‘दस द्वारे का पिंजरा ‘को पढ़ते हुए

– डॉ. वसुंधरा मिश्र

‘स्त्री की मुक्ति भी स्त्रीलिंग ही तो है! कभी अकेली नहीं मिलती! हरदम वह झुंड में ही हँसती – बोलती है। थेरियों का झुंड हो या जैन साध्वियों, चिड़ियों और स्त्रियों का यह बृहत्तर सखा- भाव रमाबाई को हमेशा ही आकर्षित करता!’ भारत ही नहीं, विश्व में पितृसत्तात्मक प्रधान समाज रहा है। स्त्रियाँ को कभी भी समानता और अधिकार का स्थान अनायास ही नहीं मिला,उन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ी तभी उन्हें स्थान मिलता रहा, यह समाज में चलने वाली अनवरत प्रक्रिया है।

स्त्री मुक्ति कब से माना जाए यह साहित्य और समाज दोनों की विडम्बना है। जब इस पर बात होती है तो स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर ज्योतिबा फूले, महादेव रानाडे, केशवचंद्र सेन, भिखारी ठाकुर आदि बहुतेरे समाज सुधारक जिन्होंने ने समाज की उपेक्षिता स्त्री वर्ग की समानता की ओर ध्यान खींचा। फ्रैंच लेखिका सीमन बोउवार ने 1949 में ‘स्त्री उपेक्षिता’ पुस्तक लिखकर स्त्री समाज की कड़वी सच्चाई को सामने लाने का कार्य किया। स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता को लेकर बहुत से कथाकार, साहित्यकार, लेखकों ने अपनी लेखनी के माध्यम से मुहिम चलाई है।
अनामिका ऐसा ही सशक्त नाम है जिन्होंने एक ही समाज की दो प्रकार की स्त्रियों के चारित्रिक विवेक को जातीय और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अपने उपन्यास ‘दस द्वारे का पिंजरा’ में विस्तार से चर्चा की है।
वेद, उपनिषद, स्मृति, आदि से लेकर भारतीय संस्कृति और दर्शन के विभिन्न विषयों पर इस उपन्यास में चरित्र के अनुसार चर्चा हुई है जो लेखिका के गहन अध्ययन को दर्शाता है ।भारतीय समाज चार जांतियों में बंँटा हुआ है जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं लेकिन यह बंँटवारा यहीं तक सीमित नहीं है। पितृसत्तात्मक बहुल समाज में सभी जातियों की स्त्री के भी बराबर वही वर्ग रहे हैं। उच्च वर्ण और जाति व्यवस्था में स्त्री का स्थान भी उसी क्रम में मिलता है। उच्च वर्ण की स्त्रियों को समाज में ऊँचा और नीची जाति की स्त्रियों से निम्न श्रेणी का माना जाता था अभी भी इस सोच में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। बड़े-बड़े समाज सुधारक अपनी घर की स्त्रियों के साथ भी उपेक्षा के भाव रखते हैं क्योंकि वे स्त्री जाति की हैं, वह माँ, पत्नी आदि कई रूपों में प्रयुक्त होती रही है। एक रूप उसका सिर्फ देह का है जो समाज में उसके कुलीन और अकुलीन वर्ग को निर्धारित करता है।
अनामिका का उपन्यास ‘दस द्वारे का पिंजरा’ उपन्यास का लेखन किस्सागोई की तर्ज पर एकत्रित की गई दो कथाओं का जोड़ है। ‘आधारशिला’ के अॉफिस में जहाँ बच्चों के लिए कथासत्रम् चलता है। बच्चों को महान प्राणियों के जीवन, भूत-प्रेत, पारलौकिक अनुभव से लेकर वैज्ञानिक आविष्कारों, मुकदमों और स्कैनडलों तक के किस्से सुनाए जाते हैं। मनोचिकित्सक डॉ स्पंदन आधारशिला के कथासत्रम् के सम्मानित अतिथि हैं। शीरीन पुणे संस्थान से दस साल पहले निर्देशन का कोर्स की थीं। यहांँ फिल्म पर भी काम कर रही हैं। फिलहाल दो फिल्में बनाने का प्रोजेक्ट है जिसे शीरीन को बनाना है। दो स्त्री चरित्र – एक पंडिता रमाबाई पर और दूसरी उनकी पट्टशिष्य ढेला बाई पर, जो स्त्री के संघर्षों के साथ ही नए मूल्यों को स्थापित करती है।
