कभी क्रांतिकारियों का गढ़ था, अब खंडहर है ‘जनता के राजा’ का महल

वेलिंग्टन स्क्वायर….जब यह जगह याद आती है तो याद आते हैं हर साल सर्दियों में आने वाले तिब्बत, हिमाचल के वह चेहरे जो ऊनी कपड़ों का व्यवसाय करने के लिए कुछ महीने यहीं रह जाते हैं। ये जो उद्यान है..वहाँ होती है दुर्गापूजा…और विरोध – प्रदर्शन करने वालों के लिए तो यह अति प्रिय जगह है मगर ठीक इसके पीछे…..है एक जर्जर प्रासाद..जो कभी अपनी भव्यता पर गर्व करता होगा…आज अपनी आँखों में आँसू लिये अतीत को याद करता है…प्रासाद के भीतर पत्ते…हैं..सूखा कुआँ है…है तो बहुत कुछ मगर इस प्रासाद रूपी जर्जर इमारत को सम्भालने वाला होकर भी नहीं है…
यह जर्जर विशाल इमारत कभी क्रांतिकारियों की शरण स्थली थी और इसके संस्थापक थे राजा सुबोध मलिक या सुबोध चन्द्र बसु मलिक। इसी मकान में आते थे अरविन्द घोष। कई दिनों तक यहाँ रहे भी। कहने को तो हेरिटेज है मगर आसपास अतिक्रमण देखकर इस बात पर विश्वास करना कठिन है। लाल रंग की इस इमारत की दीवारें अब मटमैली हो चली हैं।

प्रवेश द्वार के भीतर जाते ही यह दिखता है

घर 1883-84 में बनाया गया था। यह अब एक मान्यता प्राप्त विरासत भवन है। सुबोध चंद्र मल्लिक के चचेरे भाई घर में एक भागीदार थे और उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को अपना हिस्सा दान कर दिया था मगर एक कार्यवाहक ने दावा किया कि यह हिस्सा उसका था। मामला आज नहीं सुलझा, कलकत्ता विश्वविद्यालय को घर का कब्जा नहीं मिला। वृक्षों के जाल से ढकी इस इमारत के बीच दरवाजा खोलकर हम अन्दर गये तब भी यही कहा गया कि बगैर अनुमति के प्रवेश नहीं मिल सकता। किसी तरह हम अन्दर गये तो अन्दर जो दिखा, वह धरोहरों से प्रेम करने वाले किसी भी व्यक्ति का दिल दुखाने वाला ही दृश्य था। घर को लेकर मामला अभी तक चल रहा है और मामला जब तक नहीं सुलझता, तब तक कलकत्ता विश्वविद्यालय चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। जो निशानियाँ है,.एक – एक करके टूट रही हैं, खत्म हो रही हैं। अलबत्ता सामने संगमरमर की यह शिला बताती है कि यहाँ अरविंद आया करते थे और यहाँ एक लम्बा समय उन्होंने गुजारा। आस – पास के लोगों के लिए यह भवन किसी राजा का ही है, राजबाड़ी है मगर वह राजा कौन था, यह बहुत कम लोग बताते हैं…राजा किवदंती जो होता है मगर वे यह नहीं जानते कि सुबोध चन्द्र बसु मलिक को राजा की उपाधि किसी सरकार से नहीं मिली बल्कि जनता ने उनको यह उपाधि दी।

