बड़ाबाजार : यहाँ आग ही नहीं, उपेक्षा की राख में दबा सुनहरा गौरवशाली इतिहास भी है

बड़ाबाजार…कोलकाता के दिल का टुकड़ा…जो दिखता तो है इस टुकड़े को संवारना और समझना…दोनों ही अब तक शायद बाकी ही है। जब भी शहर के गौरवशाली इतिहास का जिक्र चलता है तो बड़ाबाजार का जिक्र…भीड़ भरी तंग गलियों और मुटिया – मजदूरों तक ही रुक जाता है। हकीकत यह है कि कोलकाता का इतिहास ही बड़ाबाजार के जिक्र से शुरू होता है….नहीं समझे….चलिए हम आपको बड़ाबाजार की तंग गलियों में छुपे इतिहास की ओर ले चलते हैं…और आज शुरुआत करते हैं…तंग गलियों वाले बड़ाबाजार के इतिहास से।

नीमतला में है दुर्गेश्वर महादेव यानी मोटा महादेव मंदिर…और यह वृहत्तर बड़ाबाजार का हिस्सा है

बूड़ो से से लेकर बड़ाबाजार बनने की यात्रा
बड़ाबाजार मतलब एक बड़ा बाजार…यह तो हिन्दी में हुआ मगर बांग्ला में इस नाम को लेकर एक और कहानी भी है..कहा जाता है कि यह बड़ा दरअसल ‘बूड़ो’ है जो बांग्ला में शिव का लोकप्रिय नाम है। कहा जाता है कि बूड़ो को बड़ा राजस्थान से आकर बसने वाले व्यवसायियों ने बनाया…और बूड़ो….बड़ाबाजार कहलाने लगा…मगर हमें और पीछे देखना होगा….जब यह इलाका सूतानाटी कहलाता था…सूतानाटी ही वह इलाका है जहाँ शहर कोलकाता के संस्थापक जॉब चारनक का पहला कदम पड़ा था…1690 में। सुरक्षा की दृष्टि से ही उन्होंने अपने लिए सूतानाटी को चुना था क्योंकि पश्चिम में यह नदी के कारण सुरक्षित था तो दक्षिण और पूर्व में दलदल था…इसलिए आसानी थी…सिर्फ उत्तरी इलाके को सुरक्षा की जरूरत थी। तब सूतानाटी, कलिकाता और गोविन्दपुर..ये तीन गाँव मुगलिया सल्तनत के लिए काफी खास थे जिसकी जमीन्दारी के अधिकार बरिशा के सवर्ण राय चौधरी परिवार के पास थे। 10 नवम्बर 1698 को जॉब चारनक के उत्तराधिकारी और दामाद चार्ल्स आयर ने इस परिवार से जमीन्दारी अधीग्रहीत कर ली। 1757 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी मुगलों को इन गाँवों के लिए नियमित तौर पर किराया दिया करती थी।

बड़ाबाजार यानी कलकत्ते का स्याह हिस्सा

कोलकाता की प्रगति से आशंकित नवाब सिराज उद दौला ने 1756 में कोलकाता पर आक्रमण किया और इसका नाम अपने दादा के नाम पर अलीनगर रख दिया…कोलकाता तब एक बार फिर 1758 में ही ब्रिटिशों द्वारा बंगाल पर कब्जा करने के बाद ही लौट पाया। तब सिराज उद दौला के आक्रमण से जो तबाही और नुकसान हुआ. वह अंग्रेजों को दिख नहीं सका मगर हकीकत यह थी कि गोविन्दपुर, कलिकाता, सूतानाटी और चितपुर में सिर्फ कलिकाता को नुकसान हुआ जिसे व्हाइट कलकत्ता कहा गया मगर बड़ाबाजार किसी भी बड़ी क्षति से बच गया…सिर्फ आग को छोड़कर। अंग्रेज विस्थापितों ने फाल्ता में 40 मील (64 किमी) इलाके में अस्थायी इलाका बनाया। ब्रिटिश शासन के शक्तिशाली बनने के पहले इस इलाके में सेठ और बसाक व्यवसायियों का साम्राज्य हुआ करता था,,और ब्रिटिशों के आगमन के बाद नये अन्दाज में ये परिवार फलने – फूलने लगे। जनार्दन सेठ ब्रिटिशों के व्यावसायिक एजेंट थे शोभाराम बैशाख (1690 -1773) ईस्ट इंडिया कम्पनी को कपड़े बेचकर लखपति बन गये।

