स्त्री पर तीन कविताएं

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विद्या भंडारी

स्त्री -1

आज घर में सन्नाटा था
शीशे के सामने खङी रही देर तक।
शीशे ने कहा-
देख ले जी भर आज स्वयं को
छोङ दे चूल्हा-चौका ,रोटी,डस्टिंग
जी ले, जी भर।
क्यो दिया है तेरा नाम स्त्री
तू तो व्यक्ति है जीता-जागता।
देखो ना–
तुम्हारे भीतर जल रही है
साहस की लौ।

सच!
नहीं जीया तुमने जीवन
अपने लिए।
कहाँ था समय
शीशे में देखने का,
सोचने का।

शीशे से पलटना
नहीं था गंवारा।
शीशा भी चिपका रहा,
मै भी खङी रही
खङी रही
शीशे के सामने।

………

स्त्री-2

लङकी जब तब्दील
होती है किताबों की
जिंदगी से गृहिणी में,
आटा-दाल से
सम्बंध जोङ कर
बचत का हिसाब लगाना
साङी बांधना,
पल्लू सम्हालते हुए रोटी बेलना
चूडियों और पायल के
बंधनों से बंधना ।
नये सम्बंध और संबोधनों को
दिनचर्या का हिस्सा बनाना ।

कितना मुश्किल है
नये संबंधों को
पल्लू से बांधना
और विसंगतियों में जीना।

किन्तु-
प्यार के रस में
डूबने की आशा में
आँख मूँदकर
करती रहती है समझौते ।

बीते समय का
बहुत कुछ रह जाता है
अनबोला-
जब लङकी
किताबों की जिंदगी से
गृहिणी में तब्दील होतीहै।

…..

 

स्त्री-3

यदि पढना चाहते हो मुझे
तो पढो कोमल आखों से
जैसे पढ़ी जाती है
गीता शुद्ध भावों से ।

छूना चाहते हो मुझे
तो छुओ चिङिया के कोमल बच्चे को पकड़ने की अदा से ।
छुओ जैसे छूती है हवा
धीरे से फूलों को,
जैसे छुआ जाता है तुलसी को
कोमल हाथों से ।

बस,ऐसे ही कोमल हाथों से
कोमल आखों से
कोमल भावों से पढो मुझे ।

मेरा कहा-अनकहा पढो।
पढो मेरे भाव-अभाव।
पढो तल्लीन हो कर ।

 

 

 

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