मेडिक्लेम: न अटकेगा, न लटकेगा, बस इन बातों का रखना होगा ध्यान

मेडिक्लेम लेते समय इन बातों का ध्यान रखें –

डॉक्यूमेंट सेट हमेशा तैयार रखें
मैक्स हॉस्पिटल के प्रवक्ता के मुताबिक हेल्थ इंश्योरेंस लिया है तो सबसे पहले इसके बारे में घर के सभी सदस्यों को बताएं। चाहे आपका अकेले का हेल्थ इंश्योरेंस हो या फैमिली फ्लोटर या परिवार के सभी सदस्यों का अलग-अलग, सभी को एक-दूसरे के हेल्थ इंश्योरेंस के बारे में बता दें। इसके बाद जिन-जिन के नाम हेल्थ इंश्योरेंस है या इंश्योरेंस में शामिल हैं, उन सभी के इन डॉक्यूमेंट्स की फोटो काॅपी के अलग-अलग सेट बना लें:
हेल्थ इंश्योरेंस (अगर पिछले साल के इंश्योरेंस हैं तो अधिकतम 3 साल के पेपर)
आधार कार्ड
पैन कार्ड
पासपोर्ट साइज का एक फोटो
इन डॉक्यूमेंट्स के सेट को घर में एक जगह रख दें जिसे इमरजेंसी में परिवार के सदस्य जरूरत पड़ने पर निकालकर अस्पताल को दे सके। भर्ती के दौरान ये सारे डॉक्यूमेंट्स अस्पताल में जमा कराने पड़ते हैं।

इन स्थितियों में मिलता है क्लेम

1. तय सर्जरी आदि में भर्ती होने पर
मान लीजिए, किसी शख्स का किडनी ट्रांसप्लांट या कोई सर्जरी पहले से तय है। ऐसे में मरीज को तुरंत अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ता। अस्पताल उसे भर्ती होने के लिए एक तय तारीख बताता है। उस तारीख से 2 दिन पहले जरूरी डॉक्यूमेंट्स अस्पताल के TPA विभाग को देने होते हैं। दरअसल, हेल्थ इंश्योरेंस देने वाली हर कंपनी की ओर से TPA नियुक्त किया जाता है। TPA हेल्थ इंश्योरेंस देनेवाली कंपनी और इंश्योरेंस लेनेवाले शख्स के बीच एक बिचौलिए के रूप में काम करता है। इसका मुख्य काम दावे और सेटलमेंट की प्रक्रिया में मदद करना है। डॉक्यूमेंट्स के आधार पर इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से इलाज के लिए रकम अप्रूव की जाती है। तय तारीख पर मरीज आता है और उसका इलाज शुरू हो जाता है।

2. अस्पताल में अचानक भर्ती होने पर
अचानक बीमार होने या ऐक्सिडेंट होने जैसी स्थिति में मरीज को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता है। ऐसे में हेल्थ इंश्योरेंस से जुड़े उसके डॉक्यूमेंट परिजन अस्पताल में जमा करा देते हैं। डॉक्टर मरीज को देखकर इलाज का प्रोसेस तय करता है, अस्पताल प्रशासन अनुमानित खर्च बताता है। TPA की तरफ से इलाज के लिए रकम अप्रूव की जाती है। अप्रूवल मिलने में 4 घंटे तक लग जाते हैं। ऐसे में अस्पताल परिजन से छोटी-सी रकम (5 से 10 हजार रुपये) जमा करवाता है और मरीज का इलाज शुरू हो जाता है। अस्पताल की हेल्प डेस्क से यह जानकारी ले सकते हैं कि मरीज के इलाज में रोजाना कितनी रकम खर्च हो रही है। अस्पताल प्रोविजनल बिल देते हैं कि इलाज की रकम किन-किन चीजों पर खर्च हुई।