चितपुर रोड

इसके पहले भी नाम आता है मुकुन्दराम सेठ का जो, 16 वीं सदी के आरम्भ में हुआ करते थे और सप्तग्राम से गोविन्दपुर आये थे। जब गोविन्दपुर नष्ट हुआ तो सेठ सूतानाटी हाट आ गये…जो आज का बड़ाबाजार है। जनार्दन सेठ सबसे महत्वपूर्ण नाम है जो कि केनाराम सेठ (इनको किरनचन्द्र सेठ भी कुछ लोग कहते हैं) के पुत्र थे और इनके दो भाई थे…बनारसी और नन्दराम। आप आज गंगाजल के बिकने से परेशान होते हैं तो हम आपको बता दें कि जनार्दन सेठ के पुत्र बैष्णवचरण सेठ का व्यवसाय ही था बोतलों में गंगाजल बेचना। शोभाराम बसाक के पुत्र राधाकृष्ण बसाक बंगाल के दीवान हुआ करते थे। 18वीं सदी में तब तक बड़े घराने सम्पत्तियों में निवेश करने लगे थे। शोभाराम बसाक ने अपने उत्तराधिकारियों के लिए 37 मकान रख छोड़े थे और राम कृष्ण सेठ ने सिर्फ बड़ाबाजार इलाके में ही 16 मकान छोड़े थे।

स्वदेशी आन्दोलन का पहचान गोविन्द भवन

समय बदला और 18 सदीं के मध्य में सेठ और बसाक का गौरवशाली साम्राज्य खत्म होने लगा…कोलकाता और बड़ा जो हो रहा था। इनके साथ ही सूतानाटी भी गायब होने लगी और इतिहास के पन्नों में खोती चली गयी। कहा जाता है कि शोभाबाजार राजबाड़ी के नवकृष्ण देव को सूतानाटी की तालुकदारी दी जाने वाली थी। सूतानाटी सस्कृति आज भी बंगाल के अभिजात्य समाज का प्रतीक है दो शहरी सामंती संस्कृति थी। सूतानाटी हाट से ही 18वीं सदी में आज के बड़ाबाजार के लिए रास्ता बना। तब यह बाजार 500 बीघा जमीन में फैला था और बाकी 400 बीघा में आवासीय इलाके थे। सेठ औऱ बसाक के अतिरिक्त यहाँ स्वर्ण का व्यवसाय करने वाले मलिक व अन्य घराने थे। आज के कलाकार स्ट्रीट में जिस इलाके को हम ढाकापट्टी कहते हैं यह ढाका के साहा कहे जाने वाले वस्त्र व्यवसासियों का घर हुआ करता था और सम्भव है कि ढाका शब्द इसी वजह से जुड़ा हो। इन व्यवसासियों का ढाका, मुर्शिदाबाद और कासिमबाजार से गहरा सम्पर्क था।

और फिर आकर बसा मारवाड़ी समुदाय

अब सवाल उठता है कि राजस्थान से मारवाड़ी समुदाय कब आकर बड़ाबाजार में बस गया तो मारवाड़ी समाज तो यहाँ 17वीं सदी से ही आने लगा था मगर इसके पहले अकबर के समय से ही राजस्थान के बाद व्यवसाय के विस्तार में यहाँ के लोग जुट गये थे। मुर्शिदाबाद मे हजारीमल का नाम आता है और परमानेंट सेटलमेंट के बाद इन्होंने जमीनें भी खरीदनी शुरू कर दीं। पोरवाल मारवाड़ी दुलालचन्द सिंह का नाम आता है जो ढाका में रहते थे और उन्होंने कई बाजार बनवाये।

राम मंदिर के नाम से विख्यात सेठ सूरजमल जालान बालिका विद्यालय जहाँ एक मंदिर और पुस्तकालय भी है

