दी है।
1970 के बाद स्त्री आंदोलन के रूप में आए परिवर्तन जहांँ स्त्री सामाजिक राजनीतिक समस्याओं पर पुरुषों के साथ नारी की हिस्सेदारी में विस्तार दिखाई देता है। श्रीमती मृणाल गोरे, प्रमिला दण्डवते, अहिल्या रांगणेकर आदि राजनीतिक आंदोलनों में आगे रहीं। मँहगाई, जमाखोरी, भ्रष्ट व्यापारियों से रक्षा करना आदि मुद्दों पर लड़ना। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1975 का वर्ष सयुंक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया। पुस्तक में विभिन्न नए संगठनों की भूमिका पर भी विचार किया गया है जो 1970 – 2000 तक के हैं। समाज के महिला आंदोलन, बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसे तमाम मुद्दों पर चर्चा की गई है।
बाजारवाद और उपभोक्ता वाद के रूप में विभिन्न प्रलोभनों के माध्यम से पुनः नारी को कमोडिटी अर्थात् वस्तु बना देने के पुरुष षड्यंत्र को समझाने की कोशिश की है और नारी को सुदृढ़ और अपनी सुरक्षा पर स्वयं रणनीति तय करनी होगी।
अस्मिता का तात्पर्य ‘आइडेंटिटी’ से है जो व्यक्तित्व और अपनी पहचान से जुड़ा हुआ है। पहचान का तत्व मानव का प्रकृति प्रदत्त गुण है। जब व्यक्ति या समूह विशेष के मन बुद्धि को वर्षों उत्पीड़न, प्रतारणा और अन्यायपूर्ण वंचना मिलती है तो उस स्थिति में अपने को पहचानने की छटपटाहट पैदा करती है। डॉ शंभुनाथ लिखते हैं कि हर आदमी की अस्मिता होती है, जो वह परंपरा से अर्जित करता है। वैयक्तिक अस्मिता के साथ ही सामाजिक अस्मिता भी होती है। ये प्रतिरोध की प्रेरणा से परिचालित होती है। अस्मिता का स्वरूप भी सकारात्मक होना चाहिए तभी विकास और सर्जना संभव है। वर्तमान पूंँजीवादी दौर में नारी अस्मिता का सामंतीय रूप दमनशील है या विकासोन्मुख? इस पर भी विस्तार से चर्चा की गई है। भारतीय समाज की संरचना और पाश्चात्य समाज दोनों को ध्यान में रखते हुए विवेचना की गई है।
स्वतंत्रता के बाद सन् 1950 में भारतीय संविधान लागू होने पर स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार मिले। लेकिन विडंबना है कि वैधानिक संरक्षण और अधिकार मिलने पर स्त्री पहले से अधिक असुरक्षित हो गई हैं जिससे अलग समस्याओं का जन्म हुआ। गाँधी जी ने माना है कि जिस देश, जिस राष्ट्र में, नारी का सम्मान नहीं, वह कभी महान नहीं हो सकता। भारतीय परंपरा में माँ के स्थान और उसके बदलते स्वरूप की भी चर्चा की गई है। प्रेम नारी संरचना का मुख्य तत्व है जो अपनी ममता, स्नेह आदि गुणों के कारण समाज की श्रृंखला को जोड़ने वाला है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वह आनंदमय क्षणों के उपभोग के साधन के रूप में माना जाने लगा है जो निश्चित ही आयातित मानसिकता से आया है।
आधुनिक युग में नई नई समस्याओं का उदय हुआ है जिसमें भ्रूण हत्या, अशिक्षा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, कुपोषण, अधिक मृत्युदर, हिंसा, आत्महत्या, विस्थापन, सांप्रदायिकता, पर्सनल ला जैसी अनेक भयानक स्थितियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मानवता का अपमान और मानवाधिकार की सीमाओं का अन्याय पूर्ण उल्लंघन है।
पुस्तक में स्त्री उपन्यास लेखन का हिंदी इतिहास भी दिया गया है। बांग्ला के उपन्यास हिंदी में अनुदित हो रहे थे। महिला उपन्यास को लेखिका ने चार भागों में विभाजित किया है –
प्रारंभिक काल – सन् 1890 – 1927,
विकास काल – 1928 – 1947,
उत्कर्ष काल – 1947-1970 और
वर्तमान काल 1970 से अब तक।
कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी सन् 1925 में पंजाब के उस भाग में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है शिमला, लाहौर, दिल्ली से शिक्षा प्राप्त जिंदगीनामा उपन्यास के लिए 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित की गईं। ‘डार से बिछुड़ी’ 1958 का उपन्यास है जिसमें ‘पाशो’ स्त्री पात्र की कहानी है जो पुरुष आश्रय में अपनी सुरक्षा तलाशती, भटकती, लुटती हुई क्षतविक्षत होती रहती है। छह प्रमुख उपन्यासों की स्त्री पात्रों पर लेखिका ने चर्चा की है।
मृदुला गर्ग 25 अक्टूबर 1938 में कलकत्ता में एक अमीर परिवार में जन्म। 6 उपन्यासों की चर्चा इस पुस्तक में कई गई है। ‘चित्तकोबरा’ की स्त्री पात्र मनु में काम की चाहत है जिसकी तृप्ति स्काटलैंड के पादरी से मिलती है, उसके संवेदनहीन पति से नहीं मिलती। ‘कठगुलाब’ उपन्यास पुरुष वर्चस्व वाले समाज में नारी के दोहन शोषण की विश्वव्यापी स्थिति को दर्शाता है। मंजुल भगत के ‘लेडिज क्लब ‘में बंबई की संभ्रांत महिलाओं की खोखली जिंदगी और खोखले आदर्शों की कथा है। विस्थापन, निम्नवर्गीय स्वावलंबी स्त्री की कथा है।