कैश और कैशलेस का चक्कर
यह स्थिति छोटे शहरों या उन अस्पतालों में आती है जहां हेल्थ इंश्योरेंस के जरिए इलाज नहीं किया जाता यानी ऐसे अस्पताल TPA पैनल में नहीं होते। इलाज की पूरी रकम चुकानी पड़ती है। हालांकि इलाज के बाद TPA को इलाज से जुड़े कागज देने पर इलाज में खर्च रकम मिल जाती है। यह रकम जितने का हेल्थ इंश्योरेंस है, उससे ज्यादा नहीं मिलेगी। इसे रीइम्बर्स्मन्ट भी कहते हैं। रीइम्बर्स्मन्ट के लिए अस्पताल से ये डॉक्यूमेंट जरूर लें:

मरीज की डिस्चार्ज समरी की मूल जानकारी
इलाज में खर्चे का ऑरिजनल बिल। बिल ब्रेकअप के साथ होना चाहिए यानी कमरे का रोजाना का किराया कितना रहा, डॉक्टर की रोजाना की फीस, दवाइयों का बिल जिसमें यह भी लिखा हो कि कौन-कौन सी दवाएं दी गईं आदि।
अगर कोई टेस्ट हुआ है तो नेगेटिव फिल्म (एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, MR आदि) सहित उसकी रिपोर्ट।
मरीज को भर्ती कराते समय शुरू में जो रकम जमा की है, उसकी और डिस्चार्ज के बाद बिल भुगतान की ऑरिजनल रसीद।
मरीज के भर्ती के बाद के केस पेपर और वाइटल चार्ट भी मांगें। वाइटल चार्ट वह होता है जो इलाज के दौरान मरीज के बेड से बंधा होता है। इस पर मरीज की पल-पल की रिपोर्ट जैसे ब्लड प्रेशर आदि की जानकारी होती है।
इनके अलावा अस्पताल से ये डॉक्यूमेंट भी मांगें

राज्य सरकार या स्थानीय निगम की ओर से जारी अस्पताल के रजिस्ट्रेशन का सर्टिफिकेट
अगर अस्पताल ने नए रजिस्ट्रेशन या रजिस्ट्रेशन रिन्यू के लिए अप्लाई किया है और उसके पास रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट नहीं है तो अस्पताल को Inpatient Certificate देना होगा। इस सर्टिफिकेट में अस्पताल का रजिस्ट्रेशन नंबर लिखा होता है। इसमें अस्पताल को जानकारी देनी होती है कि क्या उसके पास राउंड द क्लॉक डॉक्टर (मरीज को समय-समय पर देखने के लिए आने वाले डॉक्टर) हैं? कुशल नर्सिंग स्टाफ है? ऑपरेशन थिएटर है या नहीं? अस्पताल में मरीजों के लिए कितने बेड हैं आदि।
नोट: रीइम्बर्स्मन्ट के लिए अस्पताल से डिस्चार्ज होने के 7 से 15 दिनों के भीतर क्लेम फाइल कर देना चाहिए। इसमें देरी होने पर क्लेम मिलने में परेशानी हो सकती है।
क्लेम में देरी तो क्या करें: क्लेम मिलने में 45 दिन से ज्यादा लगते हैं तो उस रकम पर हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी को बैंक रेट से 2 फीसदी ज्यादा का ब्याज उसे देना होगा जिसके नाम से इंश्योरेंस है। कुल ब्याज कितना देना होगा, यह RBI की गाइडलाइंस के अनुसार कोर्ट या बीमा कंपनी तय करती है। क्लेम में देरी पर इंश्योरेंस कंपनी को उसकी ऑफिशल ई-मेल आईडी पर ईमेल करें।

क्लेम की रकम कम होने के कारण
जब अस्पताल का फाइनल बिल बनता है तो कई बार बिल काफी ज्यादा हो जाता है। इसमें उन खर्चों की भी रकम शामिल होती है जिनका क्लेम इंश्योरेंस कंपनी नहीं देतीं। ऐसे में क्लेम की रकम कम हो जाती है। इसलिए इलाज के दौरान ये बातें ध्यान रखें:

