उपेक्षा के अन्धकार में रह गयीं तुलसी को प्रेरित करने वाली पत्नी रत्नावली

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, प्रसिद्ध पुरुष के पीछे खड़ी स्त्री के योगदान को तो समाज स्वीकार करता है लेकिन उस स्त्री की अलहदा पहचान को अक्सर नज़रंदाज़ किया जाता है। स्त्री का महत्व इसी में माना जाता है कि वह पुरुष के पीछे खड़ी होकर उसे संभालती रही, घर-परिवार के सारे दायित्व निभाती रहे और पति तथा उसकी उपलब्धियों को देखकर गदगद होती ‌रहे। इस त्याग के महिमा मंडित इतिहास में स्त्री का अपना अस्तित्व धीरे- धीरे धूमिल होता जाता है। समाज हो या साहित्य लोक प्रसिद्ध पति की महिमा के समक्ष पत्नी को अनायास भुला दिया जाता है। जगत प्रसिद्ध तुलसीदास जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से कौन परिचित नहीं हैं। लेकिन रत्नावली का नाम कितनों को याद है ? अगर याद हो भी तो तुलसीदास की पत्नी के रूप में भले याद हो जिनसे ‌तुलसीदास अंध‌प्रेम करते थे और जिनके फटकारने पर तुलसीदास प्रात:स्मरणीय तुलसीदास बने। उसके बाद तुलसी तो प्रसिद्ध हो गये लेकिन रत्नावली उपेक्षा के अंधकार में गुम हो गईं। तुलसीदास की रचनाओं को जन- जन ने सराहा लेकिन रत्नावली की रचनात्मकता को किसी ने याद नहीं रखा। जी हाँ, रत्नावली भी साहित्य-सृजन करती थीं। उनके दोहों का साहित्यिक महत्त्व तो अवश्य है लेकिन उनका उल्लेख ना के बराबर मिलता है। तुलसीदास के आभामंडल के आलोक में रत्नावली के दोहों की आभा मंद पड़ गई लेकिन इससे उनका योगदान कम नहीं होता।
श्री मुरलीधर चतुर्वेदी ने “रत्नावली-चरित” के नाम से रत्नावली देवी की जीवनी लिखी है जिसे उनका प्रामाणिक जीवन वृत्तांत माना जाता है। उस पुस्तक के अनुसार रत्नावली का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के बदरिया नामक गाँव में संवत् 1577 में हुआ था। एक और मत के अनुसार उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले का एक गाँव उनका जन्म स्थान है। उनके पिता का नाम पंडित दीनबंधु पाठक और माता का नाम दयावती था। तुलसीदास से उनका विवाह 12 वर्ष की आयु में 1589 में और गौना 1593 में हुआ। उस घटना को सभी जानते हैं जब तुलसीदास की पत्नी अपने मायके में थीं और उनके वियोग को न सह पाने के कारण अंधेरी रात में मूसलाधार ‌बरसात की परवाह न करते हुए, नाव और नाविक के अभाव में शव के सहारे नदी पारकर, दरवाजा बंद पाकर ऊपर की मंजिल पर चढ़ने के लिए साँप को रस्सी की तरह पकड़कर, तुलसीदास उनसे मिलने पहुँचे थे लेकिन पत्नी ने उनकी अधीरता देखकर क्षोभ से भरकर उन्हें फटकारते हुए कहा था-
“लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ॥”
साथ ही उन्होंने यह भी कहा जिससे तुलसीदास के ज्ञान-चक्षु खुल गए-
“अस्थि-चर्म-मय देह मम तामै जैसी प्रीति।
तैसी जौ श्रीराम महँ होति न तौ भवभीति॥”
इस बात से तुलसीदास जी इस कदर आहत हुए कि उन्होंने रत्नावली को त्याग दिया, गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया और काशी चले गए। रत्नावली की उम्र उस समय 27 वर्ष थी। पति द्वारा त्याग दिए जाने के बाद वह भी जीवन से विरक्त होकर साध्वी बन गईं। रत्नावली अगर तुलसीदास को फटकारती नहीं तो संभवतः वह एक साधारण गृहस्थ ही बने रहते लेकिन इस घटना के बाद रामबोला तुलसीदास के रूप में प्रसिद्ध हुए और रत्नावली का जीवन दुख और अवसाद से घिर गया। भारतीय समाज में जहाँ विवाहिता स्त्री को पति की छाया माना जाता है वहाँ रत्नावली की स्थिति का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। उन्होंने पूरी उम्र पति के स्मृतियों को सहेजते हुए में गुजार दी और 74 वर्ष की आयु में संवत् 1651 में इस निष्ठुर संसार को त्याग कर चली गईं।
साहित्य और लोकस्मृति दोनों ने रत्नावली की रचनात्मक प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया। उन्होंने बहुत से दोहों की रचना की है। इन दोहों में उनकी पीड़ा का मर्मस्पर्शी अंकन हुआ है। संभवतः जीवन भर उनको तुलसीदास के चले जाने का‌ मलाल रहा और उस पीड़ा को उन्होंने बड़े दर्द के साथ अपने दोहों में पिरोया है। तुलसीदास से की गई उनकी क्षमायाचना ह्रदय को व्यथित कर देती है-
“छमा करहु अपराध सब, अपराधिन के आय।
बुरी भली हौं आप की, तजौं न लेहु निभाय।।”
लेकिन स्त्री को समाज सहजता से क्षमादान नहीं देता। रत्नावली भी जीवन भर परिताप की अग्नि में झुलसती रहीं। अपने जीवन के सूनेपन को उन्होंने पति की स्मृतियो से भरा और उनकी प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करती रहीं। यह दोहा देखिए जिसमें एक साधारण स्त्री की तरह वह अपने भाग्य को कोसती हुई दिखाई देती हैं-
