इतिहास की नजर से इतिहास को देखती एक किताब

हम भारतीय अगर किसी चीज को गम्भीरता से नहीं लेते तो वह हमारा इतिहास है। ऐसे में अपनी ऐतिहासिक विरासतों को हम कितनी गम्भीरता से लेते हैं, यह भी जाहिर है मगर इतिहास के प्रति आम आदमी को जागरुक करने में बड़ी भूमिका होती है किसी पुरात्वविद की। वह सच पर से परदा उठाता है और धरोहरों को सहेजता है। राजनीति और धर्म के घालमेल के बीच इस देश में यह काम कितना मुश्किल है और जोखिम भरा है, यह बात समझ आती है जब हम के के मुहम्मद की किताब मैं हूँ भारतीय पढ़ते हैं। लेखक के अनुसार मार्क्सवादी विचार के प्रख्यात इतिहासकारों का सामना भी उनको करना पड़ा है और इस क्रम में हैरतअंगेज तरीके से जो नाम सामने आता है, वह प्रो. इरफान हबीब का है। हबीब और मुहम्मद के तीखे मतभेदों की कहानी इस किताब में है और लेखक ने तो हबीब को षडयंत्रों का आचार्य तक कह डाला है। मुहम्मद ने बाबरी मस्जिद समस्या को एक साम्प्रदायिक समस्या के रूप में प्रचारित करने के लिए हबीब को आड़े हाथों लिया है तो हिन्दुत्ववादियों की बुद्धिहीनता को कोसने से भी नहीं चूके हैं। मुहम्मद को मुगल भारत में पहले ईसाई चर्च की खोज करने का भी श्रेय प्राप्त है। जिन्दगी में गुजरे रास्ते, मिले हुए लोग, किये गये यज्ञ, किताब का सार भी यही है। वह बताते हैं कि अपने कार्यकाल में हिन्दू और मुस्लिम चश्मे से अपने काम को नहीं देखा और अप्रिय सत्य कहते रहे इसलिए वे किसी के प्रिय न हो सके। मुहम्मद को उनकी माँ मुसलियार यानी एक प्रकार का मुस्लिम धार्मिक पुरोहित बनाना चाहती थीं। आप दुर्लभ मूर्तियों के बेचने के गोरख धंधे के बारे में जान पाते हैं। आपको पता चलता है कि भारत में 10 लाख में बिकने वाली मूर्ति अमेरिका में जाकर 10 करोड़ की हो जाती है। मुहम्मद कहते हैं, हमारे पुराणों और इतिहास में बताए गए महत्वपूर्ण क्षेत्रों का उत्खनन करके इतिहास की सच्चाई सामने दिखाने में विलम्ब हो गया है। हस्तिनापुर, मथुरा जैसे इलाकों की स्थिति शोचनीय है। मुहम्मद ने वैशाली में केसरिया स्तूप का पता लगाया। इतिहास के राजनीतिक दुरुपयोग पर बात करते हुए वे बताते हैं कि किस तरह सारनाथ के बौद्ध स्तूप को लेकर उन पर राजनीतिक दबाव डाला गया। इसी प्रकार ताज कॉरिडोर में मायावती के कुछ अफसरों ने दबाव डाला। वे ताज परिसर में 200 से अधिक व्यापार समुच्चय बनाना चाहते थे मगर तब आगरा परिमण्डल के अधीक्षण पुरात्वविद के रूप में मुहम्मद ने इसकी अनुमति नहीं दी। इसी मामले पर तत्कालीन भाजपा – मायावती सरकार गिरी भी थी।

लेखक इस सन्दर्भ में आदिवासियों की भूमिका की प्रशंसा करते हैं जहाँ उन्होंने 100 से अधिक मंदिरों का जीर्णोद्धार किया। डाकुओं की मदद से वटेश्वर मंदिर को दोबारा सँवारा गया। इस मामले में उन्होंने ज्योतिराजे सिन्धिया और यशोधरा राजे सिन्धिया के सहयोग की सराहना की है। बात जब दिल्ली के पुराने किले की आते है तो हमें मुहम्मद के माध्यम से पता चलता है कि इस किले की ध्वनि व प्रकाश प्रस्तुति में इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख ही नहीं है जबकि महाभारत कालीन धूसर मृतभांड इस किले में मिलते हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे पास शिव और गंगा की नगरी काशी का मह्त्व बताने वाला एक भी सँग्रहालय नहीं है क्योंकि हम इतिहास को इतिहास की तरह नहीं देखते बल्कि एक साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के साथ देखते हैं। मुहम्मद एक बड़ी बात कहते हैं, -प्रतीकों को हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई कहकर बाँट देना इतिहास के साथ भद्दा मजाक है। बाबरी मस्जिद प्रकरण में वे वामपंथी इतिहासकारों को लेकर सवाल उठाते हैं जिन्होंने उग्रपंथी मुस्लिम गुट की मदद करते हुए बाबरी मस्जिद नहीं छोड़ने को कहा। मुहम्मद के मुताबिक 15 दिसम्बर 1990 को उन्होंने बयान दिया कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर के अंशों को उन्होंने खुद देखा है। कुल मिलाकर यह किताब उन तमाम पहलुओं को उठाती है जिनसे मुहम्मद खुद गुजरे हैं, जिनको यह कहने में गुरेज नहीं कि भाजपा सरकार के समय में ऐतिहासिक स्थलों तथा इमारतों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया। मुझे लगता है कि एक पुरात्वविद कहीं अधिक निष्पक्षता के साथ चीजों को देखता है क्योंकि वह उसका ध्येय है माध्यम नहीं। किताब में तस्वीरों के माध्यम से मुहम्मद द्वारा ऐतिहासिक इमारतों की कायापलट दिखायी गयी है, उनकी उपलब्धियाँ भी हैं। मतभेद अपनी जगह हैं मगर कई रहस्यों को यह किताब खोलती है।। इस किताब से गुजरना एक अच्छा अनुभव रहा। ऐसी किताबें लिखी भी जानी चाहिए और पढ़ी भी जानी चाहिए।
मैं हूँ भारतीय
के के मुहम्मद
प्रभात प्रकाशन

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