अस्पताल में भर्ती होने से पहले: अस्पताल का कमरा उसी रेंज में लें, जितने की लिमिट हेल्थ इंश्योरेंस में दी गई है। लिमिट से ज्यादा कीमत वाला कमरा लेने पर डॉक्टर की फीस से लेकर कमरे में मौजूद टीवी, फोन आदि का भी खर्च बढ़ जाता है। अस्पताल में भर्ती होने के दौरान: मरीज के साथ मौजूद परिवार के सदस्य के खाने-पीने की चीजों पर भी क्लेम नहीं मिलता है। इसलिए ऐसी चीजों से बचें। अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद: अस्पताल से डिस्चार्ज होने पर दवा का खर्च भी हेल्थ इंश्योरेंस में शामिल होता है लेकिन वह खर्च वाजिब होना चाहिए यानी कोई भी दवाई अपनी तरफ से या किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह से न ली गई हो।

इन परिस्थितियों में रिजेक्ट हो सकता है क्लेम
पुरानी बीमारी न बताने पर

अगर मरीज प्री-एग्जिस्टिंग (पहले से हुई) बीमारी जैसे- डायबीटीज, अस्थमा, थॉयराइड आदि या पुरानी बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती हो जाए जिसके बारे में एजेंट को बताया नहीं था तो क्लेम रिजेक्ट हो जाएगा और इलाज का पूरा बिल अपनी जेब से भरना पड़ेगा। वहीं अगर कोई शख्स प्री-एग्जिस्टिंग बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती होता है तो 3 साल तक (अलग-अलग कंपनियों के मुताबिक अलग-अलग) क्लेम नहीं मिलता। फिर चाहे उस शख्स ने उस बीमारी के बारे में पहले से ही क्यों न बता दिया हो। हालांकि अब कंपनियां प्रीमियम की कुछ रकम ज्यादा लेकर पहले दिन से ही सभी प्रकार की बीमारियों पर क्लेम दे देती हैं।
 क्या करें?
इंश्योरेंस लेते समय कंपनी के एजेंट को अपनी बीमारियों, स्मोकिंग, शराब आदि से जुड़ी आदतों के बारे में पूरी जानकारी दें।
अगर शराब पीते हैं या स्मोकिंग करते हैं तो इसकी भी जानकारी दें।
कोई सर्जरी हुई है या कोई दवाई खाते हैं तो यह भी एजेंट को बताएं।
इंश्योरेंस लेने के बाद भी अगर कोई बीमारी जैसे डायबीटीज, बीपी आदि होता है तो इसके बारे में भी इंश्योरेंस कंपनी को ई-मेल के जरिए बताएं।

वेटिंग या ग्रेस पीरियड में इलाज
जब भी हेल्थ इंश्योरेंस लेते हैं तो कंपनियां शुरू के 15 या 30 दिन का वेटिंग पीरियड (लुक आउट पीरियड) देती हैं। वेटिंग पीरियड से मतलब है कि इंश्योरेंस लेने वाला शख्स पॉलिसी को अच्छी तरह से पढ़ ले और सभी नियमों को जान ले। अगर पॉलिसी पसंद न आए तो कस्टमर उसे वेटिंग पीरियड में वापस भी कर सकता है। वेटिंग पीरियड में ऐक्सिडेंट के अलावा अगर किसी दूसरी बीमारी का इलाज कराते हैं तो क्लेम रिजेक्ट कर दिया जाता है।

वहीं अगर इंश्योरेंस की तारीख निकल चुकी है और उसे रिन्यू नहीं कराया है तो कंपनी 30 दिनों तक का ग्रेस पीरियड देती है। इन 30 दिनों में प्रीमियम भरकर इंश्योरेंस को रिन्यू करा सकते हैं। अगर ग्रेस पीरियड में इंश्योरेंस लेने वाले शख्स को मेडिकल इमरजेंसी आती है तो उसे क्लेम नहीं मिलता, फिर चाहे मरीज को अस्पताल में भर्ती करते ही तुरंत इंश्योरेंस का प्रीमियम क्यों न भर दें।
क्या करें?
वेटिंग पीरियड में तो कुछ नहीं कर सकते लेकिन ग्रेस पीरियड अपने हाथ में होता है। हेल्थ इंश्योरेंस को रिन्यू कराने के लिए ग्रेस पीरियड या आखिरी तारीख का इंतजार न करें। जिस दिन इंश्योरेंस खत्म होने वाला होता है, उसके 15 दिन पहले ही इसका प्रीमियम भर दें ताकि इसका फायदा मिलता रहे।

