ताज बेगम : हौं तो तुरकानी हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं” 

प्रो. गीता दूबे

ऐ सखी सुन 10

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों अपनी पिछली बतकही में मैंने एक सवाल उठाया था कि हमारा समाज उन महिलाओं को उनका प्राप्य देना, आखिर कब सीखेगा जो इस घर, परिवार, समाज पर अपने आपको पूरी तरह से वार देती हैं और बदले में उन्हें धन्यवाद देना तो दूर, हम उन्हें याद तक नहीं रखते। महिलाएँ साहित्य, समाज, राजनीति या संस्कृति किसी भी क्षेत्र की क्यों ना हो उनके अवदानों को अपेक्षाकृत उचित स्थान और सम्मान कम ही मिलता है। तो इन भूली बिसरी सखियों की याद जनमानस में पुनः ताजा करने का काम भी तो हमें और आपको मिलजुलकर ही करना होगा। हमारी बात कहने के लिए कोई दूसरा आगे आएगा, इसकी प्रतीक्षा करने की जगह  हमें अपना इतिहास स्वयं लिखने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। डा. सुमन राजे जैसी लेखिकाओं ने इस मुहिम की शुरुआत कर दी है और इस महत्वपूर्ण सिलसिले को हमें जारी रखना है। अपनी विरासत भी संभालनी है, वर्तमान भी संवारना है और भविष्य भी लिखना है। 

सखियों, पहले मैं बात करना चाहती हूँ, साहित्यिक क्षेत्र की अपनी विरासत की। साहित्यिक क्षेत्र की न जाने कितनी भूली बिसरी रचनाकार हैं जिनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन्हें ससम्मान साहित्येतिहास में स्थान देना आवश्यक है। सन 1900. में “भारती” पत्रिका में रवींद्रनाथ ठाकुर का “काव्येर उपेक्षिता” नामक निबंध छपा था जिसने न केवल बांग्ला साहित्य जगत में हलचल मचाई थी बल्कि उसे पढ़कर और प्रेरित हो कर मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवियों ने भी अपने काव्य ग्रंथों में उर्मिला, यशोधरा जैसी उन उपेक्षिता नायिकाओं को वह स्थान दिलाया जिससे वे अब तक वे वंचित थीं। नायिकाओं को तो अपना प्राप्य मिला लेकिन साहित्याकाश की बहुत सी लेखिकाओं को वह समादर नहीं मिला जिसकी वे हकदार थीं। समय की धूल ने उन्हें इस तरह ढका कि इतिहास की गलियों में उनकी पहचान गुम सी गई। ऐसी ही तमाम भूली- बिसरी लेखिकाओं के रचनात्मक अवदान को आप सखियों के समक्ष उद्घाटित करते हुए मैं उनके प्रति हुए अन्याय को रंच मात्र ही सही कम करना चाहती हूँ। इस कड़ी में पहला नाम है, मध्यकालीन कवयित्री “ताज बेगम” का जिनका समय ईसा सन 1644  माना जाता है। उनक बारे में प्रचलित तमाम कहानियों में से एक में उन्हें सम्राट अकबर की पत्नी बताया गया है और एक दूसरी कहानी के अनुसार वह सम्राट औरंगजेब की भतीजी थीं। उन्होंने और‌ औरंगजेब की बेटी जेबुन्निसा ने कृष्णभक्ति की दीक्षा ली थी। वे दोनों ही कविताएँ लिखा करती थीं। ताज बेगम को अपनी  मुगलिया पृष्ठभूमि के कारण, कृष्ण के प्रति अपने प्रेम और समर्पण के लिए तत्कालीन कटृटरपंथियों की आलोचनाओं और भर्त्सनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन वह अपने रास्ते से डिगी नहीं और डंके की चोट पर कहा-

“नन्द जू को प्यारा जिन कंस को पछारा,

वह वृन्दावनवारा कृष्ण साहेब हमारा है॥”

