कुमार गंधर्व : सुरों से मोहित करने वाला जादूगर जो कबीर और भिंडी पर फिदा था

नमिता देवीदयाल
बात 1980 के दशक है। मुंबई के दादर में कुमार गंधर्व का एक कार्यक्रम था। जब वह वहां पहुंचे तो उनके साथ एक अजीब वाकया हुई। कार्यक्रम के चीफ गेस्ट कोई नेताजी थे। उनके आने का भी वक्त हो रहा था। चीफ गेस्ट महोदय का रास्ता बनाने के लिए आयोजकों ने कुमार गंधर्व से बदसलूकी करते हुए साइड हटने को कह दिया। गंधर्व के दोस्त, जो उनको कार्यक्रम में लेकर आए थे, ने इसका विरोध किया। उन्होंने आयोजकों को बताया कि यह वही कलाकार हैं, जिनको परफॉर्मेंस देनी है। लेकिन किसी को फर्क नहीं पड़ा।
कुमार गंधर्व यह सब देख रहे थे। उन्होंने एक शब्द नहीं बोला। उन्होंने अपना तानपुरा उठाया और ऑडिटोरियम के दूसरे फ्लोर पर जाकर बैठ गए। दोस्त भी दूसरा तानपुरा लेकर उनके साथ हो लिया। इसके बाद गंधर्व ने मंच पर जाकर ‘उड़ जाएगा हंस अकेला’ की ऐसी तान छेड़ी कि हर कोई मंत्रमुग्ध हो गया।
बाद में जब कुमार गंधर्व से पूछा गया कि क्या आयोजकों के खराब व्यवहार से उनको बुरा नहीं लगा, तो उनका जवाब था- ‘हां जरूर लगा, लेकिन 500 लोग जो यहां जमा हुए थे, इसमें उनका क्या दोष था।’ भारतीय संगीत की दुनिया का यह सुनहला हंस उड़ चुका है, लेकिन कुमार गंधर्व की तान अभी भी मोहित कर रही है।
कुमार गंधर्व भले ही अब हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी आवाज का जादू चलता रहेगा, टूटे दिल की पीर को ये जादू हरता रहेगा, आनंद का सुख देता रहेगा। ये वो आवाज है जिसके सामने सरहदें बेमानी हैं। ये वो आवाज है जो हर बंधन को तोड़कर वहां पहुंचता है जहां लोग सन्नाटे के शोर में लीन हो जाते हैं। जब वह शून्यता या खालीपन को गाते हैं तो उसका क्या मतलब होता था? उनका संगीत शास्त्रीय था या लोकसंगीत? वह क्यों रहस्यमय कवि कबीर की आवाज बने? शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली का जन्म 100 वर्ष पहले कर्नाटक के बेलगाम में सुलभावी नाम के गांव में एक शिव मंदिर के पास गायकों के परिवार में हुआ था। उस बच्चे को जैसे विलक्षण प्रतिभा का वरदान मिला था। बचपन में ही वह किसी भी तरह के संगीत को पूरी तरह याद और उसकी नकल कर सकते थे। इस विलक्षण बालक को पास के एक मठ के स्वामी जी ने कुमार गंधर्व नाम दिया। 10 साल की उम्र में वह बीआर देवधर से संगीत की शिक्षा लेने लगे जिन्होंने मुंबई के ओपेरा हाउस में म्यूजिक स्कूल खोला था।

जिस साल भारत को आजादी मिली, उसी साल कुमार गंधर्व की शादी हुई और उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के लिए जो रिकॉर्डिंग की, उसे लंबे समय तक उनकी आखिरी रिकॉर्डिंग की तरह समझा जाता रहा। पता चला कि उन्हें तपेदिक यानी टीबी है और उन्हें गाने से मना कर दिया गया। लेकिन संगीत के इस उपासक की श्रद्धा तो ऐसी थी जो एक खंजर को भी जादूई छड़ी में तब्दील कर सके। वह मध्य प्रदेश के देवास नाम के शहर में शिफ्ट हो गए जो अपने साफ और शुष्क हवा के साथ-साथ लोकसंगीत के लिए जाना जाता है।
देवास में गांववालों और घूमक्कड़ संन्यासियों या सुफी गायकों के गीत हमेशा जैसे उनकी जिंदगी में पार्श्व संगीत की तरह बजते रहे, नैपथ्य में। अब संगीत उनके अंतस में बजा करता था। उन्होंने लोकसंगीत के तत्वों को राग में तब्दील किया, बिना उनकी शुद्धता से कोई समझौता किए। उनका रहस्यवादी कवि कबीर की निर्गुण कविता से तारूफ बढ़ा। ऐसी कविता जो निराकार परम सत्य के एकत्व की बखान करती है, जो याद दिलाती है कि वह महान कुंभकार ने सभी को एक ही मिट्टी से बनाया है।
लिंडा हेस ने अपनी किताब ‘सिंगिंग एम्पटीनेस’ में लिखा है, ‘जो लोग कुमार जी को जानते थे वे बताते थे कि कैसे वह सब्जियों को प्यार करते थे। फूलों, पक्षियों, किताबों और बारिश से प्यार करते थे। वह कैसे हर वक्त, हर क्षण चीजों को लेकर सचेत रहा करते थे।’ हेस ने लिखा है, ‘उन्हें बागवानी और खरीदारी पसंद थी। वह कंधे से लटकाने वाले कई झोले लेकर बाजार जाते थे ताकि ताजी सब्जियां एक दूसरे दबकर पिचके नहीं, खराब न हों। इस दौरान हो सकता है कि वह किसी मित्र से भिंडी की खूबसूरती पर लंबी चर्चा कर लें। वह सुबह-सुबह दो पक्षियों की चहचहाहट और उनकी आपसी बातचीत को रिकॉर्ड करने के लिए बगीचे में टेप रिकॉर्डर लगा दिया करते थे।’
टीबी का पता चलने के 6 वर्ष बाद जब उन्हें फिर से गाने की इजाजत मिली तो उन्होंने स्टार सिंगिंग की शूटिंग की, एक ऐसा म्यूजिक जिसे पहले कभी नहीं सुना गया हो। उनका संगीत इतिहास और भूगोल से परे पहुंचा। यहां तक कि यह संगीत से भी परे पहुंच गया क्योंकि ये एक ऐसा विशुद्ध तान छेड़ता है जो सभी को जोड़ता है।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

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