संगीत को शोर से मुक्त करना ही है लता जी के प्रति वास्तविक श्रद्धा

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फरवरी का महीना शुरू हो चुका है। वसन्त पंचमी के साथ ही वसन्त का आगमन हो चुका है मगर इस बार माँ सरस्वती अपने साथ अपनी सुर साम्राज्ञी पुत्री और हमारी भारत रत्न लता मंगेशकर को भी ले गयीं। जब यह पँक्तियाँ लिखी जा रही हैं तो मन में विषाद है, दुःख है और गर्व भी है। हम सौभाग्यशाली हैं हम लता जी के युग में जीये, उनके गीत सुनकर बड़े हुए। रफी, मुकेश और किशोर की जुगलबंदी जितनी खूबसूरती से लता जी की आवाज के साथ होती रही, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। लता दीदी भारत की आवाज थीं, एक संघर्ष भरा बचपन जीया और जब वह नहीं हैं तो एक ऐसी विरासत छोड़कर गयी हैं जिसे सहेजना औऱ सम्भालना आज के कलाकारों की जिम्मेदारी है मगर इससे भी बड़ी जिम्मेदारी आम जनता की है जो संगीत और शोर के अन्तर को समझे।

एक तरफ लता दीदी की अंतिम यात्रा और दूसरी तरफ अश्लील, फूहड़ और द्विअर्थी गीत की फौज खड़ी है और यही तो माता सरस्वती का अपमान है। तमाम देवियों को पंडाल में रखकर एक से एक भद्दे गीत बजाकर कौन सी पूजा होती है, यह तो समझना किसी के वश की बात नहीं है। सोचने वाली बात है कि जिन गीतों में आप अपनी बहन – बेटियों की कल्पना नहीं कर सकते, वैसे गीत आप किसी और की बेटी के लिए कैसे लिख सकते हैं, गा सकते हैं…आज तो स्थिति यह है कि भोजपुरी छोड़िए…किसी भी भाषा को लें…अश्लीलता का राक्षस हर जगह है,….माता सरस्वती से यही प्रार्थना है कि कि एक बार फिर उतरें और अश्लीलता के महिषासुर का वध करें जिससे सृष्टि की रक्षा हो सके…। लता जी को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि हम संगीत के वास्तविक स्वरूप को समझें, प्रसार करें और संगीत को शोर से मुक्त करें। स्वर कोकिला को नमन।

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