सिर्फ त्याग, समर्पण और सेवा के लिए ही तो नहीं बनी लड़कियाँ….

सखी सुन 20

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, इन दिनों एक खबर अखबार की सुर्खियों में है और‌ टी. वी. के परदे पर भी छाई हुई है, जिसने देश‌भर को हिलाकर रख दिया है। यू ट्यूब के सनसनीखेज़ चैनलों पर‌ इससे‌ जुड़ा अपडेट हर एक घंटे में सनसनाता हुआ जारी होता है, भले ही उसमें कुछ‌ भी नया हो या ना हो। खैर उनकी बात रहने देते हैं क्योंकि उनके लिए तो हर खबर कमाई का सबब है, वह हत्या या बलात्कार की खबर हो या किसी की आत्महत्या की।

प्रो. गीता दूबे

कुछ खबरें ऐसी होती है जो देर तक नहीं दिनों तक दिल -दिमाग को मथती रहती हैं, बेचैन किए रहती हैं। ऐसी ही एक खबर है, सुर्खियों में छाई, आयशा की खुदकुशी की खबर। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के चंद दिनों पहले अगर हमारे देश में एक महिला इसलिए आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाए कि उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जा रहा था या फिर इसलिए कि उसका वह पति जिससे वह बेइंतहा मोहब्बत करती थी, उसने किसी और के इश्क का नगमा गुनगुनाना शुरू कर दिया है तो बेहद- बेहद तकलीफ होती है। और इसके पीछे हमारी वह परवरिश काम करती है जिसमें लड़की को यह ज्ञान घुट्टी में पिलाया जाता है कि उसकी जिंदगी का असली मकसद शादी करना और पति को परमेश्वर मानकर उसकी पूजा करते हुए जिंदगी गुजार देना‌ है। उसे सिखाया ही जाता है कि वह डोली पर बैठकर ससुराल जाती है तो वह उसकी अंतिम विदाई होती है और वहाँ से मायके, वह मेहमान की तरह दो- चार दिन के लिए भले आ जाए लेकिन खराब से खराब स्थिति में भी हमेशा के लिए कभी लौटकर नहीं आ सकती। साथ ही यह भी सिखाया जाता है कि पति की प्यारी सबकी प्यारी होती है और पति के दिल तक पहुँचने के हजार रास्ते उसे बताए‌ या सुझाए जाते हैं। और अगर इसके बावजूद वह पति देवता का मन नहीं जीत पाई तो उसकी कद्र न ससुराल में होती है न मायके में। शायद इसीलिए स्त्री जीवन के केंद्र में हमेशा पुरुष रहा, कभी वह भाई की लंबी उम्र के लिए मंगलकामना करती है तो कभी पति और पुत्र के लिए ‌व्रत- उपवास रखती है। हाँ, वह स्वयं अवांछित और उपेक्षित ही रहती है। न उसके जन्म का उत्सव मनाया जाता है ना उसकी जिंदगी को अहमियत दी जाती है। एक समय पूरी हिंदी पट्टी में यह कहावत प्रचलित थी, “बिन ब्याही बेटी मरे और ठाढ़े ऊख बिकाय” अर्थात बिन ब्याही बेटी की मृत्यु उतनी ही लाभदायक होती है जितनी ऊख या गन्ने की खड़ी फसल का बिक जाना। और जब माँ -बाप के लिए ही बेटी का मरना -जीना कोई मायने नहीं ‌रखता तो सात फेरों और‌ चंद कसमों -वायदों की कवायद के बाद उसी अवांक्षित लड़की का मालिक बना पति अगर उससे यह कहता है कि “मरती है तो मर जा” तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर हमने अपनी बेटियों को यह सीख दी होती कि वे हमारे लिए अनमोल हैं तो‌ शायद‌ वह भी अपनी कीमत समझतीं। यह अहसास तो उन्हें हमने ही कराया कि उनकी जिंदगी का कोई मोल‌ नहीं। वे तो बस त्याग, समर्पण और सेवा के लिए ही बनी हैं।

आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी अगर लड़कियों को इन्हीं मूल्यबोधों की थाती सौंपी जाती है, उनके लिए सारे दरवाजे बंद रखे जाते हैं और पढाई -लिखाई करके अपने पैरों पर खड़े होने के बावजूद अगर उन्हें पति पर‌ निर्भरता का पाठ पढ़ाया जाता है तो उन लड़कियों का क्या कसूर जो पति को किसी और स्त्री के प्रति अनुरक्त देखकर सारे जगत को अंधकारमय समझकर, आत्महत्या के लिए प्रवृत्त हो जाती हैं‌। जिस दहेज प्रथा के खिलाफ न‌ जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी गईं, उनके खिलाफ कानून बना, वह आज भी समाज का अनिवार्य अभिशाप बनी हुई है। पहले खुलेआम मांगा जाता था, आज फेरों से पहले धरवा लिया जाता है ताकि दहेज- विरोधी की छवि भी कायम रहे और‌ दहेज के सामानों से घर भी भर जाए। क्यों नहीं पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर लड़कियों के माता -पिता दहेज देकर विवाह करने का विरोध करते हैं और लड़कियाँ भी क्यों नहीं यह दृढ़ निश्चय करतीं कि उस व्यक्ति से विवाह के सूत्र में नहीं बधेंगी जो दहेज की शर्त सामने रखता है। लेकिन ऐसा होगा कैसे, उस समाज में, जहाँ यह माना जाता है कि जो परिवार‌ या लड़का दहेज की मांग नहीं रखता उसमें जरूर कोई ना कोई कमी होगी। प्रगतिशीलता तो सिर्फ मंचों तक सीमित हो कर रह गई है, जिसके अनुसार आप जोर- शोर से दहेज विरोध के नारे लगाइए और‌ अवसर मिलने पर स्वयं दहेज लेने से पीछे मत हटिए।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा समाज पाखंड की जंजीरों में जकड़ा हुआ है और जब तक ऐसा रहेगा, इस तरह की मर्मभेदी घटनाएं घटती रहेंगी। इसलिए जरूरत है कि हम अपनी बेटियों से प्यार करें, उन्हें बोझ मत समझें। उनके जीवन का मोल जब हम समझेंगे तब दूसरे खुद ब खुद‌ समझ जाएंगे। उन्हें सिखाएं कि वे अपने लिए जीवन जीना सीखें। दूसरों से‌ प्रेम करने का पाठ तो हम न जाने कब से पढ़ाते‌ रहे हैं, त्याग की देवी बनाकर न जाने कब से चुपचाप अन्याय सहना सिखाते रहे हैं। अब जरूरत इस बात की है कि उन्हें खुद‌ से  प्रेम करना भी सिखाएं। जब वे खुद अपनी कद्र करना सीख जाएंगी तो किसी व्यक्ति के द्वारा नकारे जाने पर जिंदगी से मुँह नहीं मोड़ लेंगी। कोई अगर मरने की चुनौती देगा तो वह अपनी जान खुद नहीं लेंगी बल्कि पूरे हौसले से जिंदगी जीकर दिखा देंगी।

सखियों, आयशा जैसी मासूम बेटियों के दर्द को भी पहचानने की जरूरत है और उसकी दवा ढूंढने की भी। सामयिक तौर पर दुख प्रकट करने मात्र से हमारी जिम्मेदारी खत्म नहीं  हो जाती। जरूरत है, अपनी सोच को बदलने की। लड़की को एक लड़की की तरह नहीं बल्कि एक मुकम्मल इंसान की तरह पालेंगे, उसे जिंदगी को ढोना नहीं, पूरे हुलास के साथ जीना सिखाएंगे तो वह अपनी कीमत समझेगी और शायद खुदकुशी करने से पहले सौ बार सोचेगी। यह काम हम सबको मिलकर करना है, सखियों। आइए , नयी शुरुआत करें, इस कविता के साथ-

“बेटियों को जीने दो

देखने दो सपने।

पंख पसार

उड़ने दो,

विस्तृत नीले नभ में।

ढूंढ लेंगी

अपना ठिकाना

बना लेंगी

खुद अपना आशियाना

बस, उन पर‌ रखो

थोड़ा सा भरोसा।

बेटियों को जीने दो

हँसने, मुस्करने दो

ठहाके लगाने दो।

मत लगाओ बंदिशें

मत खींचों लक्ष्मण रेखा

खुद ही लिख लेंगी,

अपना इतिहास

बस, रखो उन पर

थोड़ा सा भरोसा।

 

शुभजिता

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