कहा जाता है कि इनकी कृष्ण भक्ति और प्रेम में पगी कविताओं के कारण मुगलिया सल्तनत में हलचल भी मच गई थी और संभवतः यही कारण रहा होगा कि उनकी कविताओं पर विस्मृति की चादर डाल दी गई होगी। मीराबाई की तरह ही उन्होंने भी कृष्ण प्रेम के लिए सामाजिक मान्यताओं और बेड़ियों की भी परवाह नहीं की और व्यक्तिगत मान सम्मान को परे रखकर, कृष्ण की भक्ति में स्वयं को लीन करते हुए अपने दिल की कहानी सारे जहान को बेझिझक सुनाई-

“सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी तुम,

दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं।”

आश्चर्य इस बात का है कि आधुनिक हिंदी साहित्य के जिस पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने रसखान और रहीम जैसे कृष्ण भक्त कवियों की  कविताओं पर रीझकर बड़े गर्व से कहा था-“इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिंदू वारिए”, उनकी दृष्टि से ताज बेगम की कविताएँ कैसे ओझल हो गईं। संभवतः इस उपेक्षा के मूल में सत्ता थी, वह चाहे राजसत्ता हो या पुरूष सत्ता। रसखान की तरह ही ताज की कविता में भी ब्रज वीथिकाओं और कालिंदी कूल का सजीव अंकन हुआ है-

“कालिंदी के तीर नीर-निकट कदंब कुंज, 

मन कछु इच्छा कीनी सेज सरोजन की। 

अंतर के यामी, कामी, कँवल के दल लेके, 

रची सेज तहाँ शोभा कहा कहौ तिनकी।”

 सखियों, यह कमाल इतिहास लेखक का होता है जो कुछ बातों को छिपाने और कुछ को दिखाने की कला में माहिर होते हैं तभी तो बहुत से इतिहास ग्रंथों में ताज बेगम का नामोल्लेख तक नहीं है। उनके बहुत से पद संभवतः इधर- उधर बिखर गये होंगे तभी तो कविता कोश में उनके मात्र तीन ही पद संकलित हैं। लेकिन उन तीन पदों से ही उनकी भक्ति की उत्कटता भी प्रकट होती है और  कविता की उत्कृष्टता भी। डा. सुमन राजे अपनी किताब “इतिहास में स्त्री” में मीराबाई के साथ उनकी तुलना करती हुईं उनकी काव्यानुभूतियों को रेखांकित करती हैं- “मीरा के तेवर तो अलग हैं ही लेकिन ताज में भी अनुभूति की गहराई तथा समर्पण की भावना अनूठी थी।” हालांकि मीराबाई की तरह उन्होंने अपने कुल और रानीत्व की प्रतिष्ठा का त्याग नहीं किया था लेकिन इससे उनकी चुनौतियों को कम करके नहीं आंका जा सकता। मीराबाई ने गृहत्याग किया या करने को विवश की गईं तो उनके साथ उनकी कविताओं की अनुगूंज भी जन- जन तक पहुँची। लेकिन ताज ने तो जल में रहकर मगर से बैर ठाना। मुगल सल्तनत में रहते हुए, उसकी धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए सरेआम अपनी भावनाओं का ऐलान किया –

“देव पूजा ठानी हौं निवाज हूँ भुलानी तजे,

कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं॥

श्यामला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये,

तेरे नेह दाग में निदाग ह्वै दहूँगी मैं।

नन्द के कुमार कुरवान ताणी सूरत पै,

हौं तो तुरकानी हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं॥”। 

सखियों, यह माना जाता है कि ताज बेगम विट्ठलदास जी की सेविका बन गईं थीं और उनके पद पुष्टिमार्गीय  कृष्ण मंदिरों में गाये भी जाते थे। प्रेम दीवानी ताज की जब मृत्यु हुई तो उनकी समाधि ब्रजभूमि की रमन रेती से तकरीबन दो किलोमीटर दूर बनाई गई। वह समाधि आज भी वहीं है जहाँ यह महान कवयित्री चिर विश्राम में लीन हैं। उनकी रचनाशीलता को सादर नमन करते हुए, आज आप से विदा लेती हूँ, सखियों। अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी, एक नयी कहानी के साथ।

 

 

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