इतिहास के पन्नों में खो गयीं गणिका से बौद्ध भिक्षुणी बनने वाली विमला

ऐ सखी सुन 15

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों हमारे बीच कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी हैं जिन्हें हमारा समाज परित्यक्ता या त्याज्य  मानता है और उनके बारे में इशारों या संकेतों में बात की जाती है। हाँ, समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो इनकी बातों में ही नहीं संगति में भी भरपूर रस लेता है, भले ही इस रस या आनंद को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती। लुक- छिपकर तो बहुत कुछ किया जा सकता है।

प्रो. गीता दूबे

समाज के ही कुछ समझदार लोगों का यह भी मानना है कि वे स्त्रियाँ समाज के लिए एक ऐसी नाली का काम करती हैं जिनका होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि नालियों के बिना हमारी सफाई की व्यवस्था ठप्प पड़ जाएगी। घरों का कूड़ा- कचरा, गंदगी अर्थात तमाम उत्सर्जित पदार्थ नालियों में बहा दिए जाते हैं ताकि हमारे घर साफ- सुथरे रह सकें। लेकिन क्या कभी नालियों के पार या नालियों की तरह बज बजाती हुई गंदगी के बीच में जिंदगी बसर करने वाली इन स्त्रियों के बारे में किसी ने सोचा है। सखियों, जब मैं सखी शब्द का संबोधन करती हूँ तो इसकी व्याप्ति उन सभी स्त्रियों तक भी होती  है जिन्हें हमारा तथाकथित सभ्य समाज सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं देता है। अगर उन्हें सम्मान सहित जीने का अधिकार ही नहीं है तो भला उनकी भावनाएँ, उनकी सोच, उनकी विचारधारा आदि से किसी को क्या मतलब हो सकता है। अगर थोड़ा ठहर कर सोचे तो इन स्त्रियों में भी भावनाएँ होती हैं, इससे किसी को इनकार नहीं। भले ही उन्हें यह सिखाया जाता है कि उन्हें अपनी भावनाओं को कैसे उपयोग में लाना है या फिर  उनसे कैसे लाभ उठाना है। लेकिन सखियों यह बात तो हर स्त्री को कभी न कभी, किसी न किसी रूप में समझाई, बताई या सिखाई जाती है। खैर, आज मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी, समाज में हाशिए का जीवन व्यतीत करने वाली उन स्त्रियों की ओर जिन्हें समाज ने सिर्फ उनकी पेशेगत विशेषताओं के कारण याद रखा लेकिन उनके रचनात्मक अवदान को विस्मृत कर दिया गया। डॉ सुमन राजे ने अपनी किताब “इतिहास में स्त्री” में ऐसी कई लेखिकाओं या कवयित्रियों पर प्रकाश डाला है जो अपने पारिवारिक या पारंपारिक पेशेगत कर्तव्यों का पालन करते हुए भी साहित्य सृजन करती हैं। उनमें से कुछ अपने पेशे  को त्याग कर बौद्ध भिक्षुणियाँ या थेरियाँ  बन गईं। वे शिक्षित तो थीं ही विभिन्न ललित कलाओं में भी निष्णात थीं। इन्होंने अपने जीवनानुभवों को पूरी मार्मिकता और विश्वसनीयता के साथ अपनी रचनाओं में उकेरा है। इन रचनाओं को “थेरी गाथाएँ” कहा जाता है और स्त्री विमर्श के इतिहास में इन गाथाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसी ही एक महिला हैं, विमला। इनके बारे में माना जाता है कि वह एक गणिका की पुत्री थी और उनका काम ही था, लोगों को आकर्षित करके अपनी आजीविका चलाना। विमला बौद्ध काल में में वैशाली के एक वेश्यालय में रहती थीं और वेश्यागृह के द्वार पर बैठकर, अन्य गणिकाओं की तरह लोगों को लुभाकर अपनी आजीविका चलाती थीं। उसी दौरान स्थविर महामौदगल्यायन वैशाली में भिक्षाटन करते थे। विमला ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने की भरपूर कोशिश की लेकिन स्थविर उनकी उपेक्षा करते रहे। अंततः आम्रपाली के पदचिन्हों पर चलते हुए विमला ने धर्म की शरण ग्रहण की। लेकिन बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बावजूद उनके मन में वैराग्य की भावना दृढ़ नहीं हुई ओर वह “गृहस्थ शिक्षा उपासिका” बन गईं।

कालांतर में उन्होंने कठिन साधना की और अंततः संघ में उन्हें शरण मिली। उनकी कविताओं या गाथाओं में वेश्याओं के जीवन सत्य और मोहभंग का जीवंत अंकन हुआ है-

“रूप- लावण्य- सौभाग्य और यश

से मतवाली मैं

यौवन के अहंकार में मस्त

अज्ञानी मैं

अपने को कितना गौरवमयी

समझती थी

शरीर को 

गहनों सज विभूषित और चित्रित किए हुए मैं

शरीर कै तरुणों को आकर्षित करने

का माध्यम बनती थी

वेश्यागृह के द्वार पर बैठे- बैठे

सतर्क दृष्टि से व्याध के समान

फैलाती थी जाल।

छोड़कर लज्जा और शर्म

उघाड़कर दिखाती थी

अपने आभूषण

और गुह्य अंग

अनेक मायाएँ रचती थी मैं

मनुष्यों के पतन के लिए।

वही मैं आज

 भिक्षाचारिणी

मुंडित शीश

चीवर वसना

वृक्षों के नीचे बैठ

अवितर्क ध्यान को प्राप्त कर

विहरती हूँ।”

सखियों, विमला जैसी बहुत सी कवयित्रियों को समाज ने भले ही भुला दिया है लेकिन इनकी परिपक्व जीवनानुभूति से संपन्न रचनाओं का अपना अलग महत्व है और इन्हें पढ़ा और समझा जाना चाहिए।

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One thought on “इतिहास के पन्नों में खो गयीं गणिका से बौद्ध भिक्षुणी बनने वाली विमला

  1. Kusum jain says:

    सखी, स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक समाज का रवैया हमेशा से वंचना और अवमानना का रहा है, चाहे वह शिक्षा का अधिकार हो, अर्थोपार्जन का या फिर मनुष्य की तरह जीने का। मुक्ति और स्वाधीन जैसे शब्द तो स्त्री के जीवन कोष में ही नहीं रहे। थेरीगाथा में विद्बान बौद्ध भिक्षुणियों की मार्मिक कविताएँ हैं जो तत्कालीन इतिहास में स्त्रियों की समाज में निम्न हीन अवस्था पर प्रकाश डालते हुए इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि बौद्ध धर्म में प्रवज्या ग्रहण करने के पश्चात ही वे अध्यात्म के रास्ते मुक्ति की ओर अग्रसर हुई।इतिहास के भूले बिसरे काल खंड को सामने लाने के लिए शुक्रिया

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