प्रतिबन्ध समाधान नहीं है, रोजी का सवाल है, हरित पटाखों का प्रसार ही विकल्प है

शुभजिता फीचर डेस्क

भारतीय त्योहार और पर्वों को लेकर इन दिनों काफी कुछ कहा जा रहा है। कोई भी त्योहार लीजिए, बुद्धिजीवियों और उदारवादी आधुनिक जमात उसके पीछे पड़ रहे हैं। ये अलग बात है कि अपने निजी जीवन में इनको न तो पर्यावरण की परवाह है और न प्रदूषण की फिक्र मगर बेरंग होली और बगैर आतिशबाजी के दिवाली मनाने की अपील करने में यह सबसे आगे हैं। पटाखों के पीछे हाथ धोकर पड़ना इनकी पुरानी आदत है मगर इस बार कोरोना ने इस बहाने को धार दे दी और दुःख की बात यह है कि हमारी न्यायिक प्रक्रियाओं में भी एकतरफा रवैया हावी है। जाहिर है कि इस बार की पड़ताल दिवाली बीत जाने के बाद भी आतिशबाजी को लेकर करने की जरूरत पड़ी।

प्राइवेट जेट से उड़ने वाले, सिगरेट – शराब की लत को फैशन समझने वाले जब पब में हुक्का उड़ाते हैं और वह धुआँ सीधे उनके फेफड़ों में जाता है…तब इनको प्रदूषण की चिन्ता नहीं होती। बॉलीवुड के पुरस्कार समारोहों में जो धुआँ उत्पन्न किया जाता है या 31 दिसम्बर की रात को जो पटाखे फूटते हैं, उनको लेकर कभी किसी सितारे को चिन्ता करते नहीं देखा…प्रियंका चोपड़ा जब अपनी शाही शादी में आतिशबाजी का आनन्द लेती हैं या सिगरेट पीती हैं तब उनको अस्थमा की चिन्ता नहीं होती…। सबसे पहली बात यह है कि हमें यह समझने की जरूरत है कि हमारे पर्व और त्योहार बेरोजगारों के लिए रोजी – रोटी हैं और न्यायालयों के एकतरफा फैसले से जिन लाखों गरीबों की रोजी गयी…जिनकी दिवाली पर अन्धेरा छाया रहा…उनकी क्षतिपूर्ति के लिए किसी भी राज्य या न्यायपालिका ने क्या किया…यह सवाल अब उठना चाहिए। हमें यह देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का ष़डयन्त्र अधिक लग रहा है और हमें इस बात की हैरत नहीं है।
ऐसा भी नहीं है कि पटाखों को लेकर अनुसन्धान नहीं हो रहे हैं…पटाखों पर पूर्ण प्रतिबन्ध एक गलत फैसला है। जो पशु प्रेमी अपने पशुओं को लेकर परेशान हैं. उनके कानफोड़ू संगीत से क्या उनके जानवर परेशान नहीं होते? जरूरत पड़ने पर हथियारों के प्रयोग, आंसू गैस के गोले, वाहनों और कारखानों का धुआँ क्या कम प्रदूषण फैलाता है? घूमने की धुन में जब आप पर्यटन स्थलों पर खाली प्लास्टिक फेंक आते हैं तो उनसे कौन सी हवा साफ होती है…यह भी बताने की जरूरत है।


