पहेलियों की रोचक दुनिया को बूझने वाली खगनियाँ

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, आज मैं आपसे पहेलियों की बात करूंगी। घबराइए मत, पहेलियाँ नहीं बुझाऊंगी। बस पहेलियों की रोचक दुनिया की सैर कराऊंगी। भले ही साधारण औरतें बात- बात में मुहावरों और कहावतों का इस्तेमाल ही नहीं करतीं बल्कि पहेलियां बूझने और बुझाने में भी पीछे नहीं रहतीं लेकिन जब साहित्य के परिसर में पहेलियों की बात चलती है तो वहाँ औरतों की उपस्थिति नजर नहीं आती। वहाँ एक ही कवि का प्रभुत्व नजर आता है और वह हैं, अमीर खुसरो जो अपनी पहेलियों, मुकरियों आदि के लिए जाने जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी कलम का हुनर नहीं दिखाया है। आदिकालीन साहित्य में अगर अमीर खुसरों की पहेलियों का सरस शब्दजाल दिखाई देता है तो रीतिकाल में खगनियाँ ने अपनी कलम के जादू से सबको मुग्ध कर दिया। उन्हें विशेषतः पहेलियों के लिए ही याद किया जाता है। यह बात और है कि बहुत सी स्त्री रचनाकारों की तरह इन्हें भी इतिहास के कृष्ण पक्ष ने ढँक लिया और कम लोग ही इनके और इनकी रचनाओं के बारे में जानते हैं।

सखियों, खगनियाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। माना जाता है कि ये उत्तर मध्यकाल अर्थात रीतिकाल में सृजनरत थीं। इनके जीवन के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी ‌तो नहीं मिलती लेकिन इनकी पहेलियों को शोधकर्ताओं और लेखकों ने संकलित अवश्य किया है। ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ द्वारा संपादित पुस्तक “स्त्री कवि संग्रह” में खगनियां की कई पहेलियां संकलित हैं। देखिए, एक उदाहरण और बूझिये तो सही इसका सही जवाब-

“नारी देखी एक अनोखी।

बंद न होती चलती चोखी।

मरना जीना तुरंत बतलाती।

कभी नहीं कुछ खाना खाती।

सदा हाथ में मेरे रहै, बासू केर खगनियां कहै।” 

तो बताइए तो सखियों, क्या है इसका जवाब ? चलिए मैं ही बता देती हूं-“नाड़ी”। नाड़ी भी तो स्त्री अर्थात स्त्रीलिंग ही है जिसके चलते रहने पर जिंदगी चलती रहती है। एक और खूबसूरत पहेली बूझिए-

“दोनों बहनें बड़ी अनोखी।

लखने में यह सबसे हैं चोखी।

जिससे ये दोनों लग जातीं।

बिना न देखे उसे अघातीं।

बिना न इनके जीवन रहै, बासू केर खगनियाँ कहै।”

अब भला कौन हैं, ये दोनों अनोखी बहनें। अरे वही तो हैं, जिनके बिना जग सूना हो जाता है। हाँ भाई हाँ, आँखें। 

अब जरा दो पंक्तियों वाली पहेलियाँ भी देखिए-

“लंबी चौड़ी आँगुर चारि, दुहूँ ओर से डारिन फार।

जीव न होय, जीव को गहै, बासू केर खगनियाँ कहै।”

इसका उत्तर है “कंघा” जो निर्जीव होकर भी सजीव लोगों अर्थात मनुष्यों के बहुत काम आता है। एक और उदाहरण दृष्टव्य है-

“पेट फटा रहता है सदा, बड़े जोर से बजता कहाँ।

पूजा अरचा में वह रहै, बासू केर खगनियाँ कहै।”

यह है “शंख” जिसके बिना पूजा पाठ पूरा नहीं होता। 

खड़ी बोली और अवधी में रचित ये पहेलियाँ तकरीबन हर विषय को समेटती हैं। ये रोचक भी हैं और सरस भी। कभी थोड़ी कठिन लगती हैं और चुनौती भी देती हैं कि बूझो तो सही। और वह पहेली ही क्या जो सुनने वाले को बूझ लेने की चुनौती न दे। तो कभी- कभी आसान भी लगती हैं और‌ आप झट से उसका अर्थ खोल लेते हैं। इस तरह के कुछ और उदाहरण देखिए-

“रहती अंगरेज़न के साथ।

उसे नवाते हैं सब माथ।

बड़ी लड़ाई में वह जावै।

धड़ाधड़ाका शब्द सुनावै।

सदा निशाना अपना गहै, बासू केर खगनियाँ कहै।” 

इसका अर्थ तो आपने समझ ही लिया होगा। जी, बिल्कुल सही समझा। यह है “बंदूक” जिसके धड़ाके के बिना युद्ध नहीं लड़ा जा सकता। एक और आसान सी पहेली का उदाहरण प्रस्तुत है-

“बाँध गले में उसकी डोरी।

देते लड़के हैं झकझोरी।

आसमान में उड़ता रहता।

खाकर झोके बहता रहता।

सूरत सदा तिकोनी रहै, बासू केर खगनियाँ कहै।”

सही समझा आपने, यह तिकोनी चीज है, पतंग जिसे लड़के बच्चों के साथ बड़े भी बड़े चाव से आसमान में उड़ाते हैं।

सखियों, इन पहेलियों को पढ़कर लगता है कि खगनियाँ बासू नामक गाँव की रहने वाली थीं। संभवतः इसीलिए वह हर पहेली के अंत में अपना नाम अपने गाँव के नाम के साथ जोड़ देती हैं। इन पहेलियों से गुजरते हुए हम खगनियाँ की कवित्त शक्ति और बुद्धि कौशल का अंदाज़ा सहजता से लगा सकते हैं। सखियों, आप स्वयं भी इन्हें पढ़कर आनंद उठाएं और दूसरों को भी पढ़वाएं। इस पढ़ने -पढ़ाने के द्वारा ही हम इस विदुषी कवयित्री को जन मानस के बीच जीवित रख सकते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

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