दीमक अच्छे हैं!” महिला किसान की इस शोध ने दिलवाई अंतरराष्ट्रीय पहचान

भगवती देवी के इस सस्ते और किफायती प्रयोग से किसान की मेहनत और माटी दोनों रहेंगे सुरक्षित!

हमारे देश का किसान पूरे देश के लिए खाद्यान्न उत्पादन करता है। लेकिन, पूरे देश की थाली सजाने वाले इन अन्नदाताओं को खेती करने के दौरान विभिन्न प्रकार की परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है। किसानों को होने वाली इन समस्याओं में से एक समस्या का नाम है ‘दीमक’। दीमक एक प्रकार का कीट होता है, जो फसलों की बर्बादी का कारण बनता है। एक अनुमान के अनुसार हमारे भारत में दीमक की वजह से फसलों को बहुत नुकसान पहुँचता है। दीमक कई प्रकार के होते हैं और ये मिट्टी के अंदर अंकुरित पौधों को चट कर जाते हैं। ये कीट जमीन में सुरंग बनाकर पौधों की जड़ों को खाते हैं, कभी-कभी तो ये तने तक को खा जाते हैं। अब आप समझ सकते होंगे कि दीमक की वजह से किसान को कितनी तकलीफ़ और कितना नुकसान होता होगा। लेकिन हमारी आज की कहानी की किरदार, इस महिला किसान ने दीमक से बचाव का रास्ता ढूंढ निकाला द बेटर इंडिया’ से मुखातिब होते हुए राजस्थान के सीकर जिले के दांतारामगढ़ गाँव में रहने वाली यह प्रगतिशील महिला किसान भगवती देवी कहती हैं,
“दीमक फसलों को बेहद हानि पहुंचाने वाला कीट है, जो फसलों को किसी भी अवस्था में घेर लेता है। यह कीट किसी भी मौसम, नमी, सूखा, गर्मी, सर्दी या किसी भी परिस्थिति में लग जाता है। इस कीट की वजह से विभिन्न फसलों को 10-15% तक या इससे भी अधिक हानि पहुंचती है।”
खेत बना प्रयोगशाला
भगवती देवी के खेत में खेजड़ी, बबूल, बेर, अरड़ू, शीशम, सफेदा और नीम के वृक्ष मुख्य रूप से लगे हुए हैं। इसके अलावा भी कुछ अन्य प्रजातियों के पेड़ पौधे हैं। इन पेड़ों की लकड़ियां हर वर्ष खेत में सफाई के दौरान खेत के चारों ओर बनी सीमा पर डाल दी जाती हैं।
एक दिन की बात है, जब उन्होंने खेत से जलाने के लिए लकड़ियां लीं तो पाया कि दूसरी लकड़ियों के मुकाबले सफेदे (यूकेलिप्टस) की लकड़ी पर बहुत ज्यादा दीमक है। उन्होंने सोचा कि क्यों न सफेदे की लकड़ी को एक प्रयोग के तौर पर खेत में फसलों के बीचों-बीच रख दिया जाए, जिसके चलते दीमक फसल को छोड़कर सफेदे की इस लकड़ी को खाने के लिए आ जाए।
पहला प्रयोग 2004 में किया
भगवती बताती हैं, “अपनी सोच को मूर्त रूप देने के लिए मैंने पहली बार इस प्रयोग को साल 2004 में गेहूं की एक फसल पर आज़माया। अपने प्रयोग को करते हुए मैंने इस फसल को देरी से 30 दिसम्बर को बोया। इस देरी के पीछे तर्क यह था कि देरी से बोई गई फसल पर दीमक का प्रकोप ज्यादा रहता है।”
उन्होंने ढाई फीट लम्बे व तीन इंच व्यास की सफेदे की लकड़ी के टुकड़े को 10×10 वर्गमीटर में गेहूं की दो कतारों के बीच इस तरह जमीन के समानान्तर रखा कि उसका आधा भाग जमीन में रहे। प्रयोग करने पर पाया गया कि गेहूं की फसल में दीमक का कोई प्रकोप हुआ ही नहीं। इतना ही नहीं, लकड़ी के नीचे जहां दीमक थी, उसके पास के दाने ज्यादा सुडौल और चमकदार थे।
इस बात से यह भी ज्ञात हुआ कि दीमक भी केंचुए की तरह ही भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करते हैं। मैं अपनी फसल में बिना किसी कीटनाशक का उपयोग किए दीमक को नियंत्रित करना चाहती थी। अपने अनुभव से जब मैनें सफेदे की लकड़ी को फसल में रखकर प्रभावशाली ढंग से दीमक का नियंत्रण किया तो मेरे सामने विभिन्न फसलों में इस प्रयोग को करने की भी चुनौती खड़ी थी। मुझे इस बात की भी खुशी है कि मैंने अनाज के अलावा दलहनी एवं तिलहनी फसलों और सब्जियों में भी इस प्रयोग को किया और हर बार जीत मिली। इस सफलता से मेरा हौसला कुछ नया करने को बढ़ता गया।।”
समय के साथ भगवती देवी आगे बढ़ने लगीं। उनके प्रयोगों को देखने और उनके फार्म हाउस का निरीक्षण करने राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर के तत्कालीन कृषि अनुसंधान निदेशक डॉ. एमपी साहू आए। भगवती ने उनको मिर्च की फसल में दीमक नियंत्रित करने का सफल प्रयोग करके भी दिखाया। निदेशक साहू उनके इस प्रयोग को देखने के बाद बहुत प्रभावित हुए और इस प्रयोग को उन्होंने अपने अनुसंधान केन्द्र पर करने के दिशा-निर्देश दिए।

(साभार – द बेटर इंडिया)

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