बेहतरीन लेखिका और बेहद दिलकश कवयित्री ज्योत्स्ना मिलन

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डॉ. वसुन्धरा मिश्र

जानी मानी लेखिका ज्योत्स्ना मिलन का जन्म 19 जुलाई 1941 में मुंबई में हुआ था। 1965 में गुजराती साहित्य से एम.ए. तथा 1970 में अंग्रेजी साहित्य से एम.ए.किया। पिता वीरेंद्र कुमार जैन भी कवि और साहित्यकार थे। घर में प्राचीन ग्रन्थ, हिंदी और अंग्रेजी साहित्य सहज ही उन्हें उपलब्ध था। कई साहित्यिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से घर में आतीं थीं। उस समय जो भी लिखा जा रहा था उससे रुबरु होने का भरपूर अवसर उन्हें प्राप्त हुआ।
एक ओर पिता ने इनका पोषण किया तो माता ने पारंपरिक नीतियों से परिचय करवाया। वह उन्हें शिक्षा देतीं कि लड़की हो और तुम्हें वे सारे काम सीखने चाहिए जो घर चलाने के लिए जरूरी है। पिता लेखन और नौकरी में व्यस्त रहते और माँ चौदह सदस्य वाले परिवार को अकेली संभालने में । निःसंदेह इतने बड़े परिवार को अकेले संभालना संभव नहीं था, इसलिए बच्चों को भी अपनी अपनी भूमिका निभानी पड़ती थी।
इनके पति- विख्यात लेखक पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह हैं।
रचना-संसार : तीन उपन्यास, छह कहानी-संग्रह, दो कविता-संग्रह, ‘स्मृति होते होते’ (संस्मरण), ‘कहते-कहते बात को’ (साक्षात्कार) प्रकाशित।
स्त्रियों के संगठन ‘सेवा’ के मासिक मुखपत्र ‘अनसूया’ का छब्बीस वर्ष तक निरंतर संपादन;
इला भट्ट की स्त्री-चिंतन की पुस्तक ‘हम सविता’ का अनुवाद तथा संपादन; इला बहन के ही उपन्यास ‘लारीयुद्ध’ का अनुवाद। गुजराती से राजेंद्र शाह, निरंजन भगत, सुरेश जोशी, लाभशंकर ठाकर, गुलाम मोहम्मद शेख, प्रियकांत मणियार, पवनकुमार जैन की कविताओं एवं कहानियों का अनुवाद।
रामानुजन तथा धारवाडकर द्वारा संपादित ‘दि ऑक्सफोर्ड एंथोलॉजी ऑफ इंडियन पोइट्री’, आरलिन जाइड द्वारा संपादित ‘इन देयर ओन वॉइस’, साहित्य अकादेमी की काव्यार्धशती, ल्यूसी रोजेंटाइन द्वारा संपादित ‘न्यू पोइट्री इन हिंदी’, सारा राय द्वारा संपादित हिंदी कहानी संकलन ‘हेंडपिक्ड हिंदी फिक्शन’, स्वीडिश में प्रकाशित भारतीय कविता संचयन में रचनाएँ संकलित।
‘घर नहीं’ (कविता-संग्रह): ‘अ अस्तु का’ (उपन्यास) और ‘खंडहर और अन्य कहानियां’ (कहानी – संग्रह) इत्यादि उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से उनकी रचनाएं प्रकाशित व प्रशंसित हुई थीं । अपने इस बहु-आयामी लेखन कर्म में उन्होने दो कविता संग्रह – ‘घर नहीं’ और ‘अपने आगे-आगे’, दो उपन्यास – ‘अपने साथ’ और ‘अ अस्तु का’. चार कहानी संग्रह – ‘चीख़ के आर-पार’, ‘ख़ंडहर’ तथा अन्य कहानियां, ‘अंधेरे में इंतज़ार’ और ‘उम्मीद की दूसरी सूरत। इसके साथ हीं वे अनेक मानद सम्मानों से सम्मानित भी हुईं थीं ।
वर्ष 1985-86 के लिए म.प्र. सरकार की मुक्तिबोध फेलोशिप; वर्ष 1996 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की सीनियर फेलोशिप। वे स्त्रियों के संगठन ‘सेवा’ के मासिक मुखपत्र ‘अनसूया’ की संपादक भी थीं। उन्हें महिलाओं के उत्थान तथा उनसे जुड़े संवेदनशील मुददों को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त करने में महारत हासिल था।
1951-52 के मध्य ज्योत्स्ना मिलन ने पहली कविता लिखी, जो कि हिंदी में थी ।बाद में वह हिंदी और गुजराती दोनों में समान रूप से लिखती रहीं।
एक साक्षात्कार में वे कहती हैं – हम लोग गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाके-वागड़ के रहने वाले थे पहले वागड़ गुजरात में था, वर्तमान में राजस्थान में है ।लेकिन मज़े की बात यह है कि हम दोनों भाषाओं पर अपना हक मानते हैं। यों भी मेरी पूरी शिक्षा गुजराती माध्यम से हुई थी। बापूजी के कवि होने से हिंदी में भी मेरी सहज गति थी। कई सालों तक दोनों भाषाओं में लिखा था, अब सिर्फ हिंदी में लिखती हूँ, कभी-कभी अपनी हिंदी कहानियों का गुजराती में पुनर्लेखन करती हूँ।

