विश्व की प्राचीनतम लिखित भाषा है संस्कृत, जिसे कहते हैं ‘देववाणी’

अनेक भाषाओं की जननी है यह भाषा

मोदी सरकार के विभिन्न कीर्ति-स्तंभों में से एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) का एक महत्वपूर्ण बिंदु है भारतीय संस्कृति की महान परंपराओं और विरासत को सहेजना। इस महान थाती की सबसे बड़ी वाहिका है भारतीय संविधान के आठवें अनुच्छेद में उल्लिखित भाषा संस्कृत, जिसमें पिछले कम से कम पांच हजार वर्षों से निरंतर लेखन होता आ रहा है। संस्कृत में न केवल हिंदू, बौद्ध, जैन आदि के प्राचीन धार्मिक ग्रंथ लिखित हैं, बल्कि इसमें साहित्य, संस्कृति व ज्ञान-विज्ञान परक लगभग तीन करोड़ पांडुलिपियां मौजूद हैं। यह संख्या ग्रीक और लैटिन की पांडुलिपियों की कुल संख्या के सौ गुना से भी ज्यादा है।

संस्कृत जिसे देववाणी भी कहते हैं, विश्व की प्राचीनतम लिखित भाषा है। आधुनिक आर्यभाषा परिवार की भाषाएं- हिंदी, बांग्ला, असमिया, मराठी, सिंधी, पंजाबी, नेपाली आदि इसी से विकसित तो हुई ही हैं, दक्षिण भारत के तेलुगु, कन्नड़ एवं मलयालम का भी संस्कृत से गहरा नाता है।

माना जाता है कि इन भाषाओं की लगभग 80 प्रतिशत शब्दावली संस्कृत से आई है। और तो और, तमिल बनाम संस्कृत की राजनीति करने वालों को भी प्रतिष्ठित तुलनात्मक भाषाविज्ञानी प्रो. थॉमसबरो के शोधकार्य लोनवड्र्स इन संस्कृत (1946) और कलेक्टेड पेपर्स ऑन द्रविड़ियन लिंग्विस्टिक्स (1968) के बारे में जानना चाहिए। प्रो. थॉमसबरो के अनुसार संस्कृत के हजारों शब्द किंचित परिवर्तनों के साथ तमिल भाषा में मिल चुके हैं, इसी तरह संस्कृत ने बड़ी संख्या में तमिल से शब्द ग्रहण किए हैं। संस्कृत की इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए ही बाबासाहेब आंबेडकर का मानना था कि संस्कृत पूरे भारत को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने में सक्षम होगी। उन्होंने संविधान सभा में इसे भारत की राजभाषा बनाने तक का प्रस्ताव दिया था।

संस्कृत एक तरफ हमें प्राचीन जड़ों से जोड़ती है तो दूसरी तरफ इसमें समकालीन और भविष्य की जरूरतों को भी साकार करने की संभावना है। नई शिक्षा नीति (एनईपी) का एक महत्वपूर्ण बिंदु है- स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के विभिन्न प्रोग्राम में भारतीय भाषाओं को शिक्षण माध्यम के रूप में अधिकाधिक समाहित करने के प्रयास किए जाएंगे। इन आधुनिक कार्यक्रमों-पाठ्यक्रमों में पठन-पाठन सामग्री के लिए पारिभाषिक शब्दावलियों की जरूरत पड़ेगी। इस कार्य में संस्कृत बहुत मददगार साबित होगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं की कड़ी संस्कृत से पारिभाषिक शब्दावली निर्माण करने से इन भाषाओं के ज्ञान-विज्ञान की सामग्री में एकरूपता भी आएगी।

संविधान के अनुच्छेद 351 का भी यही अप्रत्यक्ष संदेश है। हालांकि यह d अनुच्छेद हिंदी के लिए है, जिसमें प्रमुख रूप से संस्कृत से पारिभाषिक शब्दावली लेने का निर्देश है। आज संस्कृत का ज्ञान इसलिए भी जरूरी है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान जैसे आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, निर्माण कला अथवा वैदिक गणित आदि के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक रूप सामने आ सके। संस्कृत ज्ञान के अभाव में यूरोपीय ही नहीं भारतीय इतिहासकारों तक ने प्राचीन काल की अनेक चीजों की व्याख्या में अर्थ का अनर्थ कर दिया है। इसके अतिरिक्त भविष्य की प्रौद्योगिकी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए भी संस्कृत को बहुत उपयोगी माना जा रहा है।

संस्कृत में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है, अर्थ बदलने की संभावना भी बहुत कम होती है। जैसे- राम: गृहं गच्छति अथवा गच्छति गृहं राम: दोनों ही सही हैं। सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण भी इसकी श्रेष्ठता सर्वस्वीकृत है। पिछले दिनों गूगल ने संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाने की घोषणा की है। हमारे इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने भी संस्कृत सहित विभिन्न भाषाओं में अनेक सॉफ्टवेयर विकसित किए हैं।

अंत में, किसी भी समाज- राष्ट्र की प्रतिष्ठा में उसके गौरवशाली अतीत की भी बड़ी भूमिका होती है। सर्वे भवन्तु सुखिन: एवं वसुधैव कुटुम्बकम् के उद्घोषकर्ता भारत के इस महान अतीत को प्रकाशित करने का दायित्व संस्कृत का ही होगा। यह अनायास नहीं कि स्कूली से लेकर उच्च शिक्षा तक में संस्कृत को समाहित करने की एनईपी में परिकल्पना है, क्योंकि सही अर्थों में संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि एक पूरी संस्कृति है, एक दृष्टि है, जिसमें विश्व कल्याण की कामना है।

(साभार-दैनिक जागरण)

निखिता पांडेय