छत दिखती नहीं

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डॉ. वसुंधरा मिश्र

मेरी छत से अब तुम्हारी छत तक भी दिखती नहीं
पास थे जब तुम कभी अब दूर से भी दिखते नहीं
आँखों से आँखों का मिलना बन चुका है अब सपना
दूर होकर भी तब हमारा सब कुछ था केवल अपना
समय की लकीरों में धुंधले उभरते प्रेम चित्र
सहसा ही उभर उभर छा जाते

प्रेम के हिंडोले में पेंग भरते रहे
सीढ़ियों पर पचासों बार उतरते और चढ़ते रहे
पैरों में असंख्य बिजलियाँ मचल हंँस खेलती रहीं
साइकिल की घंटियाँ धड़कनों को झंकृत करतीं रहीं
भावों की तरंगें गिलहरी बन मचल मचल लिपटती रहीं
हाथों को जब तुम लहराते अमलतास फूल लद जाते
ताल छंद लय के न जाने कितने ही गीत मुखर हो जाते
कागज के उन टुकड़ों को जब भी पढ़ती थी बार बार
मीठी कसक लिए युवा ऊर्जा के कर जाती कई समंदर पार
अब छत पर वह उन्मुक्त चंद्र किरणें नहीं दिखाई पड़तीं
हर श्वास-प्रश्वास अब पदचाप की आहट को नहीं ढूंँढती
समय के साथ वह दवा भी अब काम नहीं करती
तुम्हारा आना जाना मुस्कुराना महज यादों में बसी रहीं
सच में, इन प्राणों में गीत संगीत और नृत्य अब भी है जीवित
तभी तो अभी भी मन भीतर ही भीतर खिलखिलाता और मुस्कुराता रहता है
गतिशील और मूर्त बन जीवन को चलाता रहता है
प्रेम मरता नहीं है जीने की प्रेरणा बन मृत्यु के द्वार को खटखटाता है।
हर पल अमरता और प्रीत के गीत गुनगुनाता है।
छत अब टूट कर आकाश को छूने लगी है
अब तुम्हारे लहराते वे हाथ भी न जाने कब से खो चुके हैं
फुर्सत और प्रेम की वे आँखें न जाने कब से बंद हो चुकी हैं
फिर भी भावों की फुलवारी में फूल तो खिलते ही रहेंगे
छत न सही एसी के बंद कमरों में सही सिकुड़े मानस में सही
जमाने से प्रेम भले ही बदलते रहे हों, प्रेम संस्कृतियां जीतती रहेंगीं

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