यह प्लाक साक्षी है इतिहास का

सुबोध चन्द्र मलिक का जन्म कोलकाता के पटलडांगा में प्रबोध चन्द्र बसु मलिक के घर हुआ था।। सेंट जेवियर्स कॉलेज और प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढ़ाई की और इसके बाद कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में 1900 में फाइन आर्ट्स की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया। पढ़ाई पूरी करने के बाद इंग्लैंड से भारत लौटे और स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ गये। तब वेलिंग्टन में स्थित उनका यह आलीशान घर क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया। मलिक बंगाल के उन दिग्गजों में शामिल रहे जिसने 1906 में नेशनल काउंसिल फॉर एडुकेशन की स्थापना में सक्रिय योगदान दिया। इस काउंसिल का उद्देश्य उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रपरक शिक्षा का प्रसार करना था। मलिक ने बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना के लिए 1 लाख रुपये दिये और इस दान के कारण जनता ने उनको राजा की उपाधि दी। नेशनल काउंसिल ऑफ एडुकेशन यानी बांग्ला में जातीय शिक्षा परिषद 15 अगस्त 1906 को 191/1 बऊबाजार स्ट्रीट से शुरू हुआ था। यही वह भवन है जहाँ से बंग भंग आन्दोलन को दिशा मिली। वे कांग्रेस के उग्र दल से जुड़े थे।

कभी ऐसा रहा था यह भवन

जादवपुर विश्वविद्यालय का इतिहास बताता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना स्वदेशी आन्दोलन से किस प्रकार जुड़ी है। 1905-06 का दौर था और ब्रिटिश आधिपत्य चुनौती दी जाने लगी थी। शिक्षा प्रतिरोध का माध्यम बन रही थी और राष्ट्रवाद से जुड़ रही थी और एन सी ई या जातीय शिक्षा परिषद का उद्भव इसी भावना का प्रतिफलन था।
इसका प्राथमिक उद्देश्य विशेष रूप से राष्ट्रीय नियंत्रण में राष्ट्रीय तर्ज पर शिक्षा – साहित्यिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रदान करना था। शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भरता प्राप्त करना। एनसीई की नींव का विभूतियों ने डाली थी। विद्वानों के साथ-साथ आर्थिक सहयोग देने वाले भी थे। इन लोगों में शामिल थे राजा सुबोध चंद्र मल्लिक, गौरीपुर के ब्रजेंद्र किशोर रायचौधरी और सर रास बिहारी घोष (एनसीई के पहले अध्यक्ष), कवि रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरबिंदो घोष (पहले प्रिंसिपल)। 1 जून 1906 को परिषद पंजीकृत हुई। 1910 में बंगाल में तकनीकी शिक्षा के प्रचार के लिए सोसाइटी, बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट (जो बाद में कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, बंगाल बन गयी) को एनसीई में समाहित कर दिया गया। इसके बाद एनसीई ने बंगाल के इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी कॉलेज की देखरेख की, जो 1940 तक एक विश्वविद्यालय के रूप में काम कर रहा था। आजादी के बाद, पश्चिम बंगाल सरकार, सरकार की सहमति से। भारत के, 24 दिसंबर 1955 को जादवपुर विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए आवश्यक कानून बनाया। विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह आज भी इसी दिन होता है।

राजा सुबोध चन्द्र बसु मलिक

बंगाल विभाजन या स्वदेशी आंदोलन के खिलाफ आंदोलन इसी घर से निर्देशित किया गया था । रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक, बड़ौदा के गैकवार, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, प्रिंस काउंट ओकुमा (जापान), गोखले, आगा खान, डब्लू. सी, बोनर्जी, चित्तरंजन दास, शरत चन्द्र बोस, साखराम गणेश देस्कर, ए. रसूल, ज्योतिरीन्द्र नाथ टैगोर, पशुपति नाथ बसु (बागबाजार), सतीश चंद्र सिन्हा (पाइकपाड़ा) और कई अन्य । कई मौकों पर रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविताएं सुनाईं और पार्टियों में अपना गीत गाया था । उन्होंने इस घर में राष्ट्रगान भी गाया । अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण सुबोध बाबू ब्रिटिश शासन के आँख की किरकिरी थे 1908 में अलीपुर बम कांड में इनको निर्वासित किया गया। आज सुबोध बाबू का घर जहाँ है, वेलिंग्टन का वह इलाका अब राजा सुबोध मलिक स्क्वायर के नाम से जाना जाता है। सुबोध चन्द्र मलिक अरविंद घोष के सहयोगी थे और क्रांतिकारियों की योजनाएं इसी घर में बनती थीं। अक्टूबर 1908 को सुबोध चन्द्र मलिक को वाराणसी में गिरफ्तार किया गया और 14 माह का निर्वासन उनको मिला। पहले उनको बरेली जेल और उसके बाद अल्मोड़ा जेल भेज दिया गया। उनके रिहा होने के बाद 1910 में अरविंद घोष 12 वेलिंग्टन स्क्वायर स्थित इसी घर में उनसे अंतिम बार मिले। इसके बाद अरविन्द घोष पॉन्डिचेरी चले गये जबकि सुबोध चन्द्र मलिक दार्जिलिंग चले गये और यहीं पर 41 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हुआ।

