पुरुष प्रधान घाटों की दबंग दुनिया में 6 नावों की मालकिन हैं धनावती देवी

वाराणसी : बनारस के क्षमेश्वर घाट पर बाकी घाटों से ज्यादा चहल पहल है। यहां आंवला नवमी की पूजा चल रही है। महिलाओं का एक छोटा सा समूह है जो पूजा के बाद प्रसाद लेने-देने में व्यस्त है। इसी पूजा स्थान पर लाल साड़ी, हरी चूड़ियां और बड़ी सी लाल बिंदी लगाए धनावती देवी प्रमुख पुजारिन की भूमिका में हैं। आने जाने वालों को बुला-बुलाकर प्रसाद दे रही हैं। पानी पिला रही हैं। जो दुल्हन उनके पास हैं उन्हें प्रसाद घर ले जाने की सलाह दे रही हैं। धनावती की ये अगुआई सिर्फ पूजा में ही नहीं बल्कि क्षमेश्वर घाट पर शायद पहली ऐसी महिला है जिसके पास 6 नाव हैं और वे उनकी मालकिन हैं। बड़ी ही चंचलता और दबंगई से धनावती घाट पर अपनी पैठ बनाने की कहानी भास्कर वुमन से साझा करती हैं।
पुरुषों के घाट में पैठ बनाना मुश्किल था
नाविक समुदाय से आने वाली धनावती बताती हैं, ‘घाट दबंगों की जगह है। अगर आप छीना-झपटी और अपनी बात को पुरजोर तरीके से रखना नहीं जानतीं तो यहां ठहरना मुश्किल है। नाव का व्यवसाय पूरी तरह से पुरुषों की सत्ता है और उनकी सत्ता में कोई सेंध लगाए उन्हें मंजूर नहीं, लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी और घाट पर अपनी जगह बनाई। शादी के एक साल के भीतर-भीतर मैं घाट पर आकर बैठ गई। अभी तक तो मैंने ससुराल का रस लेना शुरू ही किया था। हाथों की मेहंदी छूटी ही थी कि मुझसे मेरे पति की परेशानी देखी नहीं गई। वे घर में कमाने वाले अकेले पुरुष थे।
पति को मुझे देखकर दया आती। घर में ससुर, पति और मैं… बस हमारी इतनी ही दुनिया थी। मेरी सास नहीं थीं। उनकी मेहनत देखकर मुझे खुद में मलाल होता कि मैं घर में बैठी हूं और पति इतनी मेहनत कर रहे हैं। मैं यह भी देख रही थी कि घाट पर इनके (पति) साथ बहुत राजनीति होती क्योंकि ये नाव चलाने वाले अकेले होते तो इनकी सवारियां दूसरे नाविक ले लेते। फिर पति स्वभाव में भोले रहे। ज्यादा चालूपंती नहीं है। इसलिए उनके इस स्वभाव का सभी लोग फायदा उठाते। ये सारी स्थितियां देखकर मैंने घाट पर आने की सोची। घाट का पहला दिन मुझे अच्छे से याद है। यहां मेरा स्वागत फूलों से नहीं गालियों से और थप्पड़ों से हुआ।
घाट पर आने पर मुझे झापड़ और गालियां दी गईं
दूर के रिश्ते में लगने वाले जेठ ने मुझे घाट पर आने पर बहुत गालियां दीं। मैं भी तब 18 साल की थी और नई-नई शादी हुई थी तब उन्हें ज्यादा कुछ कह नहीं सकती थी, लेकिन एक दिन हद हो गई। उन्होंने अपनी पत्नी से जाकर मेरी शिकायत की और उनकी पत्नी ने आकर मुझ पर हाथ उठा दिया। मुझे बेशर्म कहा जाने लगा। बस तभी से मैंने भी शर्म-लिहाज का घूंघट उतारकर रख दिया और बराबर की मारपीट की। पहली बार घाट के सभी पुरुषों ने मेरी ‘मुंह दिखाई’ की। मेरे एक कंधे पर मेरा एक साल का बेटा था, लेकिन उस महिला से मार नहीं खाई। उस दिन आरपार की लड़ाई हुई। घाट पर या तो मैं रहती या वे लोग, ये तय कर लिया। पुलिस आई, मामला सलट गया। एक वो दिन था और एक आज का दिन तब से लेकर आज तक किसी ने मुझसे उल्टे मुंह बात नहीं की। अब हम पति-पत्नी आराम से अपना काम करने लगे। पति एक नाव लेकर जाते तब तक मैं दूसरी नाव में दूसरे मल्लाह को बुलाकर बाकी सवारियां बैठा देती। इस तरह हमारी आमदनी बढ़ी।