“कहाँ हमारे भाग अस, जो पिय दरसन देयँ।
वाहि पाछिली दीठि सों, एक बार लषि लेयँ।।”
उनकी तड़प और प्रतीक्षा का एक और उदाहरण देखिए-
“कबहुँ कि ऊगै भाग रवि, कबहुँ कि होइ बिहान।
कबहुँ कि बिकसै उर कमल, रतनावलि सकुचान।।”
भारतीय समाज में पति विहीन स्त्री की पीड़ा को रत्नावली ने अपने दोहों में गहराई से उभारा है। नारी किस तरह पति विहीन होकर समाज में हीन या पानी बिन मीन की तरह हो जाती है, इसके अनेक उदाहरण उनके दोहों में सहज ही मिल जाते हैं-
“रतनावलि भवसिंधु मधि, तिय जीवन की नाव।
पिय केवट बिन कौन जग, षेय किनारे लाव।।”
वह उस नारी को ही सौभाग्यशाली मानती हैं जो अपने अपने पति के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती हैं-
“नारि सोइ बड़भागिनी, जाके पीतम पास।
लषि लषि चष सीतल करै, हीतल लहै हुलास।।”
पति की उपेक्षा के बावजूद वह पति का नाम उसी तरह अपने ह्रदय में बसाकर रखती हैं जैसे भक्तगण अपने ह्रदय में अपने आराध्य का नाम अंकित करके संतोष और प्रसन्नता से भरे रहते हैं। अपने रामभक्त पति को अपने ह्रदय में बसाकर वह एक साथ दोनों लोकों को साधकर अपने जीवन को सफल समझकर संतोष पा लेती हैं-
“राम जासु हिरदे बसत, सो पिय मम उर धाम।
एक बसत दोउ बसैं, रतन भाग अभिराम।।”
रत्नवली देवी ने अपने दोहों के माध्यम से समाज को नैतिकता की शिक्षा देने का प्रयास भी किया है। उनके छोटे -छोटे दोहों में जीवन का सार भरा दिखाई देता है। जीवन में विवेक के महत्त्व को स्वीकारते और समझाते हुए वह कहती हैं-
“तरुनाई धन देह बल, बहु दोषुन आगार।
बिनु बिबेक रतनावली, पसु सम करत विचार॥”
इसी तरह शील के समान बहुमूल्य भूषण कोई दूसरा नहीं है, इसकी ओर भी वह गंभीरता पूर्वक संकेत करती हैं। उनका कहना है कि शील के बिना ढेरों आभूषण व्यर्थ हैं-
“भूषन रतन अनेक नग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥”
आज हम बहुत सी दुकानों पर लिखा हुआ पढ़ते हैं कि “उधार प्रेम की कैंची है” या यह कहते हैं कि पैसों और कर्ज से रिश्ते खराब होते हैं। इसी बात को रत्नावली जी अपने दोहों में सहजता से पिरो देती हैं कि उधार प्रेम को नष्ट कर देता है –
”स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार।
ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥”
हम सभी जब किसी के.लिए कुछ करते हैं तो मन में प्रतिदान की सहज आकांक्षा होती है लेकिन कवयित्री इसकी मनाही करती हुई उपकार के बदले कुछ भी प्रतिदान न मांगने की हिदायत देती हैं-
“रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार।
लहहिं न बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥”
संतान अगर अच्छी न हो तो निसंतान रहना भला, इस बात को सब स्वीकारते हैं। रत्नावली भी बड़ी गंभीरता से यह बात कहती हैं
“रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले न सौउ कपूत।
बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥ ”
और सपूत किस तरह कुल और परिवार की मान बढ़ाता है, इस ओर भी वह संकेत करती हैं-
“कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।
रतन एक ही चँद जिमि, करत जगत उजियारि॥”
सच्चे स्नेही अर्थात मित्र या प्रियजनों पहचान बताते हुए वह मुश्किल समय में साथ देनेवालों की ही सच्चा संबंधी मानती हैं
“सोइ सनेही जो रतन, करहिं विपति में नेह।
सुष संपति लषि जन बहुरि, वनें नेह के गेह॥
जीवन में संगति के महत्व पर तकरीबन सभी भक्त कवियों ने प्रकाश डाला है। रत्नावली के दोहों को पढ़ते हुए कबीर, तुलसी, रहीम के दोहों की याद हो आती है। वह दुर्जन व्यक्ति की संगति से बचने को कहती हैं, भले ही वह कितना भी गुणवान क्यों न हो-
“भलें होइ दुरजन गुनी भली न तासौ प्रीति।

विषधर मनिधर हू रतन, डसत करत जिमि भीति॥”
ब्रजभाषा में रचित रत्नावली के दोहों में जीवन का गूढ़ सत्य तो है ही मित्रवत सलाह भी है जिसे अपनाकर जीवन सहज और सफल हो सकता है। दुख इस बात का है कि रत्नावली के साहित्यिक अवदान के विषय में कम ही लोग जानते हैं। इनके दोहों में जीवन का मर्म छिपा हुआ है। साथ ही परित्यक्त स्त्री की पीड़ा को गहराई से महसूस किया जा सकता है। प्रिय वियोग की व्याकुलता का तीव्र आर्तनाद उनके दोहों का मुख्य स्वर है-
“असन बसन भूषन भवन, पिय बिन कछु न सुहाय।
भार रूप जीवन भयो, छिन छिन जिय अकुलाय॥”

 

शुभजिता

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