अनोखा है बिस्कुट को भारतीयों तक पहुँचाने वाले पारले जी का सफर

बच्चा-बच्चा तक जानता है पारले-जी का नाम। जी हाँ, वही पारले-जी, जिसका बिस्कुट बच्चों से लेकर जवान और बुजुर्ग तक चाव से खाते हैं। सुबह चाय के साथ लेना हो या भूख लगने पर झटपट पेट भरने का साधन, मूड कुछ नमकीन खाने का हो या मीठा, पारले-जी को हर पसंद का खयाल है। तभी यह कंपनी बिस्कुट से सिर्फ पैसे नहीं बल्कि लोगों का अथाह प्यार भी कमाती है।
अब बात करते हैं कि पारले जी की शुरुआत कैसे हुई? इसकी दिलचस्प कहानी है। पारले-जी के मालिक मोहन दयाल चौहान बिस्कुट नहीं बल्कि कॉन्फेक्शनरी (मिठाई-चॉकलेट आदि) बनाना चाहते थे। इस काम में मोहन दयाल चौहान के बेटे भी हाथ बंटाना चाहते थे। इसी तैयारी में साल 1928 में ‘हाउस ऑफ पारले’ की स्थापना की गई। बाद में मोहन दयाल चौहान की पसन्द बदली और कॉन्फेक्शनरी का व्यवसाय पहली पसंद नहीं रह गई। चौहान ने 18 साल की उम्र में कपड़ों के व्यवसायी के तौर पर अपना काम शुरू किया था और आगे उन्होंने कई व्यवसायों को नया स्वरूप प्रदान किया।

बेटों का मिला साथ
मोहन दयाल चौहान की मेहनत रंग लाती गई और व्यवसाय आगे बढ़ता गया. इसमें उनके बेटों का भी भरपूर सहयोग मिला और वे भी अपने पिता जी का हाथ बंटाने लगे। कंपनी में नए-नए आयाम जुड़ते गए और बेटों की सलाह पर गौर किया जाने लगा। दयाल चौहान के बेटों ने ही अपने पिता जी को कुछ नया व्यवसाय करने की राय दी। लिहाजा, कई अलग-अलग विकल्पों पर मशविरा शुरू हुआ। कपड़ों के कारोबार में लगे दयाल चौहान ने कॉन्फेक्शनरी में अपनी पूरी मेहनत झोंक दी और इसके लिए वे जर्मनी के दौरे पर निकल पड़े। वहां उन्हें कॉन्फेक्शनरी की तकनीकी और व्यवसाय के नए-नए गुर सिखने थे.

हाउस ऑफ पारले की स्थापना
इसी क्रम में 1928 में मोहन दयाल चौहान ने ‘हाउस ऑफ पारले’ की स्थापना की. इस नाम के पीछे भी दिलचस्प कहानी है। कंपनी का नाम पारले इसलिए पड़ा क्योंकि यह मुंबई से हटकर विले पारले में लगाई गई थी। विले पारले से कंपनी को पारले का नाम मिला। कॉन्फेक्शनरी बनाने की पहली मशीन 1929 में लगाई गयी। काम शुरू हुआ और पारले कंपनी में मिठाई, पिपरमिंट, टॉफी आदि बनाए जाने लगे। ग्लूकोज, चीनी और दूध जैसे कच्चे माल से इन चीजों का उत्पादन शुरू हुआ। शुरुआती दौर में इस काम में 12 परिवारों के सदस्य जुड़े। इन्हीं परिवारों के लोग इंजीनिरिंग से लेकर निर्माण और यहां तक कि उत्पाद की पैकेजिंग का काम भी संभालते थे। ‘सीएनबीसी टीवी18’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कंपनी से जो पहला उत्पाद बाजार में पहुंचा वह था ‘ऑरेंज बाइट’. देखते-देखते इस टॉफी ने काफी नाम कमाया और लोगों की जुबान पर पारले का नाम चढ़ गया। ये वो दौर था जब बिस्कुट को प्रीमियम उत्पाद माना जाता था जिसे खासकर अंग्रेज या देश के अमीर लोग ही खाते थे। उस वक्त ज्यादातर बिस्कुट विदेशों से मंगाया जाता था।

