‘छत्रकुंवरी मम नाम है कहिबै को जग मांहि’

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों राजघराने की स्त्रियों का साहित्य सृजन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, वह चाहे राजकुल की स्त्रियाँ हों या राज‌दरबार की नर्तकियाँ। किसी- किसी का नाम और योगदान चर्चित हुआ तो कुछ अचर्चित ही रह गया। राजस्थान के राजकुल से संबंधित छत्र कुंवरी बाई जो छत्र कुंवरी राठौड़ के नाम से भी जानी जाती हैं, ने भी साहित्य रचना की थी। वह किशनगढ़ के महाराजा सावंतसिंह की पोती और रूपनगढ़ के महाराज सरदारसिंह की पुत्री थीं। कवयित्री सुंदरी कुंवरी बाई इनकी बुआ थीं। इन का विवाह राघोगढ़ के खींची महाराजा बहादुर सिंह के साथ हुआ था| इनका संबंध निम्बार्क सम्प्रदाय से था। इनके द्वारा रचित एक ग्रंथ मिलता है, “प्रेम विनोद” जिसकी रचना तिथि पर विचार करने पर पता चलता है कि इसका सृजन सन 1800 के अंतिम दशक  के आस- पास हुआ है। अपने ग्रंथ में अपना और अपने वंशवृक्ष का परिचय देते हुए भक्त कवयित्री ने लिखा है-

“रूपनगर नृप राजसी, जिन सुत नागरिदास| 

तिन पुत्र जु सरदारसी, हों तनया तै मास||

छत्रकुंवरी मम नाम है कहिबै को जग मांहि| 

प्रिया सरन दासत्व तै, हौं हित चूर सदांहि ||

सरन सलेमाबाद की, पाई तासु प्रताप| 

आश्रम है जिन रहसि के, बरन्यो ध्यान सजाय||”

“प्रेम विनोद” कृष्ण भक्ति धारा से संबंधित काव्य- ग्रंथ है जिसे आलोचक उत्कृष्ट कोटि का कृष्ण काव्य मानते हैं। कृष्ण भक्ति में डूबकर कवयित्री ने लिखा-

“जुरन धुरन पुनि दुरन मुरन लोचन अनियारे।

बरनागति उर मैं, बानलगि फूट दुसारे।।

कवयित्री की भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति है जिसमें डूबकर कृष्ण और गोपियों की लीला का वर्णन उन्होंने अत्यंत सरस ढंग से किया है। कृष्ण वियोग के पश्चात गोपियों की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने कृष्ण के प्रति उनके प्रेम और समर्पण का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है।  श्रीकृष्ण के द्वारिका प्रस्थान के बाद गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण की पूजा के लिए फूल  चुनने जाती है। वे कदम्ब वृक्ष की डालियों से पुष्प चुनती हुए प्रियतम कृष्ण को याद करते हुए उनकी मधुर स्मृतियों में डूबकर  भाव-विभोर हो जाती है| गोपियों द्वारा फूल लोढ़ने के इस अवसर का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन कवयित्री छत्र कुंवरी बाई ने किया है-

“स्याम सखी हंसि कुंवरिदिस, बोली मधुरे बैन| 

सुमन लेन चलिए अबै, यह बिरिया देन||

यह बिरिया सुख देन, जान मुसकाय चली जब| 

नवत सखी करि कुंवरि, संग सहचरि विथुरी सब|| 

प्रेम भरी सब सुमन चुनत जित तिच सांझी हित|

ये दुहुं बेबीस अंग फिरत निज गति मति मिश्रित||”

फूल लोढ़ने का एक और रसमय प्रसंग निम्नलिखित पंक्तियों  में चित्रित है। श्लेष अलंकार के प्रयोग ने इन पंक्तियों के  काव्य सौन्दर्य के साथ ही अर्थ गांभीर्य को भी कई गुणा बढ़ा दिया है-

“गरवांही दीने कहूं, इकटक लखन लुभाहिं|

पग वग द्वे द्वे पेड़ पे, थकित खरी रहि जाहिं||

थकित खरी रहि जाहिं, दृगन दृग छूटे ते छूटे| 

तन मन फूल अपार, दहुं फल ताह सु लूदे||”

परिमार्जित ब्रजभाषा में रचित छत्र कुंवरी बाई की कविताओं में प्रेम और भक्ति का अद्भुत निदर्शन मिलता है। मध्यकाल की अधिकांश भक्त कवयित्रियों ने कृष्ण भक्ति का आश्रय लेकर अपने ह्रदय में संचित प्रेम और शृंगार के भावों को भी अनायास अभिव्यक्ति दी है इसीलिए कृष्ण भक्त कवयित्रियों के काव्य में माधुर्य भक्ति की माधुरी सहज ही प्रस्फुटित होती है।

 

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