राजी सेठ का जन्म सन् 1935 में, प्रभा खेतान का जन्म 1942 में, मैत्रेयी पुष्पा का जन्म सन्1944 में, चित्रा मुद्गल का जन्म 1944, गीतांजलि श्री का 1957 में जन्म हुआ।लेखिका ने सभी महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में स्त्री- संवेदना को अपनी पुस्तक का विषय बनाया जो पुस्तक के केंद्र बिंदु है।
समकालीन समालोचना हर युग की माँग है। आजकल साहित्य समीक्षा के नाम पर जो कुछ छ्प रहा है वह अपनी अपनी दृष्टि है। आज जीवन के हर क्षेत्र में मिलावट का बोलबाला है। फिर भी पाठक ईमानदार होता है। हांँ, साहित्य समालोचना के क्षेत्र में विशुद्धता मिलना कठिन है। स्त्री विमर्श, दलित साहित्य, आदि विषयों पर चर्चा आवश्यक है। लेखिका ने बहुत बड़े फलक का विषय लिया है जिस पर लगभग अलग – अलग तीस से अधिक पुस्तकें लिखी जा सकती हैं।
कृष्णा सोबती जी की रचना संसार की नारियों का विरोध पुरुष से नहीं है बल्कि अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था पुरुष की सामंती पूर्वाग्रही स्वार्थसिक्त एवं अन्यायपूर्ण नारी शोषण की नीतियों से है। नारी के परंपरागत रूप से लेकर आधुनिक युग में उनके बदलते स्वरूप को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा है। सोबती जी की स्त्री पात्र ‘मित्रो’ अपने को ढूंँढ लेती है।
कमोवेश, सभी महिला उपन्यासकारों ने नारीवाद के चिंतन को समझने की भूमि तैयार की है, जहाँ विरोध और संघर्ष के पहले आत्मचिंतन और विश्लेषण को अवसर दिया गया है। स्त्री लेखन की बेबाकी ने कहीं भी सामाजिक श्रृंखला को तोड़ा नहीं है और न ही उपन्यास के स्त्री पात्रों ने भी, जो भी विद्रोह के स्वर हैं वह नारी चेतना के दीप प्रज्वलित करने की चाह है और पुरुष मानसिकता के शोषण प्रवृत्ति के उस चट्टानी स्वार्थ को गलाने की आकांक्षा है जो सदियों से नारी की वैयक्तिक सत्ता को नकारता आ रहा है।
इस पुस्तक में जितनी भी महिला उपन्यासकार को लिया गया है उनकी भाषा, शिल्प और परिवेश उनके लेखन में कहीं न कहीं परिलक्षित हुआ है। एक अच्छी बात है कि सभी स्त्री पात्र ठोकर खाकर भी पुनः एक नई जीवनी शक्ति और जिजीविषा के साथ अपनी पहचान बनाने एवं अपना ‘स्व’ अर्जित करने के मार्ग पर अग्रसर होती हैं। समाज को स्त्री-पुरुष दोनों पक्षों की समान आवश्यकता है जो सामाजिक संगठन की एकता को मजबूत करते हैं।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति नारी के लिए एक नई पुरुष प्रवृत्ति से सामना है। वैश्वीकरण, दूरसंचार माध्यम, प्रौद्योगिकी तकनीक के उन्नत सामाजिक परिवेश के लुभावने विषय की चुनौतियाँ भी सामने हैं, इस पर भी महिला उपन्यास हैं, जिनमें बहुत – सी समस्याओं को लिया गया है। वर्तमान समय में दैहिक बाध्यता, पर- पुरुष गामी, स्त्री का बहुपुरुषगामी होना, आत्महत्या, किराए की कोख, उपभोक्ता वाद के प्रलोभन में फंँसती स्त्री जैसी समस्याएंँ अपना फन उठा रही हैं। समकालीन महिला लेखन के विषय में लेखिका नमिता जायसवाल ने यह स्थापित किया है कि भारतीय स्त्री अपनी अस्मिता गढ़ने में तभी सफल हो सकेगी, जब उसकी संघर्ष की नीति उच्छृंखल न होकर संतुलित तथा संयमित हो। अधिकांश महिला लेखिकाएंँ शहरी उच्च मध्य वर्ग से सम्बद्ध होने के कारण लेखन भी शहरी क्षेत्र और वर्ग की महिलाओं की स्थिति तक ही सीमित रहा है, जो गाँव से आने वाली स्त्री गंध लिए हुए हैं, जिसके केंद्र में सामग्रिक सामाजिक चेतना का लक्ष्य निहित है।
पश्चिम बंगाल के हिंदी जगत् में परिचित नाम डॉ. नमिता जायसवाल स्वयं कई संस्थाओं में सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं।’ ध्रुवस्वामिनी ‘नाटक में शीर्षक अभिनयात्मक भूमिका को अभिनीत की हैं, साथ ही चित्रा मुद्गल के उपन्यास’आवां’ का नाट्य सह रूपांतरण भी किया है।
इस पुस्तक में पाठक स्त्री- विमर्श के विविध पक्षों को एक जगह पढ़ सकता है।
यह पुस्तक कोलकाता के आनंद प्रकाशन से 2017 में प्रकाशित हुई है। 296 पृष्ठों की यह पुस्तक हिंदी शोधार्थियों और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए एक संग्रहणीय पुस्तक है। शुभकामनाएं। – डॉ वसुंधरा मिश्र, कोलकाता ।

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