संघर्षशीलों का सम्बल बनें, तभी देवी की आराधना सफल होगी।

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देवी पक्ष का आगमन हो रहा है और मातृ शक्ति की आराधना के लिए हम सब तैयार हैं। देखा जाये तो उत्सव का यह वातावरण बहुत प्रिय लगता है। स्त्री की शक्ति का अनुभव होता है, गर्व होता है मगर यथार्थ से टकराव होता है…बस मन सोच में पड़ जाता है। आखिर किस दृष्टि को सच माना जाये? देखा जाये तो स्त्री आगे तो बढ़ी ही है..हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रही है मगर उसके संघर्ष भी उतने ही बढ़े हैं। स्त्री की उपलब्धियों को स्वीकारना, उसे सम्मान देना तो समाज सीख ही नहीं पा रहा है। पुरुषों की छोड़िए, आज ही नहीं, बल्कि हमेशा से स्त्रियाँ ही स्त्रियों की राह में पत्थर डालती आ रही हैं। पितृसत्ता पहनावा नहीं है, एक भयानक विचार है..जो वैचारिक स्तर पर बहुत खतरनाक है और आज इसका कुप्रभाव हमें आस – पास दिखाई भी पड़ रहा है। तन स्वतन्त्र होवे स्वतन्त्रता की तड़प का होना जरूरी है, आज पितृसत्ता को पोषण देने वाली स्त्रियों के कारण संघर्षशील सबल स्त्री की लड़ाई कहीं अधिक कठिन हो गयी है। स्त्री को ईर्ष्या, द्वेष से भरी अनचाही प्रतियोगिता के बीच अनायास खड़ा कर दिया गया है। उसकी आधी शक्ति तो इन प्रतियोगिताओं से जूझने में समाप्त हो रही है। कल्पना कीजिए कि ऐसी प्रतियोगिता अगर सृष्टि बनाने वालों के बीच होती तो सृष्टि की क्या स्थिति होगी। एक सामन्जस्य , तारतम्य और एकता होना बहुत जरूरी है स्त्री सशक्तीकरण के लिए…पीछे मुड़कर अपनी पूर्वजाओं से सीखने की जरूरत है। अपने क्षुद्र स्वार्थ से आगे बढ़कर संघर्षशील स्त्रियों का सम्बल बनें, तभी देवी की आराधना सफल होगी।

शुभजिता के स्तम्भ ऐ सखी सुन अपने 50 अंक पूरे कर चुका है। स्तम्भ लेखिका प्रो. गीता दूबे का आभार और आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन।

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