बाकरगंज, पटुआखाली औऱ कोमिलिया जिलों में ढाका के ख्वाजा की साझीदारी में इनकी सम्पत्ति थी और ये जूट का कारोबार भी करते थे। नवाब मीर कासिम ने सेना को फिर से उन्नत करने के लिए जगत सेठ से मदद माँगी थी और मदद नहीं मिली उनको मरवा भी दिया। 19वीं सदी में मारवाड़ी समाज का बंगाल आगमन और उनकी स्थिति, दोनों मजबूत हुआई। ताराचंद घनश्याम दास, बंसीलाल अबीरचंद, सदासुख गम्भीरचन्द, हरसुखदास, बालकिसनदास, कोठीवाल डागा, रामकिसन बागड़ी ने व्यावसायिक स्तर पर बंगाल से लेकर बांग्लादेश यानी तब के पूर्वी बंगाल में स्थिति मजबूत कर ली थी। जूट के कारबार पर इनका वर्चस्व था…आगे चलकर स्वाधीनता आन्दोलन में भी आर्थिक स्तर पर इस समुदाय ने सहयोग दिया और बूड़ो बाजार धीरे – धीरे आज का बड़ाबाजार बन गया। बड़ाबाजार में कई कटरे हैं…सदासुख कटरा. राजा कटरा….इनका भी अपना महत्व है…।

स्वाधीनता आन्दोलन से भी गहरा रिश्ता है बड़ाबाजार का

आज अग्निकांड ही बड़ाबाजार की पहचान बनाये जा रहे हैं

महात्मा गाँधी के स्वदेशी को जन – जन तक पहुँचाने में और समाज सुधार व सेवाकार्य के क्षेत्र में भी बड़ाबाजार के व्यवसायियों की बड़ी भूमिका है। स्वदेशी ही क्यों, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में भी बड़ाबाजार लगातार काम कर रहा है। आप जिन उद्योगपतियों के योगदान को खारिज करते आ रहे हैं, स्त्री शिक्षा और महिला सशक्तीकरण के पीछे उनका बड़ा योगदान है और यह पूरे देश में है। इस पर हम एक – एक करके बात करेंगे लेकिन हम कुछ नाम फिलहाल जरूर बताना चाहेंगे जिससे आपको अन्दाजा लगे…दुःख का विषय है कि इस इतिहास को सहेजने के लिए तत्परता की कमी है मगर है तो इतिहास ही, इसलिए हमारी तरफ से छोटा सा प्रयास इस श्रृंखला के रूप में हम ला रहे हैं। गोविन्द भवन, शुद्ध खादी भंडार से लेकर मारवाडी हॉस्पिटल या श्री विशुद्धानंद हॉस्पिटल हो या मारवाड़ी बालिका विद्यालय, माहेश्वरी बालिका व विद्यालय या श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, बड़ाबाजार लाइब्रेरी या सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय। हमें हैरत है कि इतिहास के इस सुनहरे अध्याय पर बात क्यों नहीं होती।

हो सकता है कि कोलकाता को जॉब चारनक ने बसाया हो मगर बड़ाबाजार को मारवाड़ी और बिहार – उत्तर प्रदेश समेत अन्य हिन्दीभाषी प्रदेशों के योगदान से ही बना है। हम यह नहीं जानते कि हर मारवाड़ी बड़ाबाजार में रहता है या नहीं मगर हम इतना जरूर जानते हैं कि बड़ाबाजार हर मारवाड़ी के दिल में रहता है क्योंकि प्रवासियों के इतिहास का बड़ा भाग बड़ाबाजार की इन तंग गलियों में रहता है। हकीकत फिर भी यही है कि किसी सरकार की नजर इस विरासत पर नहीं जाती और उन्नति के नाम पर पर स्थानान्तरण के बहाने खोजे जा रहे हैं। बड़ाबाजार आग लगने के लिए बदनाम है मगर यह कोई नहीं बताता कि यही तंग गलियाँ, यही कटरे आपकी अर्थव्यवस्था को आज भी धार दे रहे हैं। आज भी हर त्योहार की खरीददारी के लिए लोग बड़ाबाजार ही जाते हैं…फिर इसे सहेजने और विकसित करने की जगह स्थानान्तरण की बात क्यों सोची जा रही है…यह हमारी समझ के बाहर है।

आज भी पुराने कोलकाता में खड़ी विशाल राजप्रासाद उस पुराने वैभव की स्मृतियाँ ताजा करते हैं। आज बड़ाबाजार ही नहीं बल्कि बंगाल, कोलकाता और देश के विकास में भी मारवाड़ी समुदाय का अपना योगदान है…जिस पर हमारी बात होगी।

स्त्रोत साभार –

विकिपीडिया – सूतानाटी पेज 

बांग्लापीडिया – मारवाड़ी

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