दृढ़ संकल्प , चिंतन – मनन – अध्ययन करें और प्रतिभा को सही दिशा में लगायें

डॉ. वसुन्धरा मिश्र

साहित्य, शिक्षा और साधना के क्षेत्र में अपने बहुमूल्य योगदान और उपलब्धियों के लिए डॉ. किरण सिपानी एजीसी बोस कॉलेज की पूर्व विभागाध्यक्ष और जैन कॉलेज में हिन्दी अध्यापन से जुड़ी, साहित्यिकी पत्रिका और जैन धर्म के मर्म का मनन करने वाली विदुषी को कोलकाता की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था “विचार मंच” द्वारा फूल कुँवर कांकरिया सम्मान से 8 दिसंबर 2019 को अलंकृत किया जाएगा।  कलकत्ता विश्विद्यालय से 1971 में हिन्दी में स्वर्ण पदक से विभूषित अपने जीवन में पहले घर और परिवार को महत्व देने वाली डॉ. किरण सिपानी ने अपभ्रंश भाषा के जैन कवि स्वयंभू के महाकाव्य “पउम चरियु” रामायण पर शोध कार्य किया जो हिन्दी के सेतु के रूप में विशेष महत्व रखता है, सहसंपादन – स्मरण को पाथेय बनने दो (इलारानी सिंह पर संस्मरण), विचार सरणी (निबंध संग्रह), विविध लेखन कविता, लघुकथा, पुस्तक समीक्षा और साहित्यिकी संस्था कोलकाता की बीस वर्षों से सचिव और संचालन, कोलकाता के प्रमुख संस्थाओं जैसे हनुमान मंदिर अनुसंधान संस्थान, लोकसेवा आयोग पश्चिम बंगाल, कल्याणी विश्वविद्यालय, सेंटजेवियर्स विश्वविद्यालय, डे होम फॉर गर्ल्स स्टूडेंट्स, मारवाड़ी युवा मंच उत्तर कोलकाता, श्री श्वेतांबर स्थानक वासी जैन सभा, उदयरामसर प्रवासी संघ से सक्रिय एवं ताजा टीवी, दूरदर्शन और आकाशवाणी पर आपके विचारों से बराबर साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रसारण। शिक्षा, सेवा और साधना के क्षेत्र में डॉ. सिपानी की जीवन यात्रा घर से आरंभ होकर व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होती है। सरल और कठिन दोनों ही डगर को सहजता और सजगता से लेना आपको संपूर्ण स्त्री की पहचान देता है। अपनी नयी सोच और कर्म को नया आयाम देने वाली विदुषी डॉ किरण सिपानी से डॉ वसुंधरा मिश्र  ने  उनकी जीवन यात्रा के विविध पहलू जाने  । शुभजिता में प्रस्तुत है यह साक्षात्कार –

 आप पिछ्ले 40 वर्षों से अध्यापन और साहित्य कर्म से जुड़ी हुई हैं। एक शिक्षक के रूप में आपकी यह यात्रा कैसी रही?
अध्यापन के चालीस वर्ष विभिन्न विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए बहुत ही शानदार ढंग से बीते। अध्यापन मेरे लिए जुनून रहा है । अपने स्कूल के सहपाठियों के साथ पढ़ कर भी मुझे आनंद मिलता था। अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर मेरे घरेलू काम करने वाली को भी शिक्षित करती थी । तीन डिग्री कॉलेज में पढ़ाने के अतिरिक्त मैंने अपने मौहल्ले में के जी से लेकर बीए तक के बच्चों को सामाजिक सेवा के रूप में पढ़ाया। 28 वर्षों तक मैंने आचार्य जगदीश चंद्र बोस कॉलेज पढ़ाया। इस कॉलेज में हिन्दी आनर्स देर से आरम्भ हुआ।मेरे अंदर आरंभ से ही उच्च विषयों को पढ़ाने की ललक रही। कलकत्ता विश्वविद्यालय में मुझे एमए के विद्यार्थियों को पढ़ाने का अवसर मिला। हनुमान मंदिर अनुसंधान संस्थान ने प्रत्येक रविवार को उच्च कक्षाओं के विषय पढ़ाने के लिए बुलाया जो सामाजिक सेवा के रूप में था। अपने पारिवारिक कार्यों में से समय निकाल कर प्रत्येक रविवार को हनुमान मंदिर में 12-5 बजे तक 22 वर्षों तक सेवाएं दीं। इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की पिरीयडिकल टीचिंग सेंटर कलकत्ता में प्राइवेट एमए के विद्यार्थियों को वर्षों तक पढ़ाया। इसके लिए रात भर परिश्रम कर पाठ्यक्रमों को तैयार किया। वहां कुछ विद्यार्थी मेरे मेरे हम उम्र या मुझसे बड़े थे जिनसे अभी तक मेरा प्रत्यक्ष संपर्क है। उन्हें बनाने और गाइड करने का अवसर मिलता रहता है। उनकी आंखों की चमक से मेरी बैटरी भी ऊर्जा से भर जाती है। अध्यापन ने मेरी बाह्य दृष्टि को जहाँ विस्तार दिया वहीं धीरे-धीरे अधिक साहसी और मजबूत बनाया। मैं मेरे विद्यार्थियों के लिए ही काउंसिलर नहीं हूँ बल्कि मेरे पारिवारिक सदस्यों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हूँ।
प्र. इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई?