प्रथम बार साहित्य अकादमी का पुरस्कार अनामिका को मिलना भी साहित्य क्षेत्र की प्रगतिशीलता का परिचायक है।
उपन्यास दस द्वारे का पिंजरा ‘सैल्वेशन’ से लेकर ‘लिबरेशन’ तक स्त्री मुक्ति के कठिन रास्तों से गुजरती स्त्रियों की सजग दास्तान है। पुरानेपन के आवरणों में उघाड़ती ढकती स्त्री के विभिन्न रूपों को स्थापित करने की कथा इस उपन्यास में आरंभ से अंत तक दृष्टिगोचर होता है। एक फिल्म की रील यह कथा मुजफ्फरपुर में ढेलाबाई की ‘जोगिनिया कोठी’ ( पृष्ठ 14)से होकर निकलती जो उपन्यास की केन्द्रीय धूरी है जहांँ अब ‘आधारशिला, का मुख्य दफ़्तर हो गया है। शीरीन का घर बिहार ही है। उसकी माँ काननदेवी का लिखा रेडियो नाटक रमाबाई वाली फिल्म की पटकथा के लिए उसके सामने पड़ा है। शीरीन के पति और बच्चों को डॉ स्पंदन की ‘निःस्वार्थ सेवा’ और’ अहैतुक प्रेम’ के कारण उनका आना अच्छा लगता था क्योंकि यही ‘दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति’ है।
चकलेघर की ढेला बाई और एक आचार्य पंडिता स्त्री रमाबाई के जीवन भर के अनुभवों को अनामिका ने किस्सा के बहाने बहुत ही सूक्ष्म मानवीय दृष्टि से उकेरा है। प्रथम खंड में ही’ चकलाघर की एक दुपहरिया’ कविता में वे विवस्त्र स्त्री की बात करती हैं जो विद्याविनोदिनी संस्कृत पढ़ रही हैं। वह आम्रपाली की तरह है, विदूषी भी है – – – पर पाप होता है क्या?
खुल जाती है ऋतु संभोग से बंदी शाला,
छा जाता है अंधकार, सार्थवाह,
लेकिन उस मेधायित अंधकार में भी
कुछ द्युतियांँ तो होती ही हैं निराकार! ‘
उपन्यास में भारतीय समाज के एक ऐसे कालखंड को लिया गया है जब देश नवजागरण के दौर से गुजर रहा था और देशवासियों में देश के कुसंस्कारों और कुप्रथाओं से आजादी प्राप्त करने की मुहिम चल रही थी। ब्रह्म समाज अपने सनातन हिंदू धर्म की मूल भावना के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ था। उसी समय धर्मांतरण, जातिवाद, सती प्रथा, स्त्रियों का अपमान आदि अनेक समस्याओं के साथ अंग्रेजियत के भक्त,गांधी जी के अनुयायी, राजनीति, देशभक्ति, स्त्री दुर्दशा, जातिप्रथा, समाजसुधार आदि प्रमुख विषयों को केंद्र में रखकर समाज के विकास के लिए प्रयास किए जा रहे थे। प्राचीन और नवीन के सुंदर सामंजस्य पर लिखे नाटकों का मंचन किया जा रहा था जिनमें कहीं प्रेम का आदर्श था, कहीं देशदशा, कहीं देशी रजवाड़ों की कुचक्र पूर्ण परिस्थितियां या तत्कालीन पांखडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के विभिन्न रूपों को सुधिजन जागरूकता अभियान के तहत लिख रहे थे। इस उपन्यास में ज्योतिबा फूले के’ सतसार ‘नाटक का मंचन उपन्यास की नायिका ‘पंडिता रमाबाई ‘ को केंद्र में रख कर किया गया है। रमा बाई ने इंग्लैंड में जाकर हिंदू धर्म और ईसाई धर्म का तुलनात्मक अध्ययन किया और पाया कि हिंदू धर्म का स्वरूप घमंडी और पक्षपातपूर्ण रहा इसी कारण उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया । रमा बाई की बेटी मनोरमा और उसका साथी गिरिधर दोनों ज्योतिबा – सावित्री के’ सतयशोधक समाज’ के कार्यकर्ता बन कर आते हैं।