कम से कम 24 घंटे भर्ती न रहना
अगर कोई शख्स अस्पताल में 24 घंटे से कम समय तक भर्ती रहता है या किसी चेकअप के लिए भर्ती हुआ है तो क्लेम नहीं मिलेगा। कई बार मरीज को सिर्फ सामान्य जांच या ऑब्जर्वेशन के लिए भर्ती किया जाता है। भर्ती के दौरान कोई दवा दी गई और जानबूझकर 24 घंटे बाद छुट्टी दे दी गई हो। अगर ऐसा होता है तो क्लेम रिजेक्ट कर दिया जाएगा। हालांकि डे प्रसीजर के कुछ मामलों में क्लेम मिल जाता है। कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनमें मरीज को 24 घंटे के अंदर अस्पताल से छुट्टी दे दी जाती है। इन बीमारियों के बारे में हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी से जानकारी ले लें।
 क्या करें?

मरीज अस्पताल में कम से कम 24 घंटे के लिए वाजिब बीमारी और उसके इलाज के लिए ही भर्ती हो। किसी भी तरह के फर्जी इलाज से बचें। अगर डे प्रसीजर का मामला है तो इसके बारे में TPA को बताएं।

अस्पताल का रजिस्टर्ड न होना
कई अस्पताल ऐसे होते हैं जो TPA पैनल में नहीं होते। ऐसे में इलाज के दौरान ध्यान रखें कि अस्पताल उस राज्य सरकार की तरफ से या स्थानीय निगम की ओर से रजिस्टर्ड होना चाहिए, जिस राज्य में यह है। अगर रजिस्टर्ड नहीं हैं तो इलाज में खर्च रकम का रीइम्बर्स्मन्ट भी नहीं मिलेगा।
…तो क्या करें?
बड़े शहरों में या बड़े-बड़े ग्रुप जैसे मैक्स, अपोलो, फोर्टिस आदि में पैनल होता है यानी यहां कैशलेस इलाज करा सकते हैं। इसके उलट छोटे शहरों या दूर-दराज के इलाकों में ऐसे काफी अस्पताल हैं जो रजिस्टर्ड नहीं हैं। कई बार इमरजेंसी की स्थिति में मरीज को ऐसे ही अस्पताल में भर्ती कराना मजबूरी हो जाती है। बेहतर होगा कि मरीज को ऐसे किसी भी अस्पताल में भर्ती कराते समय अस्पताल के हेल्प डेस्क पर पूछ लें कि क्या यह अस्पताल स्थानीय राज्य सरकार या स्थानीय निगम की ओर से रजिस्टर्ड है? अगर रजिस्टर्ड नहीं है तो बेहतर होगा कि मरीज को वहां फर्स्ट ऐड (प्राथमिक उपचार) दिलवाएं और किसी ऐसे अस्पताल में ले जाएं जहां कैशलेस इलाज की सुविधा हो। जरूरत पड़े तो एंबुलेंस में भी लेकर जा सकते हैं।

