बौद्ध धर्म : समाज कल्याण हेतु स्वस्थ और आत्मविश्लेषित धर्म 

– डॉ. वसुंधरा मिश्र

गौतम बुद्ध के जन्म से बुद्धत्व प्राप्ति तक उन्हें बोधिसत्व कहने की प्रथा बहुत प्राचीन है। पालि वाङमय के सुत्तनिपात में बोधिसत्व के रूप में ही बुध्द के जन्म की बात आई है – – –
“सो बोधिसत्तो रतनवरो अतुल्यो।
मनुस्स लोके हित सुखाय जातो।
सक्यानं गामे जनपदे लुंबिनेय्य ।”
अर्थात् श्रेष्ठ रत्न जैसे उस बोधिसत्व ने लुंबिनी जनपद में शाक्यों के गांव में मानवों के हित सुख के लिए जन्म लिया।
बुद्ध का जन्म और उनके द्वारा चलाए गए धर्म का उत्थान कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। बुद्ध और उनकी विचारधारा उस युग में व्याप्त कर्म कांड, हिंसा युक्त यज्ञ के आडंबर और पुरोहित वाद के विरुद्ध आवाज थी जो उपनिषदों और गीता से चली आ रही थी। उस युग में वेद और उपनिषद् पढ़ने का अधिकार शूद्रों को नहीं था, उन्हें यह अधिकार भी न था कि ब्राह्मणों की तरह यज्ञ आदि कर लोक और परलोक में सुख भोगने की योग्यता प्राप्त कर सकें। तत्कालीन समाज कहा जाय तो बौद्धिक संकट का सामना कर रहा था। जनसाधारण के सामने यज्ञ आदि ही प्रमुख धर्म थे जिनसे उन्हें दूर रखा जाता था, जो साधारण लोगों की पहुँच से दूर था। उपनिषदों का भारी भरकम ज्ञान, विभिन्न मत मतांतर, अतिभोग में लिप्तता, स्वार्थ परता, पशु बलि जैसे विषयों से दूर समाज को एक व्यवहारिक धर्म की आवश्यकता महसूस हो रही
थी। एक स्वस्थ्य समाज शस्त्र रहित, पशु हिंसा रहित और कर्म कांड रहित हो तो समाज बहुत हद तक स्वतंत्रता और सहजता महसूस करे। ऐसे ही सड़े गले और रुढ़ी वादी विचारधारा पर अड़े रहना समाज को अवनति और पतन के मार्ग पर ले जाता है। बुद्ध युगीन सामाजिक बुराइयों से समाज को बचाना चाहते थे। बुद्ध क्रांतिकारी विचारक और समाज सुधारक रहे।
बोधिसत्व के गृह त्याग के क्या कारण रहे? इसकी कई कथाएं मिलती हैं परंतु इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् बुद्ध ने अत्त दंड सुत्त में इस प्रकार दिया है—-
“अत्त दण्डा भयं जातं, जनं पस्सथ मेधकं ।
संवेगं कित्त यिस्सामि यथा संविजितं म्या।।
फंदमानं पजं दिस्वा मच्छे अप्पोदके यथा।
अञ्जयञ्ञेहि व्यारुद्धे दिस्वा मं भयभाविसी
समंतम सरो लोको दिसा सब्बा समेरिता।
इच्छं भवनमत्तनो नाद्दसासिं अनोसितं।
ओसाने त्वेव व्यारुद्धे दिस्वा में अरती अह। ”
अर्थात शस्त्र धारण भयावह लगा। यह जनता कैसे झगड़ती है देखो। मुझमें संवेग या वैराग्य कैसे उत्पन्न हुआ यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी में जैसे मछलियां छटपटाती हैं वैसे ही एक दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे अंतःकरण में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखाई देने लगा। सब दिशाएँ कांप रही हैं ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भर स्थान नहीं मिला, क्योंकि अंत तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।
इस तरह के सुत्त किस अवसर पर कहे गए इसपर बहुत से संदर्भ हैं लेकिन यह सच है कि शस्त्र आदि ग्रहण करना समाज के लिए शत्रुता का प्रतीक है। इस शस्त्र ग्रहण से क्या लाभ? यही न, अंत तक झगड़ते रहो? इस सशस्त्र प्रवृत्ति मार्ग से बोधिसत्व ऊब गए और इसलिए उन्होंने शस्त्र निवृत्ति मार्ग को स्वीकार किया।
अहिंसा को परम धर्म मानने वाले बुद्ध और बुद्ध के अनुयायियों में मांसाहार को लेकर बहुत से प्रसंग हैं। वैसे परिनिर्वाण के दिन बुद्ध भगवान् ने चुंद लुहार के घर में सूअर का मांस खाया था। इस बात की चर्चा करने की आवश्यकता है।
बुद्ध ने परिनिर्वाण के जो पदार्थ खाया था उसका नाम “सूकर मद्दव” था। उस पर बुद्ध घोषचार्य ने अपनी टीका में इसका वर्णन करते हुए कहा है कि कई कहते हैं कि सूकर मद्दव मृदु, स्निग्ध और उत्तम प्रकार का सूअर मांस है, कोई कहते हैं पंचगोरस से बनाया हुए मृदु अन्न का नाम है जैसे गवपान एक विशेष पकवान का नाम है। किसी का कहना है ‘सूकर मद्दव’ एक रसायन था और रसायन के अर्थ में उस शब्द का प्रयोग किया जाता है चुंद ने भगवान् को वह इसलिए दिया कि जिससे भगवान् का परिनिर्वाण न होने पाए। इस टीका में सूकर मद्दव का मुख्य अर्थ सूकर मांस ही किया गया है तथापि बुद्ध घोषचार्य इस अर्थ से सहमत नहीं थे।