इस नाटक के माध्यम से’ सत्यशोधक समाज’ के एक अन्त्यज समाज के एक सदस्य और गृहस्थ ब्राह्मण के बीच बातचीत से आरंभ होती है। ब्रह्म समाज के ब्रह्म का मतलब जहां जातिभेद है ही नहीं। हिन्दू धर्म छोड़ कर ईसाई धर्म में धर्मांतरण क्यों किया विदूषी रमा बाई ने। ‘हिंदू धर्म के निर्माताओं ने नारी और शूद्रातिशूद्र जातियों पर किस – किस प्रकार की आग उगली है, उनपर कितने कठोर प्रतिबंध लगाए हैं, उनके संबंध में कितने प्रकार की जुल्मी बातें लिखकर रखी हैं, यह सब उस बेचारी भोलीभाली विदूषी रमाबाई को क्या मालूम था!'(दस द्वारे का पिंजरा, पृष्ठ 125)
उपन्यास में विदूषी स्त्री रमाबाई बचपन से ही तर्कशील और बुद्धिमति रही हैं। यह उनके पिता पंडित अन्तशास्त्री डांगे द्वारा ही संभव हो सका जिन्होंने स्वयं आन्ध्र के गंगामूल आश्रम को पौराणिक अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित किया। वे अपनी पत्नी और पुत्रियों को भी शास्त्र पढ़ाते और गूढ़ विषयों पर विचार विमर्श करते।इसी कारण महाराष्ट्र के अपने ब्राह्मण समाज से जाति बहिष्कृत किए गए। तेरह वर्ष की उम्र में ही मदुरै मंदिर के प्रांगण में ‘देवीसूक्त’ रहस्य पर बड़े-बड़े पंडितों के सामने रत्नावली ने अपना विचार रखा, देवताओं के चाल-चलन पर भी सवाल उठाने का साहस किया जिसके कारण अनंतशास्त्री को सभी ने धिक्कारा।
समाज में धर्म के सही रूप को समझना संकीर्णता और असहिष्णुता माना जाने लगा है। धर्म की बात जब आती है तो जिस देवता को हम गढ़ते हैं उसके संस्कारों को गढ़ने में हमारी ही भूमिका है। ‘देवता भी मानवीय मूल्यों के वाहक हैं’ एक स्त्री को पुरुषों के समाज में खुल कर बोलने की भी स्वतंत्रता नहीं है जबकि वाणी की अधिष्ठात्री देवी स्वयं भी तो स्त्री काया में हैं।
रमा बाई पंडिता बन जाए यह पुरुष पंडित समाज कैसै स्वीकार करता। अनंतशास्त्री बाल विवाह के विरोधी थे इसलिए अभी अपनी पुत्री के विवाह के विषय में भी नहीं सोचते , उन्हें गैर ब्राह्मण जाति के सदाव्रत की बुद्धि से सरोकार था , उसकी जाति- कुल- गोत्र से नहीं। पिता रमा बाई और सदाव्रत दोनों बच्चों को आश्रम में एक साथ ही पढ़ाते।पिता का कहना था कि आगे चलकर यदि ‘अस्तेय, अपरिग्रह, सत्य, मेधा और शील से पूर्ण सदाव्रत रमाबाई का हाथ मांगता है तो सहर्ष स्वीकार्य होगा।
ये बात अलग है कि आगे चल कर रत्नावली की माँ ने ही सदाव्रत को हमेशा के लिए अपने परिवार और पुत्री से दूर कर दिया। अपने पुत्र श्रीधर , बड़े जामाता को ही प्रमुखता दी। जबकि पूरे परिवार के कष्टपूर्ण समय में सदाव्रत ने जी जान लगाकार सेवा धर्म निभाया। मॉं लक्षमी बाई समाज के कुसंस्कार और संकीर्णतावादी मानसिकता से उबर नहीं पाई।उन्होंने सदाव्रत को बहुत ही भारी मन से अपनी पुत्री से सदा के लिए दूर रहने के लिए वादा लिया।