अस्पताल पहुंचने पर इन बातों का रखें ध्यान

कई बार अस्पताल पहुंचने पर TPA के बारे में पता चलता है। मरीज या मरीज के परिवार की ओर से जो क्लेम फॉर्म भरा जाता है, उसे TPA कंपनी को भेजते हैं और प्री-अथॉराइजेशन (इलाज के लिए रकम का अप्रूवल) दिलवाते हैं। यह सुविधा 24 घंटे चालू है। प्री-अथॉराइजेशन में मिली रकम कुल इंश्योरेंस का 10 फीसदी भी हो सकती है। जैसेे- किसी का 5 लाख रुपये का हेल्थ इंश्योरेंस है और उसे पहले दिन 40 या 50 हजार रुपये का अप्रूवल मिल सकता है। इसे देखकर घबराएं नहीं। अगर मरीज का इलाज 24 घंटे से ज्यादा चलता है तो हर दिन अप्रूव हुई रकम बढ़ती जाती है। हालांकि कुल कितना क्लेम मिलेगा, यह मरीज के डिस्चार्ज होने पर ही पता चलता है।
अप्रूवल मिलने में कम से कम 30 मिनट और अधिकतम 4 घंटे मिलते हैं। इस दौरान अस्पताल 5 से 10 हजार रुपये जमा करवाता है और मरीज का इलाज शुरू हो जाता है। अगर TPA अप्रूवल में देरी करे या 1 दिन या 2 दिन का वक्त लगने की बात कहे तो उससे कहें कि इसमें इतने दिन नहीं लगते। यह आपकी ड्यूटी है और 4 घंटे में अप्रूवल दिलवाइए।

ये बातें कभी न भूलें
नॉमिनी का नाम जरूर जुड़वाएं: हेल्थ इंश्योरेंस में नॉमिनी का नाम जरूर जुड़वाएं और नॉमिनी को भी इसके बारे में बताएं। अगर किसी शख्स का इलाज अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी चल रहा है तो दवाई समेत इलाज से जुड़े खर्च हेल्थ इंश्योरेंस में कवर होते हैं। इस दौरान अगर उस शख्स की मृत्यु हो जाए तो नियमानुसार उसका बैंक अकाउंट भी तुरंत बंद हो जाता है यानी उसमें लेन-देन नहीं हो सकता। ऐसे में नॉमिनी उस शख्स के इलाज में खर्च हुई रकम को उसकी मृत्यु के 45 दिनों बाद तक क्लेम कर सकता है और रकम अपने बैंक अकाउंट में लेने का हकदार होता है। नॉमिनी की जिम्मेदारी है कि वह उस रकम को उस शख्स के कानूनी वारिसों में बांट दें। बेहतर होगा की रकम को वारिसों में चेक के जरिए दिया जाए।

हेल्थ इंश्योरेंस से जुड़ी गाइडलाइंस जानें: आईआरडीएआई की आधिकारिक वेबसाइट irdai.gov.in पर जाएं। पेज पर ही सामने लिखे What’s New पर क्लिक करें। अब आपको एक नीले रंग की पट्टी दिखाई देगी। इसमें लिखे Select Year and Month में 2020 और महीने में June सेलेक्ट करके इसके बराबर में लिख Go पर क्लिक करें। इसमें 11-06-2020 के तीन ऑप्शन मिलेंगे। पहले वाले ऑप्शन ( गाइडलाइन्स ऑन स्टैंडर्डाइजेशन ऑफ जनरल टर्म्स एंड क्लॉजेज इन हेल्थ इन्श्योरेंस) पर क्लिक करके आप मेडिक्लेम से जुड़ी IRDAI की नई गाइडलाइंस पढ़ सकते हैं।
जेब को भी दे सकते हैं राहत: ऐसा नहीं है कि हेल्थ इंश्योरेंस लेने के बाद भी मरीज को इलाज के बाद अपनी जेब से कुछ न कुछ चुकाना ही होगा। कुछ कंपनियां हेल्थ इंश्योरेंस का प्रीमियम थोड़ा-सा (2% से 5%) बढ़ा देती हैं। इसके बाद मरीज को इलाज के दौरान अलग से रकम नहीं चुकानी पड़ती। यहां तक कि ग्लव्स, मास्क, फाइल चार्ज आदि भी नहीं।

पॉलिसी लेने से पहले जरूर पूछें ये सवाल
पॉलिसी में क्या कवर होगा, क्या नहीं?
हेल्थ इंश्योरेंस लेते समय कंपनी के एजेंट से यह जरूर पूछें कि इंश्योरेंस में क्या-क्या चीजें कवर नहीं होतीं या वे कौन-सी बीमारियां हैं जो एक खास समय सीमा के बाद कवर होती हैं। वे कौन-सी बीमारियां हैं, जो कभी कवर नहीं होंगी।