विदेशी नहीं हैं पटाखे
पटाखे विदेशी नहीं हैं…हमारे ग्रन्थों में जिस अग्निचूर्ण का उल्लेख मिलता है,वह कुछ और नहीं बारुद ही है। मुगल काल में भी आतिशबाजी की परम्परा का उल्लेख मिलता है। भारत में पटाखों का इतिहास बहुत पुराना है. पुणे स्थित भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्रो० परशुराम कृष्ण गोडे ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ कल्चर (बेंगलुरु) के ट्रांज़ेक्शन सं० 17 (1953) में एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत में आतिशबाजी के इतिहास का विवरण दिया है. प्रो० गोडे लिखते हैं कि सन 1443 में देवराय द्वितीय के शासनकाल में सुल्तान शाहरुख़ का एक दूत विजयनगर के दरबार में रहता था. इसने लिखा है कि रामनवमी के उत्सव पर उसने वहाँ आतिशबाजी देखी थी. ऐसे ही बहुत से उल्लेख मिलते हैं जो बताते हैं कि चौदहवीं, पंद्रहवीं शताब्दी में कश्मीर, उड़ीसा और गुजरात में न केवल उत्सव बल्कि विवाह समारोह आदि में भी आतिशबाजी होती थी. डॉ सत्यप्रकाश (डी०एस०सी०) अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में रसायन’ में उड़ीसा के गजपति प्रताप रुद्रदेव की पुस्तक कौतुक चिंतामणि को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि पन्द्रहवीं शताब्दी में राजा के दरबार में विभिन्न प्रकार के अग्निक्रीड़ायें की जाती थीं: कल्पवृक्ष बाण, चामर बाण, चन्द्रज्योति, चम्पा बाण, पुष्पवर्त्ति, छुछंदरी रस बाण, तीक्ष्ण नाल और रस बाण. ऐसे ही उल्लेख आकाशभैरवकल्प नामक पुस्तक में है जिसमें यह बताया गया है कि बांस के बने पिंजरों से अग्निबाण (राकेट कह सकते हैं) छोड़े जाते थे जो आकाश में फूटने के बाद मोरपंख का बना हुआ चँवर या आजकल के ‘अनार-पटाखा’ जैसी रंग-बिरंगी आतिशबाजी करते थे. प्रो० गोडे के अनुसार भारत में आतिशबाजी की कला चौदहवीं शताब्दी में चीन से आई किन्तु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि रसायनों के प्रयोग से विस्फोट करने का ज्ञान भारतीयों को चौदहवीं शताब्दी के पहले से था क्योंकि प्रो० गोडे ने अपने लेख में तेरहवीं शताब्दी के फ़ारसी इतिहासकार शेख मुसलिदुद्दीन सादी का उल्लेख किया है जिसने अपनी रचना गुलिस्तान में एक स्थान पर लिखा था कि एक हिन्दू (अर्थात् तत्कालीन ‘गुलाम’) किसी से ‘नाफ्था’ फेंकना सीख रहा है. यह नाफ्था एक प्रकार का ज्वलनशील तरल पदार्थ है जिसे आज नाफ्थालीन कहा जाता है. इसे बोतल में भरकर चिंगारी लगाकर शत्रु पर फेंकने से शत्रु जल जाता है. शुक्रनीति में भी अग्निचूर्ण का उल्लेख है किन्तु शुक्रनीति का रचनाकाल निश्चित नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि प्रो० गोडे अपने लेख में आकाशभैरवकल्प पुस्तक को उद्धृत करते हुए दीपावली पर्व का उल्लेख भी करते हैं जिसमें राजा को रात्रि में बाणविद्या (अर्थात् आज के समय का राकेट) देखने के लिए आमंत्रित किया गया है.
9 हजार करोड़ का कारोबार, लाखों को रोजगार, प्रतिबन्ध से सब लाचार
दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट में ऑल इंडिया फायरवर्क्स एसोसिएशन के आँकड़ों के हवाले से कहा गया है कि पटाखों का कारोबार लाखों लोगों की रोजी है। 1070 कंपनियां अकेले शिवाकाशी में रजिस्टर्ड हैं। यहां देश aमें बिकने वाले कुल पटाखों को 80 प्रतिशत पटाखा बनता है। अकेले शिवाकाशी में ही गतवर्ष में 6000 करोड़ का कारोबार हुआ था। देश में पटाखे का लगभग 9 करोड़ का कारोबार है। शिवाकाशी में पटाखा कारोबार से लगभग 3 लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से जुड़े है। जब लगभग कुल 5 लाख लोगों को इससे रोजगार मिलता है। पटाखों का मूल कारोबार कोलकाता में ही था मगर सुविधाओं के अभाव में यह धीरे – धीरे पिछड़ता चला गया। क्या कोई भी अदालत इन गरीबों के रोजगार को लेकर गम्भीर है…हमें तो नहीं लगा।