सदाव्रत घूरे पर पड़ा हुआ मुरुगन अप्पा को मिला था उसके कुल गोत्र का पता न था। सतमासा अनाथ बच्चा था जिसे अनंतशास्त्री ने पाला था। अप्पा कमिशनरानी मेमसाहब के साथ कुक बनकर ब्रिटेन चले गए। वहाँ उनका ईसाई धर्म में धर्मांतरण करवाया गया।
बहुत सारी घटनाएं घटित होती हैं – बालसखा सदाव्रत का इंग्लैंड से बार ऐट लॉ बन कर लौटना(दृश्य 15), इंग्लैंड में भी धर्म की परिभाषा में बदलाव जहां ‘मानवधर्म’भी गिरजाघरों और दूसरे दिव्य स्थानों की सीढ़ियां उतरता हुआ सेकुलर साहित्य की डॉरमेटरी में रहने लगा है (द्वारे. पृष्ठ 66), स्वामी दयानंद, केशव चंद्र सेन, जस्टिस रानाडे, सिस्टर गेरेल्डाइन, दादा साहेब, फैनी पॉवर्स आदि कई लोगों के विचारों को मेरी रत्नावली ने अपने दृष्टिकोण और विवेक से समझा। “मानव मात्र से प्रेम करने की कला है धर्म: मनुष्य काला हो या गोरा, पीला हो या लाल, श्वेत हो या गुलाबी – – आवरणों के पार देखना,देखकर पहचानना और सबके जलतत्व, अगनितत्व, पवनतत्व, आकाशतत्व,महीतत्व से एका बिठाना – – यही धर्म है।
वेद, बाइबिल, कुराआन और दुनिया के और सभी महाग्रंथ जिन बातों पर सहमत हैं, वही धर्म है – – – प्रेम और सद्भाव, अहिंसा, सेवा और परदुखकातरता! – – – – वृहत्तर मानवता की सेवा हो – – – सहीधर्माचार यही है! मानवसेवा ही हरिसेवा है। मनुष्य की मूर्ती ही ईश्वर की मूर्ती है! ‘(पृष्ठ 63)
रत्नावली के साथ प्रेम के प्रथम स्पर्श को महसूस करने पर सदाव्रत ने जीवन का यह रहस्य समझा कि’ समाज एक ऐसा कटखना बाप है जिसे किसी की भलमनसाहत पर जल्दी भरोसा नहीं होता। संयम की कोमल लता को धीरज का कड़ा तना अवलंब के रूप में अँकवारना ही पड़ता है! इन कड़े सवालों का उत्तर समय देगा!’ (पृष्ठ 31)स्त्रियों को
शिक्षित करने के लिए रमा बाई के माध्यम से अनामिका ने उपन्यास में एक आंदोलन की शुरूआत की है जहाँ स्त्री का अपना सम्मान होगा। इसलिए बेसहारा स्त्रियों की खातिर रमाबाई ने एक मुक्ति मिशन या सिस्टर्स होम की तर्ज पर पूणे में’शारदा सदन ‘ की स्थापना की जिसमें महात्मा ज्योतिबा फूले ने उसमें स्कूल चलाने की अनुमति दी। और
विधवा के अधिकार विनियोजन के प्रश्न पर बड़े-बड़े पुरोधाओं से लोहा लेने में भी जुट गईं। (पृ109) सावित्रीबाई फूले ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ में बलात्कार की शिकार औरतों का साफ-सुथरा और सुरक्षित प्रसव का कार्य कर रही थीं। शारदा सदन में विधवा स्त्रियाँ अपने जीवन की तकलीफों को भूल मुक्त रूप से कार्य कर सकती थीं।
, काश! पुरुषार्थ स्त्रियार्थ भी होते ‘चार पुरुषार्थों की बात चलने पर मनोरमा रमाबाई की बेटी चुटकी लेती। (पृष्ठ 111)।रमाबाई अपने वैधव्य से भी संघर्ष करती है अपनी बेटी को इंग्लैंड में मिशनरी में शिक्षा दिलवाती है लेकिन साथ में भारतीय धर्म और समाज की कहाँनियों से समृद्ध भी करती है। यही कारण है कि मनोरमा उसकी माँ के सपने को पूरा करने में उसका साथ दे रही है। पिता सदाव्रत की मृत्यु का कारण भी ज्योतिबा फूले के विरोधी दल ही थे।