“उदान अट्ठ कथा” में सूअर द्वारा कुचले हुए बांस का अंकुर और कुकुरमुत्ता माना है। “अगुत्तरनिकाय” में पंचकनिपात में प्रमाण मिलता है कि बुद्ध भगवान् सूकर का मांस खाते थे। उग्ग गहपति ने भगवान् से आग्रह किया कि भदंत बढ़िया सूअर का यह उत्कृष्ट ढंग से पकाकर तैयार किया हुआ है। मुझ पर कृपा कर इसे ग्रहण करें।
इसी प्रकार महावीर भगवान् पर भी मांसाहारी होने के कई संदर्भ मिलते हैं जो विविध कथाओं में मिलते हैं। श्रमण संस्कृति से निःसृत बौद्ध और जैन धर्म भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं।उनके प्रयत्नों से गोमांसाहार का निषेध होता गया फिर भी बहुत समय तक ब्राह्मणों में मांसहार का निषेध होने में बहुत सी शताब्दियां लगी। याज्ञवल्क्य आदि के कई संदर्भ मिलते हैं।
प्रथमतः यह युक्ति निकाली गई कि यज्ञ के लिए दीक्षा लेने वाला गोमांस न खाएं। प्राणियों की हिंसा के विरुद्ध प्रचार करने वाला पहला ऐतिहासिक राजा अशोक था। उसके पहले शिलालेख में लिखा मिलता है कि यज्ञ या मेले में प्राणियों की बलि और हत्या नहीं होने दी जाएगी। उसमें गाय – बैलों का उल्लेख नहीं मिलता। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि ब्राह्मण और दूसरी उच्च जातियों में भी गोमांसाहार लगभग बंद हो गया था।
भगवान् बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण से पहले अपने शिष्य आनंद को कहा था कि चुंद लुहार पर किसी प्रकार का भी अभियोग न लगे। उसको तो बोलना कि तुम्हारी दी गई भिक्षा से तो बुद्ध को परिनिर्वाण प्राप्त हुआ, तुम्हारा दान तुम्हारे लिए लाभदायक रहा। अतः तथागत से सुना कि पहली वह भिक्षा जिससे तथागत को संबोधि ज्ञान प्राप्त हुआ और दूसरी भिक्षा से परिनिर्वाण मिला। चुंद के कृत्यों को गलत मत ठहरा कर उसके दौर्मनस्य को नष्ट करो।
भगवान् बुद्ध ने अपने युग की कई सामाजिक और धार्मिक बुराइयों का निषेध किया जो सामाजिक, धार्मिक असंतुलन और असंतुष्टता उत्पन्न कर रही थीं। उन्होंने आत्मवाद को छोड़कर अपना दर्शन सत्य की नींव पर खड़ा किया। अतः उनके श्रावक मार के जाल में नहीं फंसे। बुद्ध ने मध्यम मार्ग पर ही जोर दिया जो आज भी प्रासंगिक है। स्वस्थ्य विचारधारा से प्रेरित है, आत्मविश्लेषित धर्म है।
एक बार वैशाली में बुद्ध धर्म और संघ की स्तुति हो रही थी। उस समय लिच्छवि के सिंह सेनापति को गौतम से मिलने की इच्छा हुई। उसने भगवान् से पूछा कि भदंत क्या यह सच है कि आप अक्रियावादी हैं और श्रावकों को आप अक्रियावाद सिखाते हो। भगवान् ने कहा कि कि जो ऐसा समझते हैं गलत सोचते हैं। भगवान् ने कहा कि यह एक पर्याय ऐसा है कि जिससे सत्यवादी मनुष्य कहते हैं कि श्रमण गौतम अक्रियावादी हैं। वह पर्याय कौन सा है? हे! सिंह, मैं कायदुश्चरित वाक्दुष्चरित और मनोदुष्चरित की अक्रिया का उपदेश देता हूँ। मैं क्रिया वादी हूँ पर कायसुचरित, वाक्सुचरित और मनसुचरित की क्रिया का उपदेश देता हूँ। मैं लोभ, द्वेष, मोह सभी पापकारक मनोवृत्तियों के उच्छेद का उपदेश देता हूँ। काय, वाक् और मनो के दुष्चरित से घृणा करता हूँ। लोभ, द्वेष और मोह के विनाश का उपदेश देता हूँ। पाप कारण अकुशल धर्म जिसके नष्ट हो गए हैं, मेरी दृष्टि में वही सच्चा तपस्वी है।
बुद्ध ने कर्म कांड के विरोध में स्वयं के विकास पर जोर दिया । एक स्वस्थ जीवन से जुड़े धर्म का अन्वेषण किया और “अप्प दीपो भव” का उपदेश सूत्र दिया। अर्थात अपना दीपक स्वयं बने। कोई भी किसी के पथ के लिए सदैव मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही हम सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। भगवान ने स्पष्ट किया कि तुम्हे अपने ही पैरों पर चलना है। अपनी रोशनी स्वयं बनो।

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