प्रेम सृष्टि का सनातन भाव है….हर घड़ी बदलने वाला मौसम नहीं

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फरवरी का महीना…आ चुका है…और 14 फरवरी भी आ रही है । आधुनिक युग का वेलेन्टाइन्स डे…और भारतीय संस्कृति का वसन्तोत्सव जो फाल्गुन के माह में रंग – रंगीला बनकर प्रेम के कई रंगों में सराबोर कर जाने वाला है। जब इतिहास पर नजर जाती है तो पता चलता है कि प्रेम नाम के शब्द को आधुनिकता के आडम्बर वाला चोला पहनाकर हमने कितना मटमैला कर दिया है । अहंकार, स्वार्थ और वासना की कलुषित भावना ने प्रेम शब्द की सौम्यता और पवित्रता पर ऐसा प्रहार किया है कि महज स्त्री – पुरुष के दाम्पत्य सम्बन्धों को ही प्रेम की परिभाषा में समेट दिया जाने लगा है । कहने का मतलब यह है कि स्त्री -पुरुष के प्रेम की अनिवार्य परिणति विवाह और शारीरिक सम्पर्कों के इर्द – गिर्द समेट ली गयी है जबकि ढाई अक्षरों का यह शब्द इतना व्यापक है कि स्वयं ईश्वर भी प्रेम के धागे में बंध जाते हैं..। स्थिति यह है कि ऐसे समय में अगर कोई सिंगल है तो युगल उसका मजाक उड़ाने से भी पीछे नहीं हटते जबकि प्रेम सम्बन्धों का यह हाल कर दिया गया है कि अब फ्रिज में उसके टुकड़े रखे जाने लगे हैं…क्या आप इसे प्रेम कहेंगे..और जो प्रेम है..तो इतनी क्रूरता कहाँ से आ जाती है…? नहीं, यह प्रेम नहीं है..प्रेम के नाम पर किया गया छलावा है, महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की वह जंजीर है जिसमें बंधकर व्यक्ति अपनी मनुष्यता, अपना विवेक सब कुछ भुला रहा है ।
तो फिर प्रेम का आदर्श क्या है…दूर क्यों जाना…अपनी संस्कृति में देखिए..भारत के कण – कण में प्रेम ही प्रेम है…हर रूप में…हर रंग में..प्रेम का अर्थ अपने व्यक्तित्व को समाप्त कर देना भी नहीं है…सच कहिए तो आखिर ऐसा कौन सा सम्बन्ध है जिसके लिए प्रेम की जरूरत नहीं है..? सबसे पहले खुद से प्रेम करना जरूरी है…यहाँ खुद से प्रेम करने का अर्थ आत्मकेंद्रित या स्वार्थी बनकर दूसरों का अधिकार मारना नहीं बल्कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ा होना है..अपने व्यक्तित्व का विकास करना है । प्रेम एक भाव है…जो किसी से भी बंध सकता है…प्रकृति से…देश से…अपने दोस्तों से…य़ा किसी भी ऐसे व्यक्ति से…जिससे आपकी आत्मा के तार जुड़े और जो आपके मौन को आपके कहे बगैर पढ़ने की क्षमता रखता हो…जो न आपके लिए खुद को बदले और न आपको बदलने पर मजबूर करे..। वस्तुतः एक दूसरे के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हो…बाधक न बने…राधा और द्रोपदी से कृष्ण का यही सम्बन्ध था और दोनों ने कृष्ण के व्यक्तित्व को अगर गरिमा दी तो कृष्ण ने भी यही गरिमा दी और उनका मान रखा….अपने हर एक सम्बन्ध में रखा…। प्रेम आपको सही राह पर ले जाता है बगैर किसी बंधन के…जैसे यशोधरा ने बुद्ध की तपस्या को एक दिशा तब दी जब उन्होंने अपना सर्वस्व राहुल बुद्ध को सौंप दिया..समाज कल्याण के लिए…। प्रेम गलत होने पर साथी का आँख मूंदकर साथ नहीं देता बल्कि वैसे ही राह दिखाता है जैसे रत्नावली ने तुलसीदास को दिखायी और तुलसी को उनके राम से मिलवाने का माध्यम बन गयी । प्रेम वह समानता है जो शिव एवं पार्वती के सम्बन्धों में है..तमाम लौकिक बन्धनों से दूर..कि शिव और शक्ति एक दूसरे के पर्याय हैं । प्रेम एक दूसरे के साथ चल देना है…समाज की बाधाओं से आगे जाकर अमृता और इमरोज की तरह एक दूसरे को स्वीकार कर लेना है और दूर मत जाइए अभी तो सब्यसाची और ओएन्द्रिला का उदाहरण हमारे सामने ही है…क्या आपको लगता है कि भारत में कम से कम किसी को प्रेम को समझाने की जरूरत है…प्रेम को तो हर रूप…लौकिक परिभाषाओं से आगे जाकर बगैर कोई शर्त रखे समझने की जरूरत है..विश्वास रखने की जरूरत है…मीरा की तरह….सूर की तरह…। अपनी महत्वाकांक्षाओं को प्रेम मत कहिए…अपनी वासना को प्रेम मत कहिए… प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए…प्रेम संरक्षण है, प्रेम सृष्टि का सनातन भाव है….हर घड़ी बदलने वाला मौसम नहीं ।

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