रुकमाबाई वाला मुकदमा भी बंबई पूणे में हलचल मचा रखा था।डॉ. आनंदी बाई जोशी जैसी स्त्रियाँ कैसे डॉक्टर बनी। बहुत से ऐसी घटनाओं का उल्लेख करते हुए कथाकार ने भारतीय धर्म समाज की थोथी बातों को ध्यान में लाने की कोशिश की है जहां स्त्रियाँ अभी भी अंधेरे से बाहर निकल नहीं पाईं हैं।
रमावती कथा की समाप्ति के साथ ही दूसरी प्रस्तावित फिल्म ढेलाबाई के लिए शीरीन कच्चा माल तैयार करने की खोजबीन शुरु कर देती है। बाबा लोहासिंह जो अपने जमाने के रेडियो नाटक आदि के कलाकार थे। उनके मुँह से उनके जमाने की कुछ सच्ची कहानियों के विषय में जानकारी ली गई है । बतकही शैली में पूरी कहानी चलती है। खुदीराम बोस की फांसी और अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘तिरहुत कैरियर’ , साहित्य सम्मेलन हिंदी भाषा, प्रचारिणी सभा, नवयुवक समिति आदि के कई घटनाओं के बारे में बताते। बाबा जब आठ-नौ साल के थे तब की बातें हैं।उन्हें झनको हलवाइन की सुनहरी जलेबी याद आती हैं।
रेडियो स्टेशन पटना से आने वाला नाटक ‘लोहा सिंह नाटक’ उनकी लोकप्रियता का कारण रहा। उसी समय जनकवि महेन्दर मिसिर की प्रिय शिष्या ढेलाबाई की माँ, अफसाना बाई से भी उनका याराना था। उनके दिवालिएपन में अफसाना बाई ने उनकी दो बीवियों के परिवार को भी चलाया। बातों ही बातों में न जाने कहाँ पहुँच जाते।
आरा से आकर मुजफ्फरपुर रहने लगे लोहा सिंह क्योंकि उनके बाबू कुँवर सिंह का निधन हो गया था – दमनचक्र में सभी साथी पकड़े गए या इधर-उधर छिप गए। उनके दादा रामफल सिंह ने दूरस्थ रिश्तेदार रुद्र जी के यहाँ आश्रय लिया। (पृष्ठ 136-37)खुदी राम की फांसी का विराट दृश्य देखने वाली उन आंखों ने उस आजादी के दिवाने की उस पीड़ा को देखा जहाँ अपने प्राणों की चिंता नहीं थी बल्कि निर्दोष परिवार के छिन्न भिन्न होने का अफसोस था। बेरिस्टर कैनेडी अंग्रेज़ी का साप्ताहिक निकालते थे उन्ही की पत्नी और दो बेटियाँ खुदीराम बम कांड में अकारण मरी थीं।
‘ऐसे लोगों की आंखों में क्या होता है जो अपनी जान हथेली पर लेकर निकलते हैं। बृहत्तर उद्देश्य की खातिर कुछ जाने चली भी गईं तो क्या… खेत तामते तामते कितने निरीह जीवजंतु बेवजह ही कुचले जाते हैं’। (पृष्ठ 138)
इस बतकही में एक अद्भुत जोडी़ – महेन्दर मिसिर और ढेलाबाई की कथा सुनाते हैं जिसमें विस्फोट और आंदोलन दोनों ही हैं, वे जितने बाहर हैं उतने ही भीतर भी।
‘कैनेडी साहब थियोसोफिकल लॉज में लेडबीटर साहब के साथ ही रहने लगे थे और वह स्थान भूत बँगले के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वहाँ एनी बेसेंट, डिक क्लार्क, मास्टर मोर्या, मास्टर कुथोमी, मैडम ब्लावत्सकी और तिब्बत के महाप्राण बौद्ध संतों के अनगिनत महाग्रंथ पुस्तकालय के ढंग से सजाए गए थे’ (पृष्ठ 139)