विकल्प हैं मगर इनको सामने नहीं आने दिया गया
पड़ताल के लिए सामग्री तलाशते हुए हमें पता चला कि बाजार में 10 रुपए से लेकर 10 हजार तक आतिशबाजी उपलब्ध रही हैं। लोग बजट के अनुसार आतिशबाजी खरीद सकते हैं। पुरानी आतिशबाजी के अतिरिक्त कई नई प्रकार की आतिशबाजियां भी इस दिवाली पर उपलब्ध हैं। लोग अपनी पसंद के अनुसार इको फ्रेंडली और सामान्य आतिशबाजी का मजा ले सकते हैं। आतिशबाजी के शौकीनों के लिए बाजार में इको फ्रेंडली सिलेंडर बम उपलब्ध हैं। बम से किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता। इसकी खास बात यह है कि इसे कमरे के अंदर भी चलाया जा सकता है। इस बम को चलाने के लिए आग की जगह इसमें लगी रस्सी को खींचा जाता है। इस पर बम से हल्की पटाखे जैसी आवाज के साथ कागज निकलकर बिखर जाएंगे।। इसी प्रकार इको फ्रेंडली क्रिस्टल अनार भी बाजार में उपलब्ध हैं। इससे अनार चलाने का शौक भी पूरा किया जा सकता है और प्रदूषण से भी बचा जा सकता है। यह अनार 50 रुपए में बाजार में उपलब्ध है। इसका बाहरी कवर चाइनीज मिट्टी का बना है। बच्चों का आकर्षण चाईनीज बॉल बाजार में आ चुका है। बॉल को बार—बार बजाया जा सकता है। इसे हाथ में भी बजाया जाए तो कोई नुकसान नहीं होता। इसके अतिरिक्त इस बार बच्चों के लिए एक नया तिली बम उपलब्ध है। बम की विशेषता यह है कि इसे चलाकर पानी में भी फेंका जाए तो बम फ्यूज नहीं होगा।
फिरकी और अनार दोनों का एक साथ आनंद लेने के इच्छुक फ्लोरा फाउंटेन चलाकर इसे पूरा कर सकते हैं। पांच फ्लोरा फाउंटेन का बंडल 105 रुपए में उपलब्ध है। ये जानकारी हम दैनिक भास्कर के हरियाणा संस्करण में 4 नवम्बर 2010 को छपी एक रिपोर्ट को आधार बनाकर दे रहे हैं। जब 2010 में इको फ्रेंडली पटाखों की मौजूदगी थी तो इन 10 सालों में क्या हो गया कि दिवाली पर आतिशबाजी को पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित कर देना पड़ा…हमारी समझ में यह एक प्रोपेगेंडा का नतीजा है। चीजें अगर बिगड़ने लगें तो उसके बेहतर विकल्प तलाशे जाते हैं, उसे पूरी तरह खत्म नहीं किया जाता।
रिपोर्ट का लिंक –

https://web.archive.org/web/20101109130535/http://www.bhaskar.com/article/HAR-bombs-are-available-in-the-market-1520745.html

विकल्प हैं ग्रीन पटाखे
पटाखा कारोबार को नुकसान न हो, और इससे जुड़े लाखों मजदूरों का रोजगार न छीने इसलिए कोर्ट द्वारा ग्रीन पटाखों को बनाने की बात कही गयी थी। इस पहल को नीरी के वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक पूरा किया। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (NEERI) नीरी, भारत सरकार के अंतर्गत काम करने वाले “वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद” (CSIR) सीएसआईआर की पर्यावरण शाखा की एक विशेष प्रयोगशाला है।
पटाखा कारोबार को नुकसान न हो, और इससे जुड़े लाखों मजदूरों का रोजगार न छीने इसलिए कोर्ट द्वारा ग्रीन पटाखों को बनाने की बात कही गयी थी। इस पहल को नीरी के वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक पूरा किया। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (NEERI) नीरी, भारत सरकार के अंतर्गत काम करने वाले “वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद” (CSIR) सीएसआईआर की पर्यावरण शाखा की एक विशेष प्रयोगशाला है। नीरी ने ऐसे पटाखे बनाने का फैसला लिया, जो खुद पानी उत्पन्न करते है और यही बात इन्हे सामान्य आतिशबाजी से खास और बेहतर बनती है।
नीरी के मुताबिक इस प्रकार के पटाखों को सेफ वॉटर रिलीज़र नाम दिया गया है। इनके जलने पर पानी के कणो का निर्माण होता है। और सभी हानिकारक गैसें, जैसे नाइट्रोजन, सल्फर, कार्बन मोनो ऑक्साइड, आदि इस पानी में घुलकर नष्ट हो जाएँगी। ऐसे पटाखे भी बनाये गए है। जिनमें कुछ खास रसायनों के प्रयोग से ऑक्सिडाइजिंग (आक्सीकरण) की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है।
उन्होंने लगभग 50 से 60 प्रतिशत कम एलुनिनियुम का इस्तेमाल करके बढ़िया गुणवत्ता, और सामान्य पटाखों की तरह चलने वाले क्रैकर्स तैयार कर लिए है। चूँकि यह दूसरों से अधिक सुरक्षित है, इसलिए इनका नाम भी सेफ मिनिमल एलुमिनियम या SAFAL (सफल) रखा गया है।

