मेरे छोटे बाबू

रेखा श्रीवास्तव

आज पुरुष दिवस है। जी हाँ, आपने बिल्कुल सही सुना और सही समझा। पुरुष दिवस। मैं जानती हूँ कि हमलोग इसके पहले कभी भी पुरुष दिवस का नाम नहीं सुने हैं। पर अब तो सुना। सुना तो। तो चलिए मना लेते हैं पुरुष दिवस। वैसे हमारे जीवन में बिना पुरुष के कोई दिन, कोई तीज-त्योहार, कोई खुशी, कोई गम होता ही नहीं है। हम जबसे इस दुनिया को जानते हैं, पहचानते हैं। पुरुष हमारे जीवन में वैसे ही हैं, जैसे पानी, हवा , धरती और आसमान। जिस तरह हम धरती और आसमान के बिना रहने की कल्पना नहीं कर सकते, वैसे ही हम पुरुष के विभिन्न रूपों के बिना हम नहीं रह सकते। बचपन से दादा, नाना, पिता, मामा, चाचा, भाई, भतीजा, पति, जेठ, देवर, बेटा, दोस्त, सहपाठी, बॉस और न जाने पुरुष के कितने रूप हमें मिलते हैं और उनके साथ ही जीते हैं।  पुरुष के विभिन्न रूपों से हम ऐसे जुड़े हैं, कि हम उनके बिना कल्पना ही नहीं कर सकते। हमें जिस तरह माँ का आंचल चाहिए, उसी तरह पिता की छाया चाहिए। जिस तरह हमें बहनों के साथ गुफ्तगू करने को चाहिए, ठीक उसी तरह भाईयों के साथ उठा-पटक भी होनी चाहिए।  प्यार करने के लिए जिस तरह पति का साथ चाहिए, तो चुहलबाजी व रखवाली करने के लिए देवर भी चाहिए।  घर की चहारदीवारी में अगर नाना-दादा सुरक्षा कवच होते हैं, तो बाहरी दुनिया में हमारा दोस्त हमारे साथ होता है।  यानी नमक की तरह ही पुरुष हैं हमारे जीवन में। हम कभी कल्पना ही नहीं कर सकते कि पुरुष के बिना भी जिंदगी होती है। इसलिए हमारे जीवन के नमक यानी पुरुष को हैप्पी पुरुष डे।

