फिल्म समीक्षा : माई

एक दौर ऐसा था, जब अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरी और उनकी हेयर स्टाइल दोनों की काफी धूम थीं। उनकी फैन पद्मिनी कोल्हापुरी की तरह साइड में चोटी करती। उनके अभिनय का जादू सिर चढ़कर बोलता था। उनकी ‘वो सात दिन’, ‘प्रेम रोग’, ‘सौतन’, ‘प्यार झुकता नहीं, ‘प्यार के काबिल हो’ या फिर ‘स्वर्ग से सुंदर’ – इन सभी फिल्मों में पद्मिनी कोल्हापुरी का याद रखने लायक अभिनय है। बंबई में 01 नवंबर, 1965 को जन्मी पद्मिनी कोल्हापुरी महज सात साल की छोटी-सी उम्र में रूपहली दुनिया में आ चुकी थी। वह हर तरह के किरदार को खूबी जीती थी। उनकी ‘वो सात दिन’ अभी भी जेहन से नहीं उतरती। इस फिल्म में एक चुलबुली लड़की की भूमिका को पद्मिनी ने जीवंत बना दिया था। इसी तरह फिल्म ‘प्रेम रोग’ का किरदार आज भी नहीं भूलता। 1990 से 1995 तक उनकी फिल्मों ने काफी धूम मचाया। उसके बाद वह पर्दे से गायब हो गई। लेकिन, यूट्यूब खंगालने पर पता चलता है सिनेमा को पद्मिनी ने कभी अलविदा नहीं कहा, बल्कि वह आज भी सक्रिय हैं। कई सालों के अंतराल पर फिल्मों में अभिनय करती रहीं, लेकिन हाँ, उनकी फिल्मों की चर्चा ज्यादा नहीं हुई और बाक्स ऑफिस पर शायद उतना छा भी नहीं पायी। उसी के बाद 2012 में बनी और 2013 में रिलीज हुई ‘माई’ फिल्म के वीडियो पर मेरी नजर पड़ी। उसके स्क्रीन पर पद्मिनी, रामकपूर और गायिका आशा भोंसले जी दिखीं। अब इस फिल्म को देखने की इच्छा प्रबल हो गयी। देखने के पीछे तीन मुख्य कारण थे। पहला आशा जी 79 की उम्र में अभिनय की दुनिया में प्रवेश कर रही हैं। दूसरा बड़ा कारण बड़े अच्छे लगते हैं के रामकपूर को देखना सही में बहुत अच्छा लगता है और तीसरा सबसे मुख्य कारण पद्दिमनी कोल्हापुरी की फिल्म देखना बेहद पसंद है। इसके लिए मोबाइल को स्टैंड पर लगा कर, कान में इयर फोन लगाकर बैठ गई फिल्म देखने। वैसे आजकल शार्ट फिल्म, वेब सीरिज के जमाने में दो-ढ़ाई घंटे की फिल्म को देखना बहुत बड़ा काम है। वैसे यह फिल्म केवल पौने दो घंटे की ही थी।
चलिए, अब बात करते हैं इस फिल्म के बारे में। इस फिल्म का पहला सीन बहुत ही ऊर्जावान था। पद्मिनी कोल्हापुरी रसोई संभालकर ऑफिस जाने की तैयारी कर रही है। एकदम फिट। चुस्त दुरुस्त। घर, परिवार के साथ-साथ कार्यालय में भी कर्मठ कर्मचारी के रूप में दिखीं। आजकल की लड़कियों को टक्कर देता पहनावा और वैसा ही व्यक्तित्व। कहीं से उम्र उनपर हावी नहीं दिखा। फिल्म में केंद्र की भूमिका में आशा भोंसले दिखीं, जो माई के रूप में है। उनका अभिनय जीवंत रहा। फिल्म में वह बहुत मेहनत कर अपने बच्चों को संभालती, पढ़ाती हैं। लेकिन अब वह बूढ़ी हो चुकी है। बीमार है। उन्हीं इसी समस्या को लेकर फिल्म की कहानी लिखी गई हैं। और पूरी फिल्म इन्हीं के इर्द-गिर्द है। पति, पिता, दामाद के साथ-साथ एक अच्छे पत्रकार के रूप में दिखें रामकपूर। उनके अभिनय की क्या बात। वह सांक्षी तंवर हो या पद्दिमनी सब के साथ फिट हो जाते हैं। उनका हैंडसम लुक की क्या बात करूँ। बड़े अच्छे लगते हैं, करके तू भी मुहब्बत से ही उनको पसंद किया जा रहा है।
ऐसे बेटा-बेटी जो आज बूढ़े या बीमार माँ या पिता को अपने जीवन से अलग कर देना चाहते हैं। अपनी कामयाबी के लिए अपने परिवार में उनको जगह नहीं दे पाते हैं। उन्हें लगता है कि वृद्धा आश्रम ही उनके लिए सही जगह है। ऐसे बच्चों को यह फिल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए। वहीं दूसरी तरफ एक माँ और बेटी के प्यारे रिश्ते को भी दिखाया गया है। 2012 में बनी इस फिल्म में चित्रहार और बुधवार का भी जिक्र होकर उस समय की याद दिला दी। 10 साल पहले बनी इस फिल्म में दिखाई गई समस्या समाज में आज भी बरकरार है। निसंदेह यह समस्या बढ़ी ही है, इसलिए इस फिल्म की जरूरत आज भी बहुत है। पर अफसोस है कि ऐसी फिल्म को आज का युवा समाज देखना नहीं चाहता, इसलिए यह बाक्स ऑफिस पर अपना परचम नहीं लहरा सकी। फिल्म के गाने बहुत ही अच्छे हैं। आशा जी की मधुर आवाज कानों को बहुत अच्छी लगी। इस फिल्म के गाने ने मुझे बचपन की यादें दिला दी। इस फिल्म के निर्देशन का कार्यभार महेश कोडियार ने बखूबी किया है। यह उनकी पहली निर्देशित फिल्म है। फिल्म के एक प्रथम दृश्य से लेकर अंतिम दृश्य तक मैं उठ भी नहीं पाई। संगीत नितिन शंकर का है। मैं इस फिल्म को देखकर बोर तो नहीं महसूस की, लेकिन हाँ कई जगहों पर भावुक तो जरूर हो गई।

शुभजिता

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