सरकारें काम कर रही हैं
आपने नीरी के बारे में जाना, बंगाल में भी इनको लेकर काम हो रहा है। बंगाल में एक प्रमुख उद्योग के रूप में आतिशबाजी के निर्माण को विकसित करने के लिए, राज्य सरकार 24 परगना दक्षिण के बरूईपुर में आतिशबाजी कारखानों का एक समूह स्थापित करने हेतु, एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने के लिए तमिलनाडु के शिवकाशी के आतिशबाजी अनुसंधान और विकास केंद्र (एफआरडीसी) को जोड़ेगी। । एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे उद्योग के लिए गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों को सुनिश्चित करने में एक विशेषज्ञ संगठन होने के नाते, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम और वस्त्र विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी डीपीआर तैयार करने के लिए एफआरडीसी को लिखने का निर्णय लिया गया है। । डीपीआर 24 परगना दक्षिण में बारूईपुर में आम सुविधा केंद्र के साथ क्लस्टर स्थापित करने के लिए तैयार होगा। बाद में, डीपीआर के अनुसार एक ही मॉडल को राज्य के अन्य हिस्सों में ऐसे क्लस्टर स्थापित करने के लिए दोहराया जाएगा।
बंगाल के कई गाँव, मुख्य रूप से 24 परगना दक्षिण पटाखा विनिर्माण कई लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है और इस प्रकार उनके लिए एक बेहतर, सुरक्षित और खतरा मुक्त वातावरण पैदा करना है, राज्य सरकार ने डीपीआर तैयार करने के लिए एफआरडीसी जैसे विशेषज्ञ संगठन को जोड़ने का फैसला किया है। इस दिशा में 24 परगना दक्षिण में बरूईपुर में 50 एकड़ भूमि की पहचान पहले से ही की जा चुकी है और क्लस्टर स्थापित करने के लिए अन्य सभी प्रक्रियाएं भी प्रगति पर हैं।
क्लस्टर को सभी मानदंडों का पालन करते हुए स्थापित किया जाएगा और तकनीकी उन्नयन सुनिश्चित करेगा जो गुणवत्ता के काम में सुधार सुनिश्चित करेगा। गुणवत्ता नियंत्रण के लिए कच्चे माल के परीक्षण के लिए एक केंद्र भी होगा और साथ ही, काम का मानकीकरण भी होगा।
इसके अलावा, अधिकारी ने आगे बताया कि अत्यधिक ज्वलनशील सामग्रियों को संग्रहित करने के लिए गोदामों की उचित तरीके से योजना बनाने की आवश्यकता है और इस प्रकार कार्य शुरू करने से पहले संपूर्ण योजना की आवश्यकता है।
जरूरत है कि नकली दुनिया के मायावियों की मायावी बातों को भूलकर हम हरित पटाखों का विकल्प तैयार करें और न्यायालय जब फैसला दे तो एक बार उन लाखों लोगों की रोजी और उस हँसी के बारे में सोचकर संवेदनशीलता से निर्णय दे। सरकारें हरित पटाखों के विकल्प को लेकर गम्भीर हों, इसका प्रसार करें तो हम पटाखा उद्योग में भी आगे बढ़ सकते हैं।

(साभारस्त्रोत और सन्दर्भ – मेकिंग इंडिया ऑनलाइन
दैनिक भास्कर
हियरिंग सोल डॉट कॉम तथा इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री)

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