जनमानस ने संजोकर रखे हैं पद्मा चारिणी के गीत

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों डिंगल काव्य धारा के अंतर्गत वीर रसात्मक काव्य रचना करने वालों में कुछ कवयित्रियों के नाम भी शामिल हैं जिन्हें समय के साथ भुला दिया गया। यहाँ तक कि इनका नाम भी बहुत से साहित्य प्रेमियों को पता नहीं है। लेकिन गंभीर शोधकर्ताओं की पैनी दृष्टि इनपर और इनके साहित्यिक अवदान पर पड़ी और उन्होंने उनकी रचनाओं को संकलित किया। झीमा चारिणी की रचनात्मकता से मैं आपको परिचित करवा चुकी हूँ। आज मैं आपका परिचय पद्मा चारिणी से करवाऊंगी।

पद्मा चारिणी का रचनाकाल संवत 1643 या 1654  के आसपास माना जाता है। ये चारण ऊदाजी सांदू की सुपुत्री और  मालाजी सांदू की बहन थीं। कहा जाता है कि इनका विवाह शंकर बारहठ के साथ हुआ था जो स्वयं एक प्रसिद्ध कवि थे। एक अन्य कथा भी मिलती है जिसके अनुसार इनकी सगाई तो शंकर बारहठ के साथ हुई थी लेकिन विवाह नहीं हो पाया था। संक्षेप में इसकी कथा इस प्रकार है कि एक बार‌ शंकर जी अपने कुछ मित्रों के साथ पद्मा के गाँव के पास से गुजर रहे थे तो उन्होंने सोचा कि मालाजी से भेंट करते चले। संयोग से मालाजी उस समय घर पर नहीं थे। नौकर ने पद्मा को उनके भावी पति के अन्य मित्रों के साथ आने की सूचना दी। पद्मा ने सोचा कि मेहमान बिना आदर सत्कार के चले जाएंगे तो उनके परिवार की बदनामी होगा लेकिन वह अपने भावी पति के सामने नहीं जा सकती थी इसीलिए उसने पुरुष का वेश बनाया और अपना परिचय छोटे कुंवर के रूप में देकर अतिथियों का सत्कार किया। गले मिलकर उनका स्वागत किया और कविता की महफ़िल में कविताएँ भी सुनाईं तथा दूसरे दिन उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया। लेकिन गाँव के चौधरी ने मेहमानों को बताया कि उस घर में तो कोई कुंवर है ही नहीं। कुंवर के पैरों के निशान देखकर उन्होंने कहा कि “ऐ तो बांका पग बाई पद्मा रा” अर्थात ये तिरछे पैरों के निशान पद्मा के हैं क्योंकि वह पैर तिरछे करके चलती थी। सच्चाई जानकर शंकर ने पद्मा से विवाह करने से इंकार कर दिया। हालांकि उन्हें पद्मा की बुद्धिमत्ता की सराहना करनी चाहिए थी लेकिन पुरुष के अहम को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उनकी भावी पत्नी ने उनके मित्रों के गले लगकर उनका स्वागत किया और सबके साथ महफिल भी जमाई। यह बात सुनकर स्वाभिमानिनी चारण कन्या ने आजीवन कुंवारी रहने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि विवाह एक बार जिसके साथ तय हो गया उसी के साथ ही होगा अन्यथा नहीं होगा। इस प्रसंग में एक और कथा मिलती है। डॉ. हीरालाल माहेश्वरी ने शंकर बारहठ का उल्लेख करते हुए पद्मा की कथा इस प्रकार लिखी है- “संवत 1643 जोधपुर के मोटे राजा उदैसिंह के समय में जब आऊवै में चारणों ने धरणा दिया था, तब उनमें ये शंकर बारहठ भी थे लेकिन किसी कारणवश ये इस धरणे को छोड़कर चले गए। कहा जाता है, इसी कारण पद्मा जो माला सांदू की बहन थी, इनको छोड़कर राजा राय सिंह के छोटे भाई को अपना धर्म भाई मान कर उसी के महल में रहने लग गई।” 

पद्मा बचपन से ही अपने पिता के संरक्षण में काव्य रचना करती थी। उसकी प्रतिभा की चर्चा बीकानेर के तत्कालीन राजा राय सिंह जी के भाई अमर सिंह के कानों तक भी पहुँची थी। जब उन्होंने पद्मा के आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा के बारे में सुना तो उनसे बहन का नाता जोड़कर अपने महल में आदरपूर्वक स्थान दिया। समय पड़ने पर पद्मा ने रियासत के प्रति अपनी वफादारी का परिचय भी दिया। एक बार मुगल बादशाह अकबर की शाही सेना अमर सिंह को पकड़ने आई थी। उस समय अमर सिंह अफीम के नशे में सो रहे थे। तब पद्मा ने ओजपूर्ण गीत गाकर उन्हें नींद से जगाया था। वह गीत यहाँ प्रस्तुत है-