आज पुरुष दिवस है। सोचा मेरे जीवन के किसी पुरुष के बारे में विस्तार से लिखा जाए। सोचते सोचते मैंने उनके बारे में लिखने का तय किया, जो मेरे पापा की तरह थे। पर पापा से भी ज्यादा प्यारे थे। गुस्सा करने में तो भैया से भी आगे थे, पर जब नरम पड़ते तो बिल्कुल बच्चे जैसे होते। कई बार तो उनसे डर लगता, तो कई बार वो मुझसे डर जाते। जी, वो मेरे चाचा थे। यानी मेरे पिता के भाई अर्थात् चाचा। जिन्हें हम भाई-बहन प्यार से छोटे बाबु कहा करते थे।  छोटे बाबु बिल्कुल सामान्य व्यक्ति थे। लंबा कद, मोटा शरीर और सांवला रंग। पर उनका व्यक्तित्व बहुत अच्छा था। वह सारी जिंदगी अपने भैया-भाभी के साथ गुजार दिये। वह कलयुग के लक्ष्मण थे। जहाँ एक तरफ पूरी ईमानदारी और मेहनत से पापा के मानव पत्रिका के कार्य में सहयोग निभाया करते थे, वहीं भाभी के एकमात्र देवर अपनी भाभी का हमेशा ख्याल रखा करते थे। भाभी अगर छठ पूजा का व्रत करती थी, तो देवर बड़ी श्रद्धा और लगन से छठ  पूजा का प्रसाद बनाने में साथ देते थे। जहाँ भाभी बीमार पड़ती, देवर उनकी सेवा के लिए तत्पर रहते। एक पल भी पीछे नहीं होते। वह कहते थे कि भाभी माँ बराबर होती है, तो उनकी सेवा करने में शर्म कैसी? कभी-कभी गुस्सा भी करते थे। जिस दिन माँ की बीमारी के बारे में उन्हें पता चला, उस दिन भी किसी बात पर माँ पर गुस्सा कर रहे थे। माँ के वहाँ से जाने पर जब मैंने कहा कि माँ बीमार है, पर आप अभी भी माँ से लड़ रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि अगर मैं उनके सामने नहीं लड़ता तो वह कमजोर पड़ जाती और मैं उनको कमजोर नहीं देख सकता। और उन्होंने कहा था कि हे भगवान मुझे मेरी भाभी से पहले अपने पास बुला लेना। वह हम पाँच भाई-बहनों को भी बहुत ज्यादा प्यार करते थे। बड़े भैया और भाभी को प्यार भी करते थे, पर उनके सामने डरते भी थे। फिर पीछे कहते कि मैं डरता नहीं, बच्चे बड़े हो गये इसलिए उसके सामने ज्यादा नहीं बोलता। मझले भाई का हमेशा ख्याल रखा। छोटे वाले भैया से उनका तू-तू-मैं-मैं होता रहता था। एक साथ काम करते, एक साथ लड़ते। पर उनके बीच प्यार भी खास था। यहाँ तक कि एक समय वह छोटे भाई को गोद लेना चाहते थे। पर पापा ने कहा कि पाँचों बच्चे ही तुम्हारे बच्चे है, तो किसी एक को गोद क्यों लेना। दीदी के साथ उनका जबरदस्त 36 का आंकड़ा था। पर कुछ चीजों में दोनों समान थे। दोनों को ही खाने-पीने का बहुत शौक था।  शाम होते ही दोनों चाट-पकौड़ी की दुकानों के इर्द-गिर्द नजर आते। और घर में सबसे छोटा अर्थात बड़े भैया का लाडला किंशुक उनका भी लाडला था। वह कई वर्षों तक किंशुक को रवि नाम से पुकारते थे क्योंकि वह रविवार को हुआ था। वह सबसे ज्यादा उसे प्यार करते थे। पर जब वह छोटा था और हावड़ा वाले घर आने वाला होता था, तो छोटे बाबु अपने बाल काफी छोटे करवा लेते थे और कहते थे कि देखो अब तुम मेरे बाल खींच नहीं पाओगे। जहाँ एक तरफ किंशुक को ढेर सारा प्यार करते थे, वही दूसरी तरफ मेरे पतिदेव की काफी इज्जत करते थे। कुछ खाने-पीने की इच्छा हुई, तो वहाँ फोन कर देते थे। उन दोनों में घंटों चर्चा का दौर चलता। कभी राजनीति की, दुनियादारी की, तो कभी परिवार की। वह अपना दुख-दर्द भी उनके साथ सांझा करते थे। मेरे साथ उनका बहुत प्यारा रिश्ता था। जब उन्हें कुछ कहना हो, कुछ चाहिए हो, किसी तरह की बात करनी हो तो वो मुझे कहते। मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनकी तबीयत जब मई 2008 में खराब लगने लगी तो, उन्होंने एक दिन मुझे फोन करके हावड़ा वाले घर में बुलाये और कहा कि मेरी तबियत अच्छी नहीं लग रही है। मैं बोली कि चलिए डॉक्टर को दिखा देती हूँ तो उन्होंने कहा कि डॉक्टर के पास नहीं जाऊँगा। मुझे लग रहा है कि तबीयत ज्यादा खराब है, इसलिए मुझे अस्पताल ले चलो। मैंने तुरंत वहीं से अपने बड़े भैया को फोन किया। उन्होंने कहा कि ठीक है, उन्हें हमलोग अस्पताल ले जायेंगे। अगले दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया और करीबन तीन हफ्ता अस्पताल में रहने के बाद 24 जून 2008 की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। जिस समय यह घटना घटी, उस समय एक तरफ मेरी माँ कैंसर से लड़ रही थी और दूसरी तरफ मैं प्रिगनेंट थी और डिलीवरी का दिन नजदीक आ चुका था। माँ को यह सूचना देर से दी गई। माँ ज्यादा रोये नहीं, और उनकी तबियत बिगडे नहीं इसलिए हमलोगों  ने भी अंदर ही अंदर रोकर उन्हें अंतिम विदाई दी। उनका अंतिम संस्कार उनके प्रिय भतीजे किशोर ने ही किया। आज पुरुष दिवस के दिन उन्हें याद करने का एक बहाना मिल गया।

शुभजिता

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