ऐ सखी सुन – शादी -ब्याह जिन्दगी का निर्णय है, अंतिम विकल्प नहीं

प्रो. गीता दूबे

भाग – 6

सभी सखियों को मेरा नमस्कार। इसी हफ्ते तुलसी विवाह था और उसी दिन से चौमासे में सोए हुए हमारे देवगण अपनी सुख निद्रा से जाग जाते हैं और सारे रूके हुए शुभ कामों की शुरुआत हो जाती है जैसे शादी- ब्याह आदि। अब भला शादी- ब्याह से अधिक शुभ काम कौन सा हो सकता है, सखियों। खासकर स्त्रियों का जीवन तो शादी के बिना अधूरा माना जाता है। बहुत सी स्त्रियों के लिए विवाह जीवन का एकमात्र विकल्प है। जिस जमाने में लड़कियाँ कैरियरिस्ट या महत्वाकाँक्षी नहीं होती थीं, उस समय से लेकर आज भी बड़ी संख्या में लड़कियाँ विवाह को ही कैरियर या जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानती हैं। बचपन से ही उन्हें विवाह का सपना दिखाया जाता है और किशोरावस्था की दहलीज़ पर पाँव रखते ही वे विवाह की प्रतीक्षा में जिंदगी काटने लगती हैं। मुझे उस समय की एक घटना याद आती है जब मैं स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष की छात्रा थी, वर्ष था 1992। एक दिन कक्षा में प्राध्यापक महोदय ने सब का परिचय पूछते हुए सबसे  यह प्रश्न भी पूछा कि “आप लोग स्नातकोत्तर की पढ़ाई क्यों कर रहे हैं ?” सब के अलग-अलग उत्तर थे लेकिन एक उत्तर ने प्राध्यापक को ही नहीं कक्षा के कुछ एक छात्रों को भी विचलित कर दिया। वह था, मेरी एक सहपाठिनी द्वारा दिया गया उत्तर। उसने कहा- “सर, शादी नहीं हो रही है इसलिए समय काटने के लिए एम. ए. में एडमिशन ले लिया है।” हालाँकि उसने यह बात मुस्कराते हुए मजाकिया लहजे में कही थी लेकिन इसके बावजूद अध्यापक निशब्द थे और हम में से कुछ विद्यार्थी भी जिनके लिए पढ़ना जिंदगी जीने की तरह ही जरूरी था और जो अपने आस- पास के परिवेश और समाज की रूढियों के खिलाफ बगावत करके हुए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे। एक बात कहूँ सखी, भले ही हम बात- बात में अपने आधुनिक होने की दुहाई देते हुए कहते रहें कि समय बहुत बदल गया है लेकिन गहाई से समाज का अध्ययन करने पर साफ दिखाई देता है कि कुछ बातों, मान्यताओं या स्थितियों में आज भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। अब भी बहुत सारी लड़कियाँ किसी विशेष स्कूल या कॉलेज में इसलिए भेजी जाती हैं ताकि किसी अच्छे परिवार में उनका विवाह हो सके। लेकिन इसका एक अच्छा पहलू यह है इस बहाने वह पढ़ -लिख जरूर जाती हैं। हमारे समाज की बनावट ही ऐसी है कि यह मान्यता हमारे दिमाग में घर बनाकर बैठी है कि विवाह के बिना किसी का भी जीवन अधूरा रहता है। मैं यह नहीं कहती सखियों कि विवाह आवश्यक नहीं है लेकिन इतना जरूर है कि वह जीवन का अंतिम सत्य या विकल्प बिल्कुल नहीं हो सकता। इन्हीं मान्यताओं के कारण हमारे समाज की बहुत सी पढ़ी-लिखी लड़कियाँ, जिनके दिमाग में यह बात कूट -कूटकर भर दी जाती है कि विवाह ही जीवन का अंतिम सत्य है और उन्हें किसी भी हालत में इसे उसने बिखरने से बचाए रखना है, अपनी सारी ऊर्जा इस निरंतर  क्षरणशील संस्था को बचाने में लगा देती हैं, भले ही इस पूरी प्रक्रिया में वह खुद अपनी जान से ही हाथ क्यों ना धो बैठें। पिछले वर्षों में समाज में कई ऐसे उदाहरण दिखाई दिए हैं जब अपने बिखरते हुए वैवाहिक जीवन को बचाने की कोशिश में लड़कियाँ मानसिक अवसाद का शिकार हो जाती हैं और तदुपरांत विभिन्न शारीरिक रोगों का शिकार होकर हताशापूर्ण जीवन जीती हैं या फिर स्थितियों को न सुधार पाने के अवसाद के कारण आत्महत्या करने को विवश होती हैं। 