किसी भी कवि के लिए वह क्षण अलौकिक सा होता है जब उसे यह अनुभूति हो कि वह कवि हूँ। उनको कवि होने का एहसास तब हुआ जब एक शाम उनमें एक चकित सी करती हुई पंक्ति कौंधी, जो अन्य कविताओं से अलग थी। उनके जीवन में ‘कविता’ ने अपनी जगह तभी बना ली थी। जीवन के उतार-चढ़ाव में भी लेखन का साथ कभी नहीं छूटा।विख्यात लेखक रमेशचन्द्र शाह से विवाह के बाद उनकी कर्मभूमि भोपाल ही रही। वह अपने हर काम में ‘परफेक्शन’ को पसंद करतीं थीं, यहाँ तक कि विभिन्न दायित्यों के निर्वहन में भी। फलस्वरूप अन्य रचनाकारों के मुकाबले उनकी रचनाओं की संख्या कम ही रही। तमाम दायित्वों को सदैव पूर्णता के साथ ही निभाते हुए चलती रहीं और चलते-चलते 3 मई 2014 को इस दुनियांँ को ही छोड़कर चलीं गईं, हमेशा के लिए।
हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका ज्योत्स्ना मिलन स्त्रीवादी लेखन के बरक्स ‘मात्र लेखक’ होना पसंद करती हैं। उनका मानना है सबसे पहले तो लेखक लेखक होता है, स्त्री या पुरूष या कोई भी वादी-नारीवादी, जनवादी, प्रगतिवादी, रूपवादी, दलितवादी आदि जो कुछ भी होता है वह बाद में होता है। कोई भी लेखक जब लिखता है तो वह यह याद रख कर नहीं लिखता कि मैं अमुकवादी हूं इसलिए मुझे इन इन चीज़ों के बारे में लिखना चाहिए और इस तरह से लिखना चाहिए। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं कवि शमशेर बहादुर सिंह। उनकी श्रेष्ठ कविताओं में उनकी विचारधारा या वाद का कोई अंतःसाक्ष्य नहीं मिलता। किसी भी रचना का रचना की कसौटी पर रचना के तौर पर खरा उतरना ज़रूरी है।इस अर्थ में किसी भी लेखन को लेखन और किसी भी लेखक को लेखक होना चाहिए स्त्री या पुरूष नहीं। यह नहीं कि स्त्री-पुरूष के लेखन में फर्क नहीं होता। चीज़ों को देखने का स्त्री का नज़रिया अलग होता है, उसके लेखन में इन्ट्यूशन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।बुद्धितत्व भी अक्सर इन्ट्यूशन के माध्यम से सक्रिय होता है।स्त्री – पुरुष के जटिल संबंध के बीहड़ में उतरने वाली ज्योत्स्ना मिलन की की कहानियां ” बा”,” धड़ बिना चेहरे का”, और संभावित रुकना – – पढ़ने लायक हैं।