आरंभ से ही मैं अच्छी विद्यार्थी थी। मेरी माँ मेरे बड़े भाई ने मुझे स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए प्रेरित किया। मेरे सहृदय पिता ने विरोध किया। वे मुझे इसलिए उच्च शिक्षा नहीं दिलवाना चाहते थे क्योंकि हमारे समाज के लड़के अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त करते थे। पिता जी नहीं चाहते थे कि मुझसे कम पढ़े लिखे लड़के से मेरा विवाह हो। मैंने उनको विश्वास दिलाया कि मैं यदि एमए करती हूँ तो भी मुझे ग्रैजुएट लड़के से विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं होगी।मेरे पिता ने उच्च शिक्षा के लिए स्वीकृति दे दी। मैंने भी विवाह के समय अपनी प्रतिज्ञा निभाई और स्नातक व्यवसायी लड़के से विवाह किया। दोनों ही परिवारों में मैं पहली स्नातकोत्तर बेटी और बहू हूँ। प्रोफेशन के विषय में तो सोचने की कोई बात ही नहीं थी। मेरे अंदर कुछ करने की आग बराबर जल रही थी कि मैं अपने बारे में कुछ फैसला करुं। इस साहस को मेरे शिक्षक स्वर्गीय डॉ. प्रबोधनारायण सिंह और मेरी माँ एवं सास ने बड़े प्रोफेशनल कार्य के लिए प्रेरित किया।
प्र. आपके इस खजाने में निश्चित ही असंख्य अविस्मरणीय स्मृतियाँ हैं। कुछ स्मृतियों को हमसे साझा करें?
दो घटनाओं को आपसे बांटना चाहूंगी। कक्षा 9-10 के विद्यार्थियों को हिंदी साहित्य पढ़ने की बहुत इच्छा हुई क्योंकि उन्हें क्विज प्रतियोगिता में भाग लेना था। उस समय मैं शिक्षायतन कॉलेज में थी। मैंने उन्हें तैयारी करवाई। मेरे विद्यार्थियों ने बीए अॉनर्स के विद्यार्थियों के साथ हुई इस प्रतियोगिता में ट्राफी जीता जो मेरे लिए गौरव की बात थी। दूसरी घटना मेरे प्रथम हिन्दी ऑनर्स बैच से संबंधित है। जैसा मैंने बताया कि एजीसी बोस कॉलेज में  ऑनर्स कोर्स देर से शुरू हुआ संभवतः बीस वर्षों बाद, उस समय मेरे विभाग में हमलोग चार प्रोफेसर ही थे। प्रथम वर्ष के बाद विद्यार्थी कॉलेज के बाहर प्राइवेट ट्यूशन लेने के लिए तैयार नहीं थे। मैंने उन्हें हतोत्साहित नहीं किया और आश्वासन दिया कि जो विषय उन्हें समझ में नहीं आ रहा है, मैं व्यक्तिगत रूप से उसे पढा़उंगी। सेलेक्शन टेस्ट के बाद उन्होंने मुझे विषय की लिस्ट दे दी। मैने दिन-रात कठिन परिश्रम करके सभी विषयों को तैयार किया। आप विश्वास नहीं करेंगी कि उनका यूनिवर्सिटी एक्जाम संभवतः 20 अप्रैल से शुरू हुआ था और मेरी विशेष कक्षाएं 20 अप्रैल तक ली।ये कक्षाएं मैने 12-5 बजे तक कुछ दिनों तक लगातार ली। जबकि अन्य विभाग के लोग विद्यार्थियों से परेशान हो रहे थे, यहां तक कि उन विभागों में नियमित कक्षाएं भी नहीं हो रही थीं। कॉलेज के इतिहास में सेलेक्शन टेस्ट के बाद सबसे पहले मॉक टेस्ट मैंने करवाया।मेरी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहा जब रिजल्ट आया, हमारे विद्यार्थी यूनिवर्सिटी एक्जाम में तृतीय स्थान पर रहे।
प्र. आपके कार्यक्षेत्र में आपकी महत्वपूर्ण उपलब्धि कौन-सी है?
