स्वाधीनता संग्राम में स्त्रियों ने निभाई थी सशक्त भूमिका, ये हैं संविधान को तराशने वाली महिलाएं

नयी दिल्ली : भारतीय स्वाधीनता संग्राम में स्त्रियों की सशक्त भूमिका थी, जिन्होंने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन में हिस्सा लिया। पहले उनकी भूमिका की सराहना भागीदार की जगह मददगार के रूप में होती थी कि मर्दों के जेल जाने पर उन्होंने परिवार को कैसे मजबूती के साथ संभाला या गुप्त गतिविधियों में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों को किस प्रकार शरण दी और प्रेरणास्रोत के रूप में काम किया। परंतु बाद में उनके योगदान का पुनर्मूल्यांकन किया गया और स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी सीधी सहभागिता को पहचाना गया। महात्मा गांधी ने सीता, दमयंती एवं द्रौपदी को स्त्रियों के आदर्श के रूप में देखा, जिनमें गृहस्थ तथा सार्वजनिक कार्यों का अद्भुत सम्मिश्रण था। उनका स्पष्ट मत था कि स्वराज्य की लड़ाई में स्त्रियों की महती भूमिका होगी। प्रारंभ में तो गाँधीजी ने उन्हें खादी, स्वदेशी तथा गरीबों की सेवा जैसे रचनात्मक कार्यों में लगाया, किंतु असहयोग आंदोलन ने भारतीय नारियों की मुक्ति का मार्ग खोल दिया। बड़ी संख्या में स्त्रियां आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगीं।
स्वाभाविक रूप से जब संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा का गठन किया गया, तो 299 सदस्यों वाली सभा में 15 महिलाएं भी निर्वाचित हुईं। ये थीं- दक्ष्याणी वेलायुधन, अम्मू स्वामीनाथन, हंसा जीवराज मेहता, लीला राय, दुर्गाबाई देशमुख, बेगम एजाज रसूल, कमला चौधरी, सुचेता कृपालानी, मालती चौधरी, पूर्णिमा बनर्जी, सरोजिनी नायडु, राजकुमारी अमृत कौर, एनी मैस्केरीन, विजय लक्ष्मी पंडित तथा रेणुका राय। इन सब का जीवन बड़ा तपा-तपाया था, जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। इनकी पृष्ठभूमि अलग-अलग थी। एक ओर जहां विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृतकौर जैसी अभिजात वर्ग की महिलाएं थीं, तो दूसरी ओर दक्ष्याणी जैसी दलित। संविधान सभा की प्रारंभिक बैठकों में अस्थायी अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सारगर्भित उद्बोधनों के बाद समा बांधा भारत कोकिला सरोजिनी नायडु ने।
राजेंद्र प्रसाद को बधाई देते हुए उन्होंने एक शेर पढ़ा, बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक रंगीन ताबियां को रंगे सुखन मुबारक। उन्होंने बाबू सच्चिदानंद सिन्हा तथा बाबू राजेंद्र प्रसाद, दोनों के गुणों की चर्चा करते हुए कहा कि उनके बारे में लिखने के लिए सोने की कलम को मधु में डुबाकर लिखना होगा। बाद में महिला अधिकार से संबंधित कानूनों को बनाने में उन्होंने अहम योगदान दिया। संविधान की शुरुआत होती है ‘हम भारत के लोग’ से और उद्येश्यिका में ये शब्द एक महिला सदस्या पूर्णिमा बनर्जी के सुझाव पर डाले गए, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि संविधान का निर्माण भारत के लोगों ने किया है, विदेशी हुक्मरानों ने नहीं।

दक्ष्याणी वेलायुधन 34 वर्ष की उम्र में संविधान सभा की सबसे कम उम्र की सदस्या बनीं। वह पहली दलित महिला स्नातक थीं। कोचीन के पुलाया समुदाय से आनेवाली दक्ष्याणी ने अलग निर्वाचण क्षेत्र या आरक्षण का समर्थन नहीं किया। नवंबर 1948 में उनका जोरदार भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने आशा व्यक्त की कि अछूत नाम का कोई समुदाय भविष्य में रहेगा ही नहीं। अम्मू स्वामीनाथन बचपन से ही एक क्रांतिकारी थीं। 24 नवंबर 1949 को संविधान सभा में उन्होंने कहा,
‘बाहरी लोग कहते रहे हैं कि भारत ने स्त्रियों को बराबर का हक नहीं दिया। अब हम कह सकते हैं कि जब भारतीयों ने अपना संविधान स्वयं बनाया है, तो उन्होंने महिलाओं को अन्य नागरिकों के साथ बराबरी का हक दिया है।’
हंसा जीवराज मेहता असहयोग एवं स्वदेशी आंदोलनों में सक्रिय रहीं। 1919 में वह पत्रकारिता की पढ़ाई करने इंग्लैंड गईं, जहां उनकी मुलाकात सरोजिनी नायडु से हुई, जो दोनों के बीच आजीवन दोस्ती में बदल गई। संविधान सभा में भारतीय महिलाओं की ओर से राष्ट्रीय ध्वज देश को सौंपने का उन्हें गौरव प्राप्त हुआ। हंसाबेन ने राजकुमारी अमृत कौर के साथ मिलकर समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। उन्होंने आरक्षण एवं अलग निर्वाचन क्षेत्र का विरोध करते हुए कहा कि महिलाओं को विशेषाधिकार नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक न्याय चाहिए। दुर्गाबाई देशमुख ने 12 साल की उम्र से असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया।
संविधान सभा में उन्होंने पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के हक का जोरदार समर्थन किया। बेगम एजाज रसूल एक इंकलाबी महिला थीं, जिन्होंने 1937 में पर्दा का परित्याग कर दिया और एक अनारक्षित सीट से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए चुनी गईं। वह संविधान सभा की अकेली मुस्लिम महिला सदस्या थीं। सुचेता कृपालानी ने 14 अगस्त को संविधान सभा में वंदे मातरम्, सारे जहां से अच्छा तथा जन-गण मन का गान किया। यह जवाहरलाल नेहरू के प्रसिद्ध ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति के साथ एक मुलाकात) भाषण के ठीक पहले हुआ। मालती नबकृष्ण चौधरी, जिन्हें गाँधी जी प्यार से तूफानी तथा रबींद्रनाथ ठाकुर मीनू कहते थे, लगातार रचनात्मक कामों में सक्रिय रहीं। पति नबकृष्ण चौधरी के साथ मिलकर वह शिक्षा के प्रचार-प्रसार में लगी रहीं।
विजयलक्ष्मी पंडित एक अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी थीं, जो कई बार जेल गईं। संविधान सभा में उनका कार्यकाल बमुश्किल आठ महीने का रहा, क्योंकि देश के आजाद होते ही उन्हें सोवियत संघ में भारत की पहली राजदूत नियुक्त किया गया।
भारत सरकार की पहली कैबिनेट मंत्री राजकुमारी अमृत कई महत्वपूर्ण कामों के लिए याद की जाती हैं। संविधान की इन 15 महिला शिल्पियों में कई ऐसी हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी नहीं जानती हैं। किंतु स्वाधीनता संग्राम तथा संविधान निर्माण में उनकी सशक्त भूमिका थी और उनका योगदान अविस्मरणीय है।

(साभार – अमर उजाला)

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