कलम सिर्फ चलती है 

डॉ. वसुंधरा मिश्र

कलम एक ऐसा माध्यम है जो दुनिया को अपनी मुट्ठी में भी कैद कर सकता है और ऐसा समाज भी निर्मित कर सकता है जहाँ लोग अमन-चैन से जीवन बिता सकते हैं। कलम चलाता कौन है? हमारे शास्त्रों को किसने लिपि दी? अलग- अलग भाषाओं में हमने पत्थरों से लेकर धातुओं पर लिखा। अपने विचारों को हर युग ने अपनी शर्तों पर लिखा।
भारत की संस्कृति बहुत पुरानी है। मुझे भाषा का बोलचाल वाला रूप याद आ रहा है। जानते हैं उसे ही सरस्वती या वाग्देवी या फिर वीणापाणी माँ भारती का रूप माना जाता है। भारत ही ऐसा देश है जहाँ लिखे शब्दों को ब्रह्म कहा गया है। लिखने के पहले कलम की पूजा करने की आवश्यकता है। ये संस्कार दिए जाते थे कि जो भी लिखा जाए समाज के कल्याण के लिए लिखा जाए।
जैसा हम सोचते हैं वैसा ही लिखते हैं। बचपन में स्लेट और बर्ता से लिखते थे, बाद में चॉक फिर बड़े हुए तो पेंसिल दी गई फिर पेन आया। कितनी ख्वाहिश रहती थी कि कब पेन मिलेगा। कभी पिताजी के पेन को चुरा लेते थे और उसकी पूरी स्याही घिस घिस कर खत्म कर देते थे।
स्याही की दवात में से पिचकू से भरते थे। कभी-कभी पेन में स्याही भरते समय जमीन पर गिर जाती थी, तब कोई छोटे कपड़े से जल्दी जल्दी पोंछ कर उस कपड़े को छिपा देते थे। स्याही का दाम 3-4 रुपया होगा। मुझे सही कीमत नहीं पता क्योंकि पिताजी लेकर आते थे।
कक्षा पाँच तक तो कलम के दर्शन नहीं हुए। क्योंकि उस समय तक हमलोग छोटे ही थे। वैसे तो बड़े होकर भी छोटे और नासमझ की ही श्रेणी में रखे जाते थे।
खैर, कक्षा छह में कलम मिली वह भी बिल्कुल सस्ती वाली। कलम की कामना करते करते कलम मिली। स्याही की नई दवात भी आई। कलम स्याही एक – दूसरे के पूरक हैं। एक नहीं, तो कलम रुक जाती थी।
लिखने-पढ़ने वाला हो या व्यवसायी हो या कवि लेखक कथाकार कोई भी हो उसकी जेब में कलम लगी रहती थी। नेताओं के कुर्तों की जेब में एक से एक महंगे और ब्रांडेड कलम करीने से लगा कर रखते हैं। ये बात अलग है कि वे लोग कौन- सी सोच से प्रजा को हांकते हैं। कोट में गोल्डन पेन का हुक बहुत अच्छा लगता था।
कलम एक बार खरीद लो और स्याही भर- भर कर चलाते रहो। हम कभी भी स्याही भरने में आलस्य नहीं करते थे। हॉं,परीक्षा के दौरान लिखते- लिखते जब स्याही खत्म हो जाती तब बहुत गुस्सा आता था। आजकल तो कलम फेंक कर दूसरे कलम ले लेते हैं।
कई बार तो नींब भी टूट जाती थी। पहले पिताजी की डांट खाओ फिर नीब लगवाकर लाते। बहुत बड़ा काम था। स्याही की तो बात ही निराली थी।
स्याही ने तो अपने रंग से हमलोगों को बहुत राहत दी थी। कक्षा में मित्रों के साथ लड़ने झगड़ने में स्याही छिड़क कर अपना बदला लेते रहते थे। काली और नीली स्याही हमलोगों के काम आती थी। बड़ा पक्का रंग था। कागज में पानी लगने से पूरा कागज नीला हो जाता था।
सुलेखा ब्रांड की स्याही की दवात न जाने कितनी खर्च हो गईं होगीं, याद भी नहीं है।
सच में, स्याही के कलम को बहुत सहेज कर रखे थे डिब्बों में, अब तो हर रोज प्लास्टिक के पेन को “यूज एंड थ्रो” के आधार पर फेंकते रहते हैं। पेन के अंदर की गाढ़ी इंक खत्म होने पर दूसरा पेन खरीद लेते हैं। पेन बहुत सस्ता और सुलभ हो गया है। अब तो वे जमाने लद गए जब कलम को पूजा में रखते थे और उसे सिर से लगाते थे। – –

“कलम के दिन अब फिर न आएंँगे
की – बोर्ड पर अंगुलियां थिरकती हैं
हवा से बात करते अनगिनत शब्द
न जाने किन किन विचारों के पुल गढ़ते हैं
लिखना कभी न होगा बंद
जब तक रहेगा मनुष्य विचार रहेंगे। “

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।