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि मेरी संस्कारित माँ थीं जिन्हें जीवन में स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला। मुझे ऑलरांउडर प्राइज़ और विशेष अवार्ड “लीला मेमोरियल अवार्ड” 1965-66 में मिला। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने 1969-71 में हिन्दी में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर” स्वर्ण पदक” मिला।पीएच-डी डिग्री के अवार्ड के समय भी मैं बहुत रोमांचित थी। उस समय मेरे ऊपर संयुक्त परिवार के दायित्वों के कारण पीएच-डी जमा करने की दो बार तारीखें भी निकल गई थीं। मेरी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है लेकिन भविष्य में आशा करती हूँ कि कुछ पुस्तकें प्रकाशित होगीं। साहित्यिकी संस्था की सचिव और अध्यक्ष रही जो महिलाओं की साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था है।वर्षों तक असंख्य यादगार कार्य किए। जब मेरे स्कूल मारवाड़ी बालिका विद्यालय ने सौ वर्ष पूर्ण होने पर उत्सव के दौरान मुझे 3 सितम्बर 2019 को सम्मानित किया उस समय मैं खुशी से भर गई थी। विचार मंच की आभारी हूँ जो मुझे 8 दिसम्बर 2019 को “फूल कुमारी कांकरिया शिक्षा सेवा साधना सम्मान 2019” प्रदान कर रहा है। ये मेरे लिए महत्वपूर्ण उपलब्धियां है।
प्र. आपने अपने पूरे कॅरियर में हिन्दी भाषा को समृद्ध करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में आपका शोध कार्य कितना सहायक रहा, इस पर प्रकाश डालें।
मेरा शोध कार्य अपभ्रंश से संबंधित है। अपभ्रंश को आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी माना जाता है। साधारणतया लोग समझते हैं कि संस्कृत भाषा हिंदी, बांग्ला, मराठी आदि की जननी है लेकिन यह सही नहीं है, संस्कृत तो बड़ी दादी है। मैंने अपभ्रंश राम महाकाव्य” पउमचरिउ” चुना जिसके रचयिता स्वयंभू हैं जो अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, शोध कार्य किया। महाकाव्य के गुणों को प्रकाश में लाते हुए उसकी काव्य परंपरा और भाषीय संवेदनाओं को प्रकाशित करते हुए माँ अपभ्रंश को किस प्रकार बेटी हिंदी ने ग्रहण किया, इसे व्यक्त किया। हाँ! शोध निदेशक के रूप में मेरा अनुभव नहीं रहा। मेरे समय कॉलेज के शिक्षकों को शोध निदेशक बनने की अनुमति नहीं थी जबकि आज है।
प्र. वर्तमान समय में हिन्दी अध्यापन कार्य और उसे सीखना किस प्रकार प्रासंगिक है?
आज सीखने के बहुत से नए विषय और रास्ते खुल गए हैं। इसलिए अकादमिक क्षेत्रों में हिन्दी पढ़ने और सीखने की ललक के प्रति कमी आ गई है।जैसे कि पोस्ट ग्रेजुएट विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने के कारण उनका आकर्षण प्रोफेशनल विषयों को सीखने की ओर बढ़ रहा है। हिन्दी माध्यम के स्कूल अंग्रेजी माध्यम में बदलते जा रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों से आशा नहीं कर सकते कि वे हिन्दी को समझे और हिन्दी से प्रेम करें। उनके अभिभावक भी उन्हें प्रेरित नहीं करते। समाज में हिन्दी के प्रति प्रशंसा का अभाव है। हिन्दी भाषियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। प्रतिभावान हिन्दी के छात्र हाशिए से बाहर रखे जाते हैं।
दूसरी ओर आजादी के बाद 14 सितंबर 1949 को अनुच्छेद संख्या 343 ने हिन्दी की शक्ति को बढ़ाने का काम किया । सरकारी नौकरियों में बैंक, कानून, सोशल मीडिया, पत्रकारिता और अनुवाद में हिंदी की मांग है। विश्व में बोलने वाली भाषा के रूप में हिंदी द्वितीय स्थान पर संप्रेषित भाषा है। चीनी भाषा मैन्डरिन प्रथम बोलने वाली भाषा है। विश्व के 140 देशों में 500 संस्थाओं में हिन्दी पढ़ाई जाती है। अभी कुछ वर्षों पहले ही मॉरिशस में विश्व भाषा हिन्दी का सेंट्रल हिंदी सेक्रेट्रिएट खोला गया है। मैं हिंदी के प्रति आशान्वित हूँ, मैं उसे मरती हुई भाषा नहीं मानती।
प्र. पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए हैं। आप किसे ठीक समझती हैं और उनमें से कुछ में सुधार करने के विषय में क्या सोचती हैं?
