‘चंद्रकला’ छिरकैं रँग अंगन आपस माँहि करै चित चोरी

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, हिंदी साहित्य के मध्ययुगीन इतिहास की बहुत सी स्त्री रचनाकारों की कथा मैंने आपको सुनाई है जिन्होंने अपने साहित्यिक अवदान से साहित्य को समृद्ध किया लेकिन उन्हें इतिहास में पर्याप्त समादर नहीं मिला। समय के साथ इनकी रचनाओं और परिचय को लोगों ने भुला दिया। वहीं कुछ रचनाकार ऐसी भी हैं जिन्होंने अपने समय में काफी नाम कमाया लेकिन बाद की पीढ़ी ने उनके अवदानों को याद नहीं रखा। ऐसी रचनाकारों के साहित्यिक अवदान के बारे में जानने और उसे साहित्य के पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास अवश्य होना चाहिए।
साहित्य सृजन के क्षेत्र में राजघराने की स्त्रियों का अपना अलग स्थान है लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि मध्युगीन समाज में हाशिए पर पड़ी कुछ स्त्रियाँ भी सृजनरत थीं जो अपने काव्य -कौशल से चमत्कृत करती हैं। इन स्त्रियों में एक महत्वपूर्ण नाम है चंद्रकला बाई का जो दासी पुत्री थीं लेकिन उन्होंने अपनी रचनात्मकता के बलबूते साहित्य जगत में सम्मानजनक आसन अर्जित किया। वह समस्यापूर्ति में सिद्धहस्त थीं।
चंद्रकला बाई का जन्म बूँदी राज्य में हुआ था। वह बूँदी के कवि और दीवान कविराज राव गुलाब सिंह की दासी की बेटी थीं। उनके जन्म काल का ठीक- ठीक पता तो नहीं है लेकिन अनुमानतः उनका जन्म संवत् 1923 के लगभग हुआ था और मृत्यु संवत् 1960- 1965 के बीच हुई थी। गुलाब राव एक अच्छे कवि थे। उन्हीं की संगति में चंद्रकला बाई काव्य रचना की ओर प्रवृत्त हुईं और निरंतर अभ्यास से अच्छी कविता करने लगीं। उस दौर में समस्या पूर्ति का बहुत चलन था। चंद्रकला जी विभिन्न काव्य समाज या संगठनों की ओर से निकलने वाली काव्य समस्याओं की पूर्ति किया करती थीं। उनकी काव्य पूर्तियां उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- काशी- कविमण्डल, रसिक मित्र, काव्य -सुधार, कवि और चित्रकार आदि में प्रकाशित होती रहती थीं। उन्हें उस समय के बहुत से काव्य संस्थाओं द्वारा सम्मानित तथा उपाधियों से विभूषित भी किया गया था। अवध- प्रांत के सीतापुर जिले में अवस्थित बिस्वा गाँव के एक काव्य संगठन ने 30 जून 1838 ई. में उन्हें “वसुंधरा रत्न” की पदवी प्रदान की थी। वस्तुत: अपने समय में साहित्य पटल पर चंद्रकला बाई ने काफी प्रसिद्धि अर्जित की थी। उस समय के अन्यान्य ‌प्रतिष्ठित कवियों के साथ उनके संबंध काफी अच्छे थे तथा उनके साथ पत्र- व्यवहार भी था। पं. मंगलदीन उपाध्याय को लिखे पत्र में उन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा था-
“बरस पंच-दश की वय मेरी।
कवि गुलाब की हूँ मैं चेरी।
बालहिं तें कवि संगति पाई।
तातें तुक जोरन मोहिं आई।”
कहा जाता है कि प्रतापगढ़ के राजा प्रतापबहादुर सिंह के राजकवि पं बलदेव प्रसाद अवस्थी उर्फ द्विज बलदेव जो समस्या पूर्ति में अत्यंत दक्ष थे, की कविता से चंद्रकला जी बहुत प्रभावित हुईं थीं एवं उन्होंने कवि को कई पत्र भेजें और उनसे बूंदी आने का अनुरोध भी किया था। एक पत्र में तो उन्होंने एक कवित्त के माध्यम से अपने ह्रदय के भावों को अभिव्यक्त किया। वह कवित्त इस प्रकार है-
“दीन दयाल दया कै मिलो, दरसै बिनु बीतत है समय सोचन।
सुद्ध सतोगुण ही के सने ते, विशंकित सूल सनेह सकोचन।।
तोर दियो तरु धीर- कगार के, ह्वै सरिता मनो बारि विलोचन।
चंद्रकला के बने बलदेव जी, बावरे से महा लालची लोचन।।”
हालांकि चंद्रकला जी के अनुरोध का मान तो कवि ने नहीं रखा लेकिन उद्धृत कवित्त को पढ़कर वह अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने कुल बीस पृष्ठों की “चंद्रकला” नामक एक काव्य पुस्तिका की रचना की। यह पुस्तिका संवत 1953 में तैयार हुई। इस की विशेषता यह है कि इसके प्रत्येक छंद में चंद्रकला शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा जा सकता है कि यह एक कवि का दूसरे कवि के प्रति स्नेह- समर्पण है।
चंद्रकला जी ने प्रचुर मात्रा में काव्य रचना की है। उनकी मुख्य पुस्तकों के नाम हैं- करुणा -शतक, रामचरित्र, पदवी -प्रकाश, महोत्सव प्रकाश आदि। उनकी रचनाओं के संबंध में “स्त्री कवि कौमुदी में पं ज्योति प्रसाद मिश्र “निर्मल” लिखते हैं- “इनकी रचनाओं को यदि हम समालोचना की कसौटी पर कसते हैं तो ये इतनी खरी नहीं उतरतीं जितनी कि होनी चाहिएँ। तो भी रचना रुचिर और अच्छी जान पड़ती है। खासकर बिसवां की कवि-मण्डली ने इन्हें. उत्साह और बढ़ावा देकर इनके नाम का महत्व बढ़ा दिया था। हमारे पास इनके 1000 छंद विद्यमान हैं जो बहुत ही उत्तम और भाषा-भाव से परिपूर्ण हैं।”
जिस दौर में साहित्य -क्षेत्र में स्त्रियाँ कम ही दिखाई देती थीं, उस काल में चंद्रकला बाई जी की सृजनशीलता निस्संदेह सराहनीय है। अपने समय में उन्होंने साहित्य जगत में जो प्रसिद्धि अर्जित की थी इससे भी उनकी काव्य प्रतिभा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उनके काव्य में राधा कृष्ण के रूप में नायक नायिका के प्रेम का सुंदर चित्रण हुआ है। ‌ हास- विलास, खुशी और उल्लास तथा संयोग श्रृंगार का अत्यंत मनभावन चित्रण चंद्रकला जी ने किया है। साथ ही वियोग की वेदना को भी मार्मिकता के साथ अंकित किया है। प्रस्तुत कवित्त में होली का ह्रदयग्राही वर्णन हुआ है।
“बाजत ताल मृदंग उमंग उमंग भरी सखियाँ रँग बोरी ।

