3 सालों में बनाए 4,000 घोंसले, लगाए 7,000 पेड़, गौरेया को बचाने की है मुहिम!

“बचपन में मुझे अपने गाँव में कहीं भी झट से गौरेया दिख जाया करती थी। हमारे अपने घर में ही इतनी सारी गौरेया का आना-जाना लगा रहता था। हम छत पर उनके लिए दाना-पानी रखते थे और वे आराम से खाया करती थीं। मैंने तो उनके नाखूनों पर नेल पॉलिश भी लगाया है ताकि मुझे पता हो कि हमारे घर वाली गौरेया कौन-सी है, “यह कहना है उत्तर-प्रदेश में वाराणसी के रहने वाले 28 वर्षीय गोपाल कुमार का।
स्कूल की पढ़ाई के बाद गोपाल ने पॉलिटेक्निक किया और फिर बनारस में ही अपना टूर एंड ट्रैवल्स का व्यवसाय शुरू कर लिया। वह बताते हैं कि उनका व्यवसाय तो चल ही रहा है लेकिन साथ में उनके पास काफी वक़्त होता था जिसे वह किसी अच्छे काम के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।
इस बारे में उन्होंने अपने कुछ दोस्तों से बात की। “काफी बड़ा ग्रुप है हम दोस्तों का। कोई अपना काम करता है, कोई नौकरी में है तो कोई आगे पढ़ाई कर रहा है। हम लोगों ने काफी चर्चा की और सोचा कि अपने स्तर पर हम समाज के लिए क्या कर सकते हैं,” उन्होंने आगे कहा।
गोपाल और उनके दोस्तों ने काफी सोच-विचार करने के बाद तय किया कि हर कोई अपने आस-पास के इलाके में किसी भी सामाजिक कार्य के लिए दिन का एक घंटा समर्पित करेगा। समाज की भलाई से शुरू हुई उनकी चर्चा में पर्यावरण और जीव-जंतु भी शामिल हो गए।
उन्होंने साथ में बैठकर आज के हालातों पर विचार-विमर्श किया और इन्हीं चर्चाओं में गौरेया का जिक्र आया। गोपाल कहते हैं कि उनके बचपन की धुंधली यादें अचानक उनके सामने ताजा हो गईं। लेकिन जब उन्होंने इस बात पर गौर किया और अपने आसपास देखा तो उन्हें एक गौरेया तक नहीं दिखी। उन्हें लगा कि शायद उनके सोसायटी में न हो पर पूरे बनारस में कहीं न कहीं तो होंगी।
“आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन मैंने एक दिन सिर्फ गौरेया ढूंढने के लिए बनारस भ्रमण किया। पर मुझे बहुत ही कम पक्षी दिखे। इसके बाद मैंने इंटरनेट पर रिसर्च की और मुझे बहुत ही हैरान करने वाले आँकड़े पता चले कि कैसे हमारे घरों में आने-जाने वाले पक्षी एकदम लुप्त होने की कगार पर हैं,” गोपाल ने बताया।
उन्होंने ठान लिया कि वह इसी क्षेत्र में काम करेंगे और कोशिश करेंगे कि गौरेया को फिर से अपने आसपास वापस ला सकें। गोपाल की यह मुहिम आज से तीन साल पहले शुरू हुई और दो साल पहले, उन्होंने अपने संगठन, वीवंडर फाउंडेशन को रजिस्टर कराया।
वी वंडर यानी कि ‘हम घुमक्कड़’- इस नाम के बारे में गोपाल कहते हैं कि उन्होंने बहुत सोच-समझ कर यह नाम रखा। “इस मुहिम में मैं अकेला नहीं हूँ, हम एक समूह में काम कर रहे हैं इसलिए वी यानी कि हम। साथ ही, हमने तय किया था कि हम किसी एक जगह नहीं बल्कि अपनी- अपनी इच्छा से जहाँ ज़रूरत हो वहाँ काम करेंगे। इस तरह से हम घूम-घूम कर काम करते हैं और इसलिए घुमक्कड़ नाम दिया गया।”
सबसे पहले गोपाल और उनके साथियों ने अपने आसपास के लोगों को गौरेया के प्रति जागरूक करना शुरू किया। बहुत से लोगों को तो इन घरेलू पक्षियों के अस्तित्व के बारे में ही नहीं पता था क्योंकि उन्होंने कभी देखे नहीं। इसके लिए, हर दिन उन्होंने एक-दो घंटे निकाले और ग्रुप्स में लोगों को समझाया।