इंटर डिसिप्लीन कॉरिकुलम के अंतर्गत नयी शिक्षा नीति ने वास्तव में शिक्षकों और विद्यार्थियों को अपने खोल से निकलने और नई सोच विस्तार करने का नया आयाम दिया है। नए सेमेस्टर सिस्टम ने विद्यार्थियों की परेशानियों को कम किया है। वस्तुतः ज्ञान के दायरे में विस्तार हुआ है लेकिन इससे गहन अध्ययन में कमी आई है। शिक्षकों के पास भी ठोस शिक्षा देने के समय बहुत कम है। प्रत्येक व्यवस्था के अच्छे और बुरे दोनों ही पक्ष होते हैं।
मुझे उस समय बहुत खराब लगता है जब विद्यार्थी और यहाँ तक कि शिक्षक भी गलत बोलते और लिखते हैं। मेरे विचार से प्राथमिक स्तर की शिक्षा अच्छी होनी चाहिए।यदि प्राथमिक स्तर मजबूत और अच्छा होगा तो उच्च स्तरीय शिक्षकों को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। फिनलैंड और दक्षिण कोरिया के प्राथमिक स्तर के शिक्षकों को अधिक तनख्वाह दी जाती है अपेक्षाकृत उच्च स्तरीय शिक्षकों के। इस तरह के सुझाव बहस के कई मार्ग खोलते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है हमलोगों को कक्षा दस में एक पृष्ठ का डिक्टेशन दिया जाता था जो मेरी शिक्षा की उपलब्धियों में है।
प्र. महिलाओं को बहुत सी विभिन्नताओं और लिंग के आधार पर कार्यक्षेत्रों में असमानताएं झेलनी पड़ती हैं, इस विषय में आप क्या कहेंगी ?
पुरुष और कभी-कभी महिलाएं अपने प्रोफेशनल सेटअप में पुरुष को अधिक सम्मान देती हैं। महिलाएं अपने कार्य को बहुत अच्छी तरह से करती हैं जिसके कारण वे कार्यक्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करती हैं जिसे अक्सर लोग समझ नहीं पाते। उनकी इस अज्ञात शक्ति को पुरुष प्रधान समाज अपने पूर्वाग्रहों के कारण मानते चले आ रहे हैं, कुछ कल्पना में मान लेते हैं और कई लोग नहीं मान पाते, लेकिन इस बात को महिला नहीं जानती। जब कोई उच्च पदस्थ महिला होती है तो वह पुरुषों के झुंड में अकेली होती है। लेकिन जब कोई पुरुष ऊंचे पद पर कार्यरत होता है तो लोगों की धारणा होती है कि वह तो अच्छा है ही। महिला होती है तो उसकी पदोन्नति अवश्य ही विभिन्न कारणों से हुई है क्योंकि लोगों की यही धारणा बन चुकी है।
प्र. अध्यापन के अतिरिक्त आपकी रुचियाँ क्या हैं? खाली समय को किस प्रकार बिताती हैं?