साथ लिए पिचको कर मांहि फिरैं चहुँघा भरि केसर घोरी ।।

‘चंद्रकला’ छिरकैं रँग अंगन आपस माँहि करै चित चोरी ।

श्री वृषभानु महीपति-मंदिर लाल-लली मिलि खेलत होरी ।।”
नायक -नायिका के बीच की हँसी- ठिठोली और मान -अभिमान का वर्णन भी चंद्रकला बाई ने अत्यंत सरसता से किया है। अलंकारों के प्रयोग में भी वह सिद्धहस्त हैं। उनकी कविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव चित्रण में तो वह कुशल हैं ही, भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ है। प्रस्तुत कवित्त में मानलीला का वर्णन करते हुए रूपक अलंकार के सहज प्रयोग से उन्होंने कवित्त को सरस बना दिया है जिसे पढ़ते ही होठों पर बरबस मुस्कान आ जाती है। रूठे हुए कृष्ण को उनके अपराध का दंड देने के लिए राधिका यौवन की फौज लेकर आक्रमण करने को तत्पर हैं। अब इस फौज के समक्ष कौन सा प्रेमी अपनी पराजय स्वीकार नहीं करेगा। कवित्त देखिए-
“ऐहौ ब्रजराज कत बैठे हौ निकुंज माँहि,

कीन्हौ तुम मान ताकी सुधि कछु पाई है ।

साते ब्रषभानुजा सिँगार साजि नीकि भाँति ,

सखियाँ सयानी संग लेय सुखदाई है ।।

चद्रकला लाल अवलोको और मारग की,

भारी भय दायिनी अपान भीर छाई है ।

रावरो गुमान अति बल अति भट मानि,

जोबन को फौज लैके मारिबे को धाई है ।। ”
वियोग शृंगार का एक पद देखिए जिसमें वियोगिनी राधिका के एकनिष्ठ प्रेम, व्याकुलता और अधीरता का वर्णन गहराई से हुआ है-

“ध्यान धरे तुम्हरो निसि बासर नाम तुम्हार रटै बिसरै ना ।

गावत है गुन प्रेम-पगो मन जोवत है छिन दीठि टरै ना ।

चन्द्रकला वृषभानु-सुता अति छीन भई तन देखि परै ना ।

वेगि चलो न बिलम्ब करौ अति ब्याकुल है वह धीर धरै ना।”
प्रकृति का भी अति सुंदर वर्णन कवयित्री ने किया है। संयोग और वियोग दोनों ही अवस्थाओं में प्रकृति का सहज स्वाभाविक सौंदर्य अलग- अलग प्रभाव डालता है। संयोग के समय जहाँ नायक -नायिका के उल्लास में प्रकृति भी उल्लसित और सुरभित जान पड़ती है वहीं वियोग के समय उसका सौंदर्य न केवल ह्दय को दग्ध करता है बल्कि वियोग को भी कई गुणा बढ़ा देता है। नायिका प्राकृतिक सौंदर्य को निरखते हुए नायक के वियोग का अनुभव गहराई से करती है। सुंदर, सुवासित और सजी हुई फुलवारी नायिका को वियोग के कारण यम की सवारी की तरह लगती है। रूपक अलंकार के कुशल प्रयोग ने कविता के सौन्दर्य में तो वृद्धि की ही है नायिका की व्याकुलता को भी तीव्रता से व्यंजित किया है।
” कुसुम समूह खिले विटप लतान माँहि,

सोई ताहि लागि रही भट बलवन्त की ।

पल्लव नवीन लिए कर बिन म्यान असि,

कोकिल अवाज ध्वनि दुंदुभी अनंत की ।।

‘चद्रकला’ चारों ओर भँवर नकीब फिरैं

आली देखइ देत ये दुहाई रति-कंत की ।

बिन घनश्याम मोहिं कदन करनवारी ,

जम की सवारी फुलवारी है बसन्त की ।।
चंद्रकला बाई की कविताओं का भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही समृद्ध है। पठनीयता की दृष्टि से भी इनका महत्व है। पाठकों के ह्दय को अपने कवित्तों से सहजता से प्रभावित करनेवाली चंद्रकला बाई का साहित्यिक अवदान अविस्मरणीय है।

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