यह वह समय था जब पूरे विश्व में भौतिक, आधिभौतिक क्रांति चल रही थी। व्यक्ति को अपने भीतर शांति, प्रेम और निःस्वार्थ अहिंसात्मक क्रांति के लिए संकल्प लेने की आवश्यकता थी। साथ ही रिटायर्ड फौजी लोहासिंह भी अपने भीतर ऐसी ही क्रांति का जज्बा रखने वाला था। उस समय हिंदी के सब जनपदों में नए युवक-युवतियों का मन नए नए सपनों और संकल्पों से भरा हुआ था। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, बाबू शिवपूजन सहाय, श्री नलिन विलोचन शर्मा हिंदी का अलख जगाने का काम कर रहे थे। भोजपुरी मागधी अंगिका बज्जिका मैथिली आदि लोकभाषाओं के जनकवि जननाट्यकार लोगों को जागरुक कर रहे थे।
लोहासिंह सूत्रधार है जो रेडियो स्टेशन के जाने-माने अभिनेता और निदेशक रहे और अब रिटायर्ड होकर जोगिनिया कोठी आ गए!( पृष्ठ 144) ।थोड़े से बावले और फकीर लाल बुझक्कड सी बातें करते लोहासिंह।
कभी महेन्दर मिसिर, कहीं सत्याग्रही कहीं भिखारी ठाकुर के संवाद या फिर गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन और महेन्दर मिसिर बन जाते।
1942 में बाबू हलवन्त सहाय की कोठी पर लोहासिंह ने बारह वर्ष की अवस्था में ढेलाबाई को देखा। ढेलाबाई उस समय चालीस वर्ष की होंगी। लोहा सिंह की मौसी गंगा ढेलाबाई की खासमखास दाई थीं। 1917 में सोनपुर के मेले से महेन्दर मिसिर और उनके पहलवान साथी ढेलाबाई को उठा लाए थे-दोस्ती के तबोताब में! मुख्तार साहब का दिल ढेलाबाई पर था लेकिन ढेलाबाई महेन्दर मिसिर की दिवानी थी। महेन्दर मिसिर भोजपुरी के भारतेंदु कहलाते थे।
मुक्ति मिशन से ढेलाबाई का जुड़ना, मुक्ति शब्द सैलल्वैशन और लिबरेशन दोनो अर्थों में कितना व्यापक है,कई आंदोलनों का जिक्र जैसे निलहा आंदोलन जिसमें लोहासिंह गांधी जी के अनन्य सहायक थे और उनके बाबा निलहा कोठी के मैनेजर थे। मुजफ्फरपुर स्थित
जोगिनिया कोठी में ढेला स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय इस बात का द्योतक है कि कुछ था जो बहुत ही पुराना था और कुछ ऐसा जो बार बार ढह जाता था। (पृ 149)।
उपन्यास में आई बहुत – सी घटनाओं का सम्मिलन ढेला बाई के चरित्र को उजागर करने में मदद तो देता ही है लेकिन एक कोठा वाली स्त्री का समूचा जीवन अंत तक अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वाभिमान के साथ लड़ती वह उसकी विशिष्टता है। खदेरन को फादर, और वह प्रेताक्रांत थियोसॉफिकल लॉज, कच्ची पक्की, अथक्रांति कथा , ढेला स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, मुजफ्फरपुर, खैनी की चुटकी ले बाबा उवाच, ढेलाबाई (1900-1917),पहला किस्सा, पीरजी घसियारे का ठट्ठा, पीकी बोली न बोल,इस मुताल्लिक फरसिया हुक्के का बयान, महेन्दर मिसिर आम -महुआ संवाद, परेवा कुँवर – मेरा जिया जाने, जैसे उड़ि जहाज को पंछी, महेन्दर मिसिर :घर – घरौआ, ढेलाबाई, महेन्दर मिसिर, बाबू हलवंत सहाय, ढेलाबाई (1945-1950),द्वितीय खंड, अफसाना बाई आदि लगभग 29 भागों में कथा आगे कड़ी की तरह जुड़ती चली जाती है।