पॉलिसी के साथ आप कौन-से एडिशनल कवर ले सकते हैं?
पॉलिसी के साथ कंपनियां कुछ एडिशनल कवर भी ऑफर करती हैं। उनके बारे में भी पूछें। थोड़ा-सा प्रीमियम बढ़ाने पर ये कवर मिल जाते हैं। ध्यान रखें, टॉप-अप लेने के बाद हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी वेटिंग पीरियड देती है। टॉप-अप का मतलब है कि आपके पास जितने का हेल्थ इंश्योरेंस है, उससे ज्यादा का लेना। मान लीजिए, आपके पास 5 लाख रुपये का हेल्थ इंश्योरेंस है और आपको लगता है कि जरूरत पड़ने पर यह काफी कम रह सकता है और आप चाहते हैं कि हेल्थ इंश्योरेंस 8 लाख रुपये का हो तो आप 3 लाख रुपये का टाॅप-अप ले सकते हैं। टॉप-अप लेने पर प्रीमियम भी बढ़ जाता है।

क्या किसी खास इलाज के लिए कोई खास लिमिट है?
कुछ इलाज ऐसे होते हैं, जिनके लिए इंश्योरेंस कंपनियां एक खास लिमिट तय कर देती हैं। सम इंश्योर्ड कितना भी बड़ा क्यों न हो, आपको उस इलाज पर तय रकम से ज्यादा नहीं दी जाएगी। इनके बारे में पता करें।

पोर्टेबिलिटी के नियम पूछें?
एजेंट से पूछें कि अगर कभी पॉलिसी को पोर्ट (एक कंपनी से दूसरी कंपनी में जाना। सिम कार्ड की तरह) कराना पड़े तो क्या नियम होंगे? पोर्टेबिलिटी की कुछ शर्तें हैं तो उनके बारे में भी पता करें।

कंपनी का क्लेम सेटलमेंट कैसा है?
जिस कंपनी की पॉलिसी ले रहे हैं, उसके क्लेम सेटलमेंट रेश्यो को देखें और दूसरी कंपनियों से उसकी तुलना करें। क्लेम सेटलमेंट में बेहतर कुछ कंपनियां:

हेल्पलाइन – अगर किसी शख्स को लगता है कि हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी ने गलत वजह बताकर मेडिक्लेम रिजेक्ट किया है तो बीमा देने वाली कंपनी को शिकायत करें। कंपनी की ई-मेल आईडी कंपनी की वेबसाइट पर होती है। अगर बीमा कंपनी 15 दिनों में शिकायत का निपटरा न करे तो भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) के पास शिकायत करें:

वेबसाइट: irda.gov.in
टोल-फ्री नंबर: 1800-4254-732
(सोमवार से शनिवार सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक)
ईमेल आईडी: [email protected]
अगर कहीं से कोई सुनवाई न हो या फैसले से संतुष्ट नहीं हैं तो उपभोक्ता अदालत का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं।

(साभार – नवभारत टाइम्स)

शुभजिता

शुभजिता की कोशिश समस्याओं के साथ ही उत्कृष्ट सकारात्मक व सृजनात्मक खबरों को साभार संग्रहित कर आगे ले जाना है। अब आप भी शुभजिता में लिख सकते हैं, बस नियमों का ध्यान रखें। चयनित खबरें, आलेख व सृजनात्मक सामग्री इस वेबपत्रिका पर प्रकाशित की जाएगी। अगर आप भी कुछ सकारात्मक कर रहे हैं तो कमेन्ट्स बॉक्स में बताएँ या हमें ई मेल करें। इसके साथ ही प्रकाशित आलेखों के आधार पर किसी भी प्रकार की औषधि, नुस्खे उपयोग में लाने से पूर्व अपने चिकित्सक, सौंदर्य विशेषज्ञ या किसी भी विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। इसके अतिरिक्त खबरों या ऑफर के आधार पर खरीददारी से पूर्व आप खुद पड़ताल अवश्य करें। इसके साथ ही कमेन्ट्स बॉक्स में टिप्पणी करते समय मर्यादित, संतुलित टिप्पणी ही करें।