सुनिए कभी!

सिम्पी मिश्रा

बेशक “वो” …..
साथ चाहती हो, पर सहारा नहीं।
अपने हिस्से का….
सम्मान चाहती, पर सामान नहीं।
सम्भवतः वो सिर्फ…
समर्पण चाहती हो, आपका बलिदान नहीं।
दिन के अंत में केवल..
सहज संवाद चाहती हो, नाहक वाद-विवाद नहीं।
वो भी बनना चाहती हो….
एक मिसाल, महज मज़ाक नहीं।
उसको भी तो दरवाज़े की
नेमप्लेट पर ख्वाहिश होती होगी …..
कभी अपने नाम की,
न कि सिर्फ एक अदद सरनाम की।

तो सुनिए कभी ….
क्योंकि
“वो” तो बस
अपने हिस्से की
ज़मीन चाहती है ।
उसे ज़रूरत ही नहीं
आपके हिस्से के आसमान की।।

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