तवायफो़ के जीवन संघर्ष की दास्तान है दस द्वारे का पिंजरा उपन्यास ।ढेलाबाई की नानी अफसाना बेगम एक बड़ी शख्सियत रही हैं। उनका कोठा सिर्फ देह धंधे की ही स्थली नहीं है बल्कि उनके जैसी कई और बदनसीब औरतों की मुक्ति का भी द्वार है। पंडिता रमाबाई द्वारा स्थापित’ मुक्ति मिशन’ तवायफो़ को अपने जीवन के मायने समझाने की पाठशाला है जहांँ वे अपनी शक्ति का उपयोग कर सकती हैं। तवायफो़ का गुप्त संगठन रात में देह धंधे से कमाये पैसों से क्रांतिकारियों की मदद करता है, समाज सेवा से जुड़ा संगठन है। ढेलाबाई की नन्ना यानी अफसाना बाई अपने घर में क्रांतिकारियों को आश्रय देती है। देश की आजादी के लिए देशव्यापी सत्याग्रह की लहर का असर चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा में गांधी जी लड़ाइयाँ लड़ चुके थे। अंग्रेज देश को स्वराज या उससे मिलते – जुलते कुछ अवसर जरूर देगें ऐसा मोंटेन और लॉर्ड चेम्सफोर्ड की समिति रिपोर्ट से लगा था लेकिन उसी समय रॉलेट कानून आया जिसने आम नागरिकों के भी अधिकार छीन लेने की तैयारी थी। (पृष्ठ 220)हिंद स्वराज और स्वराज प्रतिबंधित कर दी गईं लेकिन गाँधी जी खुद किताबें बेचकर कानून भंग कर रहेथे। कानून भंग के दूसरे दिन महादेव भाई के साथ गाँधी जी गिरफ्तार कर लिए गए। फिर जलियांवाला बाग
हत्याकांड घटा। इसी तरह पूरे देश झुलस रहा था।
मुजफ्फरपुर कीअपूर्व सुंदरी और मशहूर नृत्यांगना ढेलाबाई को बाबू हलुवंत सहाय की उपपत्नी का दर्जा दिलाने में महेन्दर मिसिर ने पूरा सहयोग किया। जनकवि सुदर्शन महेन्दर मिसिर छह फुट लंबे – तगड़े कसरती बदन वाले पहलवान थे। साथ ही संस्कृत काव्य की भक्ति और श्रृंगार से पूरा परिचय था।’ हलुवंत सहाय की जमींदारी का कामकाज संभालते कोठी पर पूजापाठ और महफिल जमती तो उसमें चार चाँद लगाते। (पृष्ठ 155)रसिक हलुवंत सहाय का दिल ढेलाबाई पर था। महिन्दर मिसिर ने सोनपुर में लगने वाले सावन मेले से ढेलाबाई को अगवा कर ले आए। पर ढेलाबाई महेन्दर मिसिर पर मरती थीं।
कथा के सूत्र मोड़ लेते हैं। बहुत कुछ घटता है।
बीसवीं सदी के इस दूसरे दशक में भोजपुरी अंचल की तत्कालीन परिस्थितियों में क्रांतिकारियों का बोलबाला था। ‘राजकुमार सुकुल ब्रजकिशोर प्रसाद मौलाना मजहरूल हक बाबू राजेंद्र प्रसाद डॉ सैयद महमूद जयप्रकाश नारायण जगलाल चौधरी भोजपुरिए बाबा रामोदारदास उर्फ राहुल सांकृत्यायन के साथ गाँव – गाँव घूमकर अलख जगाने में व्यस्त थे – -‘ हमरा नीको ना लागे रामा, गोरन के करनी
रुपिया ले ग इले, प इसा ले ग इले, ले ग इले सगरी गिन्नी
ओकरा बदला में दे ग इले, ढलुई के दुअन्नी’ (पृष्ठ 156)।
महेन्दर मिसिर ने क्रांतिकारियों की आर्थिक मदद की। जाली नोट छापे , जेल गए। स्वामी अभयानंद जी ने मिसिर को साहसी और देश के खातिर जान देने वाला समझ कर अपनी टोली में शामिल किया। महेन्दर मिसिर के गीत खत्म होते होते रोज रात अंग्रेजों पर धावा बोला जाता। बाद में उन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने भी जाल बिछाया।