उनका मानना है कि स्त्रीवाद जैसी किसी चीज़ का अस्तित्व इस धरती पर है या नहीं, इसका कोई संबंध लेखन से है या नहीं, मालूम नहीं लेकिन इससे उनके लेखन में क्या छूटा क्या कमी रही, पता नहीं। बचपन से ही ज्योत्स्ना को घर में साहित्य का वातावरण मिला था, घर में तमाम तरह की पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं, बापूजी के छोटे से पुस्तकालय में हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगला की कई सारी पुस्तकें थीं। वैसे तो सभी लेखकों के यहाँ किताबों का भंडार होता है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि सभी रचनाकारों के बच्चे इसी वजह से लेखक बनते हों। यह ठीक है कि घर में अपने आसपास इन सब चीज़ों का होना और साहित्यिक वातावरण का मिलना भी एक अहम् तत्व है लेकिन उतना ही पर्याप्त नहीं है।
उनका मानना है कि उनका जन्म वीरेंद्रकुमार जैन के घर यों ही तो नहीं हुआ है। मुझे शब्द का वरदान मिला हुआ था. क्या वह वीरेंद्रकुमार जैन की देन थी या मेरी अपनी कमाई? या ऊर्जा का खेल भर था, पता नहीं.
उनके मुताबिक शब्द की कला से ऊपर कुछ भी नहीं हो सकता ध्वनि का, अर्थ का, दृश्य का, खेल का सब कुछ का मज़ा एक साथ! स्त्री होने का अनुभव एक गहरा और संपूर्ण अनुभव मानती हैं, चाहे स्त्री का जीवन जितनी भी जहालतों से, ज़्यादतियों से घिरा क्यों न हो! स्त्री स्वयं प्रकृति है, इसलिए सृजन उसका स्वभाव धर्म है और उसका जीवन एक रचनारत जीवन है।
सामाजिक अन्याय और अत्याचार को लेकर वे उत्तेजित हो जाती थीं लेकिन ख़ुद अपने लिए कुछ हासिल करने की तमन्ना या कुछ न मिल पाने का शिकवा उनके स्वभाव का हिस्सा कभी नहीं रहा।
उनकी शख़्सियत की एक बेहद ख़ूबसूरत बात यह थी कि उम्र के सालों की गिनती उनके संदर्भ में बेहद बेमानी थी. हिंदी सहित्य के विराट रूप लेखक सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय या फ़िर निर्मल वर्मा के साथ बैठे बैठना और या फिर नवीन सागर, उदयन वाजपेयी, राम कुमार तिवारी जैसे साहित्यिक, ज्योत्सना जी दोनों ही बार सिर्फ एक दोस्त नज़र आती थीं। न वे किसी से बड़ी थीं और न किसी से छोटी। छोटे से क़द की यह औरत हर वक़्त तेज़ कदमों से आगे बढ़कर हर फ़ासले को छोटा बना देती थीं। चेहरे पर जब चश्मा लगा होता तो अकेले होंठ मुस्कराकर एक ख़ुशनुमा अहसास से भर देते थे।
उनका घर अंदर से बहुत खुशनुमा और शांतिप्रिय था, वहाँ रिश्तों के बीच कोई फ़ासला न था. न मकानों का, और न हिजाबों का. उस एक घर के दरवाज़े के पीछे चार लोग होते थे – रमेश चन्द्र शाह, ज्योत्सना जी, शम्पा और राजुला.
इनके परिवार की यह एक ख़ूबी रही है कि राजनैतिक और सामाजिक मसलों पर सहमति और असहमति पर एक दूसरे से खुलकर बात कर लेते मगर न कभी आवाज़ें ऊँची होतीं और न किसी चेहरे पर तनाव रह जाता।
शाह साहब और ज्योत्सना जी के बीच ही नहीं बल्कि दोनों बेटियों के बीच भी एक अद्भुत सामंजस्य हमेशा बना रहा। इस सामंजस्य की तुला को हमेशा ज्योत्सना जी ही थामे हुए लगती थीं।
ज्योत्सना मिलन की रचनाओं से – – –
संस्मरण– “है अभी कुछ और अज्ञेय” में अज्ञेय जी के विषय में व्यक्तिगत रूप से कुछ बातें जानना हो तो यह संस्मरण बहुत ही रुचिकर और प्रेरणादायक है। संस्मरण की कुछ पंक्तियां – – – –
“अज्ञेय जी मानसिक थकान को उतारने के लिए वे कई तरह के शारीरिक काम करना पसंद करते – – जैसे मिट्टी की या चीनी मिट्टी की चीजें बनाते (पॉटरी) करते , जूते बनाते, बुनाई करते, बागवानी करते, फोटोग्राफी करते, अपने और इला के कपड़े डिजाइन करते, पकवान सहित सादा खाना भी कभी-कभी बनाते। ”
कहानी – -” ऊपर से यह भी” की कुछ पंक्तियां –
” मैं उसे जानने लगी तब से यह पहला मौका था जब चुप्पी हमारे बीच आकर हनुमान जी की पूँछ की तरह बैठ गई थी कि हटा दो जिससे बने। वह हिलने का नाम नहीं ले रही थी। हालाँकि एक दूसरे को जानने का अभी एक छोटा-सा दौर ही गुजरा था हमारे बीच। बल्कि तो दौर कहलाने लंबा भी वह नहीं था। मुश्किल से दो – तीन दिन लंबा दौर। ”
कविता – -” औरत” की कुछ पंक्तियाँ – –
‘प्यार के क्षणों में
कभी-कभी
ईश्वर की तरह लगता है मर्द औरत को
ईश्वर – – ईश्वर की पुकार से
दहकने लगता है उसका समूचा वजूद
अचानक कहता है मर्द
देखो मैं ईश्वर हूँ
और औरत देखती है उसे
और ईश्वर को खो देने की पीड़ा को बिलबिलाकर
फेर लेती है – अपना मुँह’।
ज्योत्सना की हर रचना एक भिन्न कथ्य, शिल्प, भाषा और स्वरूप में दिखाई पड़ती है जो उनकी विशिष्टता है। अपनी इसी बेहतरीन इंसानी सिफ़त के साथ ही साथ या फिर इसी सिफ़त की बदौलत ही एक बेहतरीन लेखिका और बेहद दिलकश कवयित्री के तौर पर कामयाब रही हैं।
उनकी अनुपस्थिति में उनकी रचनाएँ साहित्य जगत को प्रेरित करती रहेंगी ।
डॉ. वसुंधरा मिश्र, कोलकाता

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