सखियों, मुझे लगता है कि वह समय बीत गया जब लड़की की हर इच्छा, हर अरमान विवाह तक के लिए डाल दिए जाते थे। याद कीजिए, प्रेमचंद के उपन्यास “गबन” की वह घटना जब जालपा की मां बिसाती वाले से अपने लिए चंद्रहार खरीदती है और बिटिया जालपा के जिद ठान लेने पर उसे यह कहकर बहला देती है कि उसके लिए चंद्रहार तो उसका दूल्हा लाएगा। उसी दिन से जालपा चंद्रहार की प्रतीक्षा में अधीरता से विवाह के दिन गिनती है और चढ़ावे में चंद्रहार न पाकर घोर निराशा में डूब जाती है। हमारे समाज में अक्सर लड़कियां जब भी अपनी माँ या पूरे परिवार के सामने कोई मांग रखती हैं तो उन्हें यह कह कर टाल  दिया जाता है कि “यह सब अपनी शादी के बाद करना या अपने घर में जाकर करना।” लेकिन क्या यह रवैया सही है ? जब जन्म देने वाले माता पिता ही अपनी बेटी की इच्छाओं का सम्मान नहीं कर सकते तो एक पराए परिवार या अपरिचित व्यक्ति पर उसकी इच्छाओं का भार क्यों डाला जाए। सखियों, इस बदलते समय के साथ हमें भी अपनी सोच को बदलने की जरूरत है। अगर मेरी बात ठीक लगे तो मैं इतना जरूर कहना चाहूंगी कि लड़का हो या लड़की, हम सबकी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हम पढ़ा लिखा कर उन्हें इतना सक्षम अवश्य बनाएँ कि वह अपने सपनों का भार खुद उठा सकें, अपनी आकांक्षाएँ खुद पूरी कर सकें। उसके लिए उन्हें किसी पर निर्भर रहने या किसी का मुँह तो ताकने की जरूरत ना पड़े। सखियों, आइए यह शपथ लें कि अपने बच्चों को पढ़ा- लिखा कर एक सजग नागरिक बनाएंगे, विवाह के बाजार में बिकने या खरीदे जाने वाला सामान नहीं। उन्हें यह सीख देंगे कि विवाह जीवन का एक अहम निर्णय अवश्य है लेकिन अंतिम विकल्प कभी नहीं है, उसके बिना भी जिंदगी मुकम्मल हो सकती है। इसलिए अपने सपनों को विवाह की प्रतीक्षा में टालने के बजाय उसे अपने सामर्थ्य के अनुसार पूरा करने और जीने का हौसला रखें। विदा सखियों । आप से अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी।

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।

One thought on “ऐ सखी सुन – शादी -ब्याह जिन्दगी का निर्णय है, अंतिम विकल्प नहीं

  1. Kusum jain says:

    सखी गीता, सही कहा। हमारे समाज में आज 21वीं सदी में भी अधिकांश लड़कियाँ शादी को ही जीवन का एकमात्र विकल्प मानती हैं। उनके माता-पिता भी तब तक निश्चिंत नहीं होते जब तक कि बेटी का विवाह न हो जाए। और इसलिए विवाह के बाज़ार में लड़कों के माँ-बाप लड़कों की बोली लगाते हैं। यहाँ तक कि पढ़ी लिखी लड़कियाँ जो अच्छा कमा रही हैं, उनमें भी अधिकांशतः शादी को ही जीवन का पहला और अंतिम विकल्प मानती हैं और शादी के बाद अच्छा भला कैरियर छोड़ देती हैं। समाज की ज्वलन्त समस्या को कलम की धार से उखाड़ दूर करने की, ऐ सखी, मनोकामना पूरी होगी। आज नहीं तो आने वाले कल में। कलम की धार यूँ ही बनी रहे

Comments are closed.