बचपन से बिंदास और निडर थी
ऐसा नहीं है कि ससुराल में आकर अचानक से मुझमें दबंगई आ गई। मैं बचपन से बिंदास और निडर थी। मेरा जन्म सोनभद्र में हुआ। घर में एक भाई और तीन बहनों में मैं दूसरे नंबर पर, लेकिन सबसे ज्यादा समझदार और जिम्मेदार में ही थी। मुझे लड़कियों की तरह नखरे दिखाना या कमसिन कली बनना बिल्कुल पसंद नहीं रहा। पिता जी मिठाई का काम करते थे और मां घाट पर नाव का ठेका लेतीं। पिता जी गुजर गए और मां बूढ़ी हो गईं। घर की आर्थिक हालत और बिगड़ने लगी। मैं पांचवीं तक ही पढ़ पाई। मेरे ही सिर पर घर की सारी जिम्मेदारी आ गई। मां की जगह मैंने घाट पर जाना शुरू कर दिया। कभी-कभी कम पैसे मिलते तो कभी कमाई होती ही नहीं। ऐसे में बड़ी मुश्किलों से पेट पालना पड़ा। घाट पर भी पुरुषों की दबंगई रहती। एक बार ठाकुर-बामन से मैं झगड़ गई क्योंकि मेरी मजदूरी नहीं दे रहे थे। जब मुझे मेरे पैसे नहीं मिले तो मैं भी उन पुरुषों से डरी या घबराई नहीं। जितनी तेज आवाज में वो बोल रहे थे उतनी तेजी से मैं भी बोली। वो घबरा गए और मेरे पैसे मुझे दे दिए। इसके बाद से मुझे जैसे आदमी मिले मैंने उनके साथ वैसी ही बात की।
अब हूँ 6 नावों की मालकिन
मायके में बेशक कष्ट झेले लेकिन ससुराल में पति ने मेरी सारी ख्वाहिशें पूरी कीं। पहले थोड़ा मिला बाद में भगवान ने जरूरत से ज्यादा दिया। चार लड़के हुए। चारों को पढ़ाया। पति आज भी नाव का ही कारोबार करते हैं। नाविक हैं। पति बहुत अच्छे हैं। 18 साल की उम्र से नाव संभाल रही हूं। आज उम्र 60 है। आज 6 नावों की मालकिन हूं। इनमें से कुछ मोटर वाली हैं और कुछ चप्पू से चलने वाली। बहुएं हैं, पोतियां हैं, पोते हैं। सभी अपने काम में बेहतर तरीके से कर रहे हैं। चार बेटों में से दो बेटे अब इस दुनिया में नहीं रहे। बच्चे पढ़ाई लिखाई में व्यस्त हो गए। एक बेटे ने एमए तक की पढ़ाई की। बेटों के बाद भी नाव का काम मैंने ही संभाला।
खुद की कमाई से बनाया घर
नाव के कारोबार में आमदनी का कोई हिसाब नहीं है। कभी अच्छी कमाई तो कभी कुछ भी नहीं। आज सात पोतियां हैं और आगे उन्हें पढ़ाना है। दो मंजिला घर नाव के काम से और गंगा माई की कृपा से बना पाई हूं। मेरी आदत नहीं है हाथ फैलाने की। मैं दूसरों को देना पसंद करती हूं।
पुरुषों से घबराएं नहीं
पुरुषों से भरे घाटों पर अपनी स्थायी पैठ बना इतना आसान नहीं था। अब लगता है कि महिलाओं को अपने पुरुष की तरह कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। किसी पुरुष से उन्हें घबराना नहीं चाहिए। घाट को हरा-भरा और साफ रखना मुझे पसंद है। यही वजह है कि स्वच्छता प्रहरी से सम्मानित किया गया। क्षमेश्वर घाट की अध्यक्ष भी हूं।
(साभार – दैनिक भास्कर)

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