क्या हमारे महापुरुषों की धरोहर के साथ यह होना चाहिए?

बताया जाता है कि अंग्रेजी के यू आकार में निर्मित इस भवन में बाग थे, फव्वारा था और यह विदेशी स्थापत्य को ध्यान में रखकर बनाया गया था। एक बांग्ला समाचार पत्र के हवाले से पता चला कि भवन की अर्न्त सज्जा में यूरोपीय चित्रकला का उपयोग किया गया था। नृत्य के लिए अलग स्थान था, पुस्तकालय, डाइनिंग रूम और बिलियर्ड खेलने के लिए जगह थी और था एक खिड़की दरजा…बताया जाता है कि नवविहाहिता इसी दरवाजे से घर में आया करती थीं।
इस समय तो यह घर मुकदमेबाजी का शिकार है और दिन – प्रतिदिन और जर्जर होता जा रहा है। देखभाल का जिम्मा कलकत्ता विश्वविद्यालय के पास है मगर बताते हैं कि जब तक मामला खत्म नहीं होता, तब तक कोई कुछ भी नहीं कर सकता। आनन्द बाजार पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार निगम के रिकॉर्ड में घर के मालिक के रूप में एच सी मलिक का नाम है। इस बारे में बसु मलिक परिवार के वर्तमान वंशधर कुणाल बसु मलिक का कहना था कि एच सी मलिक के निधन के बाद यह सम्पत्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय के पास चली गयी और सारी जिम्मेदारी अब सीयू की ही है मगर किसी प्रकार की सक्रियता फिलहाल नहीं दिखायी दे रही।

न जाने क्य़ों, जब इस तरह के धरोहरों को सम्भालने की बात आती है तो हर तरफ खामोशी ही मिलती है। जब आप सर्दियों में अपने लिए राजा सुबोध चन्द्र मलिक के नाम पर स्थित उद्यान के बाहर बाजार से कपड़े खरीदते हैं तो शायद एक बार फिर आपको एहसास भी न हो कि यहीं इसी उद्यान के पीछे वह विशाल राजप्रासाद है जो इस उद्यान की नींव है। जनता हर चीज के लिए आवाज उठाती है तो अपनी धरोहरों के लिए वह आवाज क्यों नहीं उठाती..जबकि वह उस आजाद हवा की नींव हैं, जिसमें हम सांस ले रहे हैं।
आप खुद सोचिए कि जिन क्रांतिकारियों ने अपना जीवन दाँव पर लगाकर, अपने सारे सुख त्याग कर हमें यह स्वतन्त्र भारत दिया, क्या वह इस तरह के व्यवहार के हकदार हैं और क्या इन धरोंहरो से जुड़े मामलों को लेकर टाल मटोल या मामले को उलझाना सही है? यह सही है कि हर चीज अस्थायी है मगर इतिहास के पन्नों में जो लिखा जाता है, वह इतिहास ही होता है और इतिहास जवाब आज की पीढ़ी से ही माँगेगा।
स्त्रोत साभार – विकिपीडिया.
आनन्द बाजार पत्रिका,
बांग्ला वर्ल्ड वाइड
सेव ए हिस्टॉरिकल मॉन्यूमेंट – द हाउस ऑफ राजा सुबोध मलिक का फेसबुक पेज

जादवपुर विश्वविद्यालय की वेबसाइट

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