युद्ध, युद्ध, युद्ध 

डॉ. वसुन्धरा मिश्र

युद्ध युद्ध युद्ध
धर्म युद्ध रंग युध्द जाति युद्ध
भाषा युद्ध नस्ल युद्ध लिंग युद्ध
संस्कृति संस्कारों का युद्ध
खून हत्या करने का युद्ध
चुनाव का युद्ध
छीना झपटी और नृशंसता का युद्ध
लोभ ईर्ष्या द्वेष का युद्ध
काले गोरे पीले का युद्ध
संवेदना के कुचलने का युद्ध
बरसों से दबी चिनगारी के बदलाव का युद्ध
स्त्री पुरुष का युद्ध
परिवार में भाई बहनों का युद्ध
राजकुमारी के लिए युद्ध
सत्ता और देश का युद्ध
पानी का युद्ध
लोकतंत्र और तानाशाही का युद्ध
प्रेम भी अछूता नहीं
सारे युद्ध प्रेम की जड़ों में निहित हैं
पूरी पृथ्वी में युद्ध

सत चित आनंद की तपस्या का युद्ध
सहज नहीं है सुख पाना
महासुख की गोद से जन्म लेता युद्ध
महाआनंद प्राप्त करने का एकमात्र हथियार युद्ध
समाप्त होने वाली पृथ्वी के भीतर का युद्ध
हिमालय के विशाल दंभ का युद्ध
लड़ रही हैं मनुष्यों की इंद्रियां
लोभ मोह माया महत्वाकांक्षा का युद्ध
फंसा हुआ मनुष्य तृष्णा के जाल में
श्वासों के युद्ध को भूल चुका है इंसान
अंतःकरण में विराजना उसे सीखा ही नहीं
संसार के नियमों को भूल युद्धरत मनुष्य
प्रेम के विशुद्ध भाव से युद्ध सिर्फ युद्ध
स्थूल में फंस सूक्ष्मता से दूर
मनुष्य का पैदा होते ही जीवन से युद्ध
मुश्किल है इस मिथ्या युद्ध से निकलना
शांतिपूर्ण एकांत में घुटता है दम दुनिया का
डर को डर से दूर करता है युद्ध
फिर भी लोग लगे हैं झूठे द्वंद्व को अपनाने में
पूरी दुनिया को मुट्ठी में भर लेने को
कभी नहीं कभी नहीं कभी नहीं
होगा खत्म ये युद्ध युद्ध युद्ध

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