 “सहर लुटतो सदा तूं देस करतो सरद्द,

 कहर नर‌ पड़ी थारी कमाई

उज्यागर झाल खग जैतहर आभरण,

अमर अकबर तणी फौज आई

वीकहर सींह घर मार करतो वसूं।

अभंग अर  व्रन्द तौ सीस आया

लाग गयणांग भुज तोल खग लंकाल

जाग हो जाग कालियाण जाया

गोल भर सबल नर प्रकट अर गाहणां

अरबखां आवियो लाग असमाण

निवारो नींद कमधज अबै निडर नर

प्रबल हुय जैतहर दाखवो पाण

जुडै जमराण घमसाण मातौ जठै

साज सुरताज धड़ बीच समरौ

आप थी जका थह न दी भड अवर नै

आप री जिकी थह रयौ अमरौ।”

पद्मा का एक दूसरा लोकप्रिय गीत भी मिलता है जिसे उन्होंने प्रसिद्ध वीर नारायण धनजोत के शौर्य की प्रशंसा में लिखा था। नारायण सिवाना दुर्ग की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। कवयित्री ने उनके शौर्य को अपनी कविता के माध्यम से लोक इतिहास के पन्नों पर अमर कर दिया। ओज गुण से संपन्न यह गीत सुनने वालों के मन में वीर भाव का संचार करता है। देखिए-

“गयण गाज आवाज रणतूर पाषर रहच साल ले सींधवो राग साथै,

दुरति धनराज रौ वैर जलू डोहतो मल्हपीयो मुगली फौज माथै।

धीखै कमंध षगधर आल्दघी में अर घड़ा जाणती जेण आंझै,

सर दल सामुहो दंस पाबासरो झी ये बराहण लोह झाझै।”

पद्मा के एक और गीत को बहुत प्रसिद्धि मिली है जिसके केन्द्र में वीर नायक शिवा बाढ़ेला का शौर्यपूर्ण चरित्र है। वीर रणमल के वंशजों ने अपने मंदिर की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए अपने प्राण त्याग दिये थे। इस सैन्य टुकड़ी का नायक शिवा बाढ़ेला था। कवयित्री ने अत्यंत ओजपूर्ण शब्दों में शिवा के अद्भुत रणकौशल और बहादुरी को वर्णित किया है। इनके अन्य गीतों में फहीम नामक योद्धा तथा अबदल खां पठान जैसे वीर योद्धाओं के शौर्य का वर्णन मिलता है। पद्मा चारिणी ने मुख्यत वीर रस की कविताओं की रचना की है। ओजगुण से संपन्न इनकी कविताओं में रणबांकुरों के शौर्य का वर्णन अत्यंत सजीवता से हुआ है। वीर रस में आप्लावित‌ एक और गीत की पंक्तियां दृष्टव्य हैं

“सिर झूर कीयो षागै चढ़ सेरे, सास प्रामीयो जोह संगाथ।

आदम गयो घूणतो उतबंग, हूरां गई मसलती हाथ।।

कण कण कमल कयो अबदलखां, पनह षुहा यश्योह संपेण।

तसवी वणति नयेण गयो तणि, बेगम रथ गया षसम विण।।”

राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध अलंकार वयण सगाई का सुंदर निर्वाह पद्मा चारिणी या पद्मा सांदू ने अपने छंदों में किया है। वीर रस का अत्यंत रोमांचक वर्णन करनेवाली डिंगल काव्य धारा की इस सफल कवयित्री को इतिहास के अंधकार ने भले ही लील लिया लेकिन जनमानस में उनकी स्मृति आज भी लोक कथाओं और लोकगीतों में सुरक्षित है। उनके नाम से जुड़ा मुहावरा राजस्थानी भाषा के लोगों में प्रसिद्ध है। जब भी किसी व्यक्ति को कसूरवार ठहराना होता है, उसकी ओर संकेत करके कहा जाता है -“बांका पग बाई पद्मा रा।” इसी तरह उनके ओजपूर्ण गीत भी जनमानस में रचे बसे हैं और जो कवि लोक स्मृति में जीवित रहता है वही सच्चा कवि होता है। इसके बावजूद कवयित्री पद्मा चारिणी के रचनात्मक अवदान का पुनर्पाठ एवं पुनर्मूल्यांकन अवश्य होना चाहिए। साथ ही इनकी कविताओं को अधिकाधिक लोगों के बीच पहुँचाने की आवश्यकता भी है। थोड़ी कोशिश मैंने की, थोड़ी आप भी करिए।

 

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