पं. मिश्र की रिहाई के लिए अदालत में सैकड़ों वेश्याओं ने गहनों की पोटली और चांदी के सिक्कों के गट्ठर लेकर जज से गुहार लगाई। ढेलाबाई ने मशहूर बैरिस्टर हेमचंद्र बनर्जी को वकील नियुक्त किया।ढेलाबाई ने उनके लिए अपनी सारी संपत्ति लुटा दी। लेकिन मिश्र जी अपने अपराध से नहीं मुकरे और सात साल जेल में काटे। 25 अक्टूबर 1946 से फिर ढेलाजी के मंदिर में महफिल जमीं और उस जगह पर बैठे जहां बैठकर ढेलाबाई उनके गीत और भजन सुनती थी वहीं हारमोनियम पर शिव जी के भजन के समाप्त होते ही वे परलोक सिधार गए। ये ढेलाबाई के प्रति उनके प्रेम की पराकाष्ठा भी थी और पश्चात्ताप का प्रायश्चित था।
ऐसा प्रेम प्रसंग संभवतः ही किसी उपन्यास में आया हो।
ढेलाबाई को हलुवंत सहाय ने पत्नी का दर्जा नहीं दिया और ढेलाबाई भी साथ रहीं बेमन से। अंत में, उन्हें पत्नी का सम्मान मिला जो उनके जीवन की जीत बनकर उनके सामने आती है। ढेलाबाई और डॉ प्रबोध बोस की बेटी ठुमरी को वे उस मोहल्ले में भी ले जाने का साहस नहीं करतीं। ढेलाबाई की नन्ना तवायफों के गुप्त संगठन के लिए काम करती थी। नन्ना पंडिता रमाबाई से मिलने के लिए कहती है। नन्ना कहती हैं कि ‘सब गृहलक्ष्मियां हमसे रश्क करतीं हैं कि उनके मर्दों को हमने भेड़ – बकरियांँ बना लिया है। आखिर कुछ तो ताकत होगी हमारी! (पृष्ठ 253)’ सेज पर लेटी औरत भी कम ताक़तवर नहीं होती, उस समय उसके रोम रोम से कच्चे दूध के रंग का एक तेज फूटता है जो आदमी को कहीं से कहीं लिए जाय—उस तेज में नहाया हुआ आदमी उसका मुरीद तो होता ही है जिससे वह कुछ भी करवा सकती है – चाहे तो देव बना दे, चाहे उल्लू! – – – तुझे तो मैंने हिन्दू गुरुओं से भी संस्कृत पढवाई थी। याद है दुर्गा सप्तशती का वह हिस्सा :जब शुंभ निशुंभ किसी तरह नहीं मरते, अपनी जंघाओं के बीच दबाकर काली उनका वध करती है! (पृष्ठ 253)’
जहां’ आपका पूरा वजूद लोगों की खुजली मिटाने और गालियाँ खाने को ही समर्पित है-(पृष्ठ 253) ऐसे में नन्ना ने बाहर की दुनिया को भी अजमाने का प्रयास किया। नन्ही गौरैया को एक आकाश मिले। कुछ बड़ा करने की चाहत रखना ही सार्थक है। वह मिसिर जी से कहती है कि आपकी दृढ़ता और स्थिरता का सूत्र क्या था – खुद में गिरफ्तार आप कभी भी नहीं रहे – घुटता वही है जो खुद में ही गिरफ्तार रहता है – – अपना पिंजडा़ आप बन जाता है। ‘(पृष्ठ 254)
नन्ना चाहती है कि सभी अकेली औरतों – वैश्याओं, विधवाओं और निचले तबकों में जन्मी दूसरी परेशान हाल औरतों के संगठन’ मुक्ति मिशन ‘जिसको रमाबाई ने बनाया है, दो चार साल बाद यहाँ का सब सँभाल कर पूरब में भी उसी तरह का आश्रम खोलना।
औरतों में ये जोर पैदा करना है हमको! ‘अब जब रमाबाई रही नहीं कितनी ही ढेलाबाई को नयी रमाबाई बनकर वहाँ जाना हैं।’ (पृष्ठ 260)
ढेलाबाई अब पुलिस को भी उन्हीं के हथकंडे से निपटना सीख गई थी। ‘जीवन का बोझा उतारकर शारदा सदन आई ये औरतें किस कदर खुश रहती हैं, मजाक में ओल्ड गर्ल्स फन सेंटर(वृद्धा बालिका मस्ती केन्द्र) कहती थीं। अहो मैं मुक्त नारी /पहले मैं मूसल से धान कूटा करती थी, /आज उससे मुक्त हुई! ‘भाषा, कथ्य, शिल्प और इतिहास, संस्कृति, जाति आंदोलन जैसे बहुत से विषयों को पढ़ना अभी बाकी है।

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