ऐसे शुरू हुआ बिस्कुट का काम
साल 1938 में पारले ने फैसला किया कि वह ऐसा बिस्कुट बनाएगी जिसे देश का आम आदमी भी खरीद सके और खा सके. इसी क्रम में पारले ग्लूकोज बिस्कुट का उत्पादन शुरू हुआ। यह बिस्कुट सस्ता था और हर जगह बाजार में मौजूद था, इसलिए इसने काफी कम वक्त में पूरे देश में घर-घर में अपनी पकड़ बना ली। इस बिस्कुट के साथ एक राष्ट्रवादी विचारधारा भी थी कि देश में इसे पहली बार बनाया गया है और अब विदेशी बिस्कुट पर कोई निर्भरता नहीं रही। अब अंग्रेज ये नहीं कह सकते थे कि वे ही सिर्फ बिस्कुट खाते हैं या उनके बनाए बिस्कुट पर ही लोग निर्भर हैं। देश के लोगों में यह भावना पूरी तरह से घर कर गयी। पारले अब बिस्कुट कंपनी ही नहीं बल्कि देश की निशानी बन गयी।

सैनिकों की पसंद
पारले ग्लूको बिस्कुट देश में तो छाया ही, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश और इंडियन आर्मी के सैनिकों की भी पसंद बन कर उभरा। अब पारले की सफलता की कहानी अपने चरम पर थी। ऐसे में 1940 में कंपनी ने पहला नमकीन बिस्कुट सॉल्टेड क्रैकर-मोनाको बनाना शुरू किया। तब तक 1947 में देश का विभाजन हो गया और पारले को ग्लूको बिस्कुट का उत्पादन रोकना पड़ा क्योंकि गेहूं इसका मुख्य स्रोत था जिसकी कमी पड़ गयी। इस संकट से उबरने के लिए पारले ने बार्ली से बने बिस्कुट को बनाना और बेचना शुरू किया। 1940 में पारले ऐसी कंपनी बन गई थी जिसके पास दुनिया का सबसे लंबा 250 फीड की भट्टी यानी ओवन था।

बाद में बदला नाम
बाद में और ब्रिटानिया मार्केट में आई और उसने पारले के ग्लूको की तरह ग्लूकोज-डी बनाना शुरू किया। बाजार में अपनी मौजूदगी बनाए रखने के लिए पारले ने 80 के दशक में ग्लूको का नाम बदलकर पारले-जी कर दिया। पैकेट का रंग भी बदला और सफेद और पीले कवर में बिस्कुट आने लगे। इस पर ‘पारले-जी गर्ल’ की तस्वीर छपी होती थी। शुरू में ‘जी’ का मतलब ग्लूकोज होता था लेकिन 2000 के दशक में यह ‘जीनियस’ के तौर पर जाना जाने लगा। पार्ले-जी गर्ल के बारे में कई कहानी है जिसमें कहा जाता है कि उस वक्त के मशहूर कलाकार मगनलाल दइया ने 60 के दशक में लड़की की तस्वीर बनाई थी जो डिब्बे पर देखा जाता है।

आज देस में पारले-जी के पास 130 से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं और लगभग 50 लाख रिटेल स्टोर्स हैं। हर महीने पारले-जी 1 अरब से ज्यादा पैकेट बिस्कुट का उत्पादन करती है। देश के कोने-कोने में जहां सामान ठीक से नहीं पहुंचाए जाते, पारले-जी बिस्कुट वहां भी दिखता है।

(स्त्रोत साभार – टीवी 9 भारतवर्ष)

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