अध्यापन के अतिरिक्त खाली समय में मैं विभिन्न अनुभवों से जुड़ी हुई हूँ जिनमें साहित्य, अकादमिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठन और संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़ना है। जिन्हें करके मुझे आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती है। 32 वर्षों से साहित्यिक गतिशील रही। हनुमान मंदिर अनुसंधान संस्थान में निःशुल्क शिक्षा सेवाएं प्रदान की। मारवाड़ी युवा मंच, उत्तर कोलकाता की दो वर्षों तक उपाध्यक्ष पद पर सामाजिक सरोकार से जुड़ी रही। आचार्य जगदीश चंद्र बोस कॉलेज के आर्ट्स सेक्शन की गवर्निंग बॉडी मेंबर कोऑर्डिनेटर चयनित थी, प्रायमरी यूनिट कॉन्वेंट और वर्षों तक विभागाध्यक्ष रही।
* सेंट जेवियर्स यूनिवर्सिटी और कल्याणी विश्वविद्यालय की बोर्ड स्टडीज की सदस्य रही। 35-30 वर्षों से लोक सेवा आयोग, पश्चिम बंगाल से जुड़ी हूँ।
डे होम फॉर गर्ल्स की दो वर्षों तक गवर्निंग बॉडी मेंबर रही। इसके कारण मुझे लड़की शिशु के लिए अपने कुछ विचारों को लागू करने का अवसर मिला।
* मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ कि श्वेतांबर स्थानक वासी जैन सभा के कार्यक्रमों में कई वर्षों तक सेवा करने का अवसर मिला।
* मेरा झुकाव और शौक शास्त्रीय कंठ संगीत यानी वोकल क्लासिकल गायन में रहा लेकिन कुछ दूसरी रूचियों के कारण मेरी ये इच्छा पूरी नहीं कर सकी। जबकि 1964 में मैनें पश्चिम बंगाल में गायन के प्रथम वर्ष में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
* मुझे अच्छा खाना बनाना और खिलाना दोनों पसंद है। मेरा एक शौक बुनाई रहा है। कॉलेज की सीढ़ियों पर भी चढ़ना और उतरना मेरा शौक रहा है। मैं बुनाई वाली के रूप में प्रसिद्ध थी।
* मैं इनडोर गेम्स पसंद करती हूँ। फिल्म और नाटक में भी रूचि है। बच्चे कहानी सुनने के लिए मुझे हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने बहुत से कार्यक्रम किए हैं। सेमिनार में पेपर पढे़ हैं, दसवें विश्व संस्कृत कॉन्फ्रेंस में पेपर पढा़।
* मैं छोटी कहानियां, लेख, संस्मरण और कविताएं लिखती हूँ। मेरी कविताएं, छोटी कहानियां सामाजिक और साहित्यिक चर्चाएं टीवी और आकाशवाणी से प्रसारित होती हैं।
* मैं लिखने और सिर्फ लिखने के लिए सौ वर्ष जीना चाहती हूँ।
प्र. आप विद्यार्थियों को क्या संदेश देना चाहती हैं? अकादमिक और प्रोफेशनल्स को अपनी चुनौतियों का सामना किस प्रकार करना चाहिए?
अपनी इच्छा शक्ति, एकाग्रता, ईमानदारी , सकारात्मक दृष्टिकोण , द्वारा अपनी योग्यता को परखना चाहिए। निरंतर अपने चरित्र, असफलताओं और कार्य योजनाओं को खंगालते रहना चाहिए। जीवन के ये मूल मंत्र हैं। कुछ महत्वपूर्ण बिंदु जिनका अनुकरणीय है – दिल, दिमाग और हाथों से काम करते रहें। अपने से छोटों की सहायता करें जिससे वे विकसित और समृद्ध हो सकें। समाज को सदैव अपनी सेवाएं देना न भूलें ।
प्र. समाज, परिवार और देश विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में आप महिलाओं को क्या संदेश देंगी?
सुरक्षित जीवन जीने की चाह में खुद को खोकर महिलाएं व्यवस्था की अंग बनती जा रही हैं। उनका ध्यान बाहरी आडंबरों में उलझ कर रह जाता है। देश और दुनिया की घटनाओं के प्रति जागरूक नहीं है। अपनी प्रतिभानुसार अपने दायरे को बढ़ावा देना चाहिए। महिलाओं को देश और देश की मुख्य धारा के मुद्दों में भी सक्रिय भागीदारी से भी जुड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने दायरे को बढ़ाना चाहिए तभी महिलाएं वर्तमान समय में परिस्थितियों से सामना करने में सक्षम हो सकेंगी।
प्र. अंत में, आप एक वाक्य में विद्यार्थियों, शिक्षकों, महिलाओं और समाज को क्या कहना चाहेंगी?
दृढ़ संकल्प , चिंतन – मनन – अध्ययन करें और प्रतिभा को सही दिशा में लगायें।

शुभजिता

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