रहवास इलाकों के साथ उन्होंने स्कूलों तक भी अपनी पहुँच बनाई। स्कूलों में उन्होंने न सिर्फ जागरूकता के लिए भाषण दिए बल्कि बच्चों को पुराने कार्डबोर्ड, लकड़ी आदि से गौरेया के लिए घोंसला बनाना भी सिखाया। गोपाल के मुताबिक, उनकी टीम अब तक 74,000 छात्र- छात्राओं को यह ट्रेनिंग और वर्कशॉप करा चुकी है।
इसके अलावा, उन्होंने शहर भर में 4 हज़ार से ज्यादा लकड़ी और गत्ते से बने घोंसले लगाए हैं। उनके अभियानों के बाद बहुत से परिवारों ने अपने घरों की छत पर घोंसले लगाकर, पक्षियों के लिए दाना-पानी रखना भी शुरू किया है।
पिछले तीन सालों से उनकी टीम लगातार काम कर रही है और अब उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। वह बताते हैं कि उन्हें कई जगह से वीडियो मिलते हैं कि जहां उन्होंने घोंसला लगाया था वहां अब गौरेया आने लगी है।
गौरेया संरक्षण के साथ-साथ गोपाल की टीम समाज की अन्य समस्याओं को भी हल करने की कोशिश कर रही है। उनकी टीम से कुछ वॉलंटियर्स हर रोज़ झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को पढ़ाते हैं। साथ ही, इन बच्चों को कॉपी, किताब, और अन्य स्टेशनरी का सामान भी फाउंडेशन की तरफ से दिया जाता है।
गोपाल बताते हैं कि बनारस के घाट पर बच्चों को भीख मांगते हुए देखना बहुत आम बात है। हम इन बच्चों को देखते हैं, बहुत बार दुत्कारते हैं, कभी कुछ खाने को या फिर पैसे दे देते हैं और फिर अपनी राह पर बढ़ जाते हैं “लेकिन हम चाहते हैं कि ये बच्चे यह काम छोड़कर शिक्षा से जुड़ें। इसके लिए हम लगातार कोशिश कर रहे हैं। उनसे जाकर मिलते हैं, उनसे बात करते हैं और उन्हें समझाते हैं कि भीख मांगना गलत है। उन्हें स्कूल जाना चाहिए और हम उनके माता-पिता से इस बारे में बात भी करते हैं। धीरे-धीरे ही सही लेकिन हमारी कोशिशें सफल हो रहीं हैं,” उन्होंने आगे कहा।
गोपाल की टीम में आज 200 वॉलंटियर्स हैं, जो साथ में मिलकर काम कर रहे हैं। हर रविवार को ये लोग पौधारोपण भी करते हैं। अब तक उनकी टीम ने लगभग 7 हज़ार पेड़ लगाए हैं और अच्छी बात यह है कि वे पेड़ लगाकर सिर्फ छोड़ नहीं देते हैं। वह बताते हैं कि उनके लगाए हर एक पेड़ पर नाम का टैग होता है, यह नाम उस इंसान का है जिसने यह पेड़ गोद लिया है। “हम नहीं चाहते कि सिर्फ नाम के लिए पौधारोपण हो। पौधारोपण तभी सफल होगा जब आपके लगाए पेड़ पनपें और लहला उठें। इसलिए हम जो भी पेड़ लगाते हैं, हमारे सदस्य या फिर अभियान से जुड़े अन्य लोग उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी लेते हैं।” हर साल वीवंडर फाउंडेशन अपना वार्षिकोत्सव, झलक आयोजित करती है। इसमें वे देशभर से सामाजिक कार्य कर रहे लोगों को निमंत्रित करके सम्मानित करते हैं। उनका उद्देश्य इन सामाजिक कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाना और उन्हें अपने यहाँ बुलाकर अपनी टीम और अन्य लोगों को प्रोत्साहित करना है।
अपने हर काम के लिए फंडिंग वे आपस में पैसे इकट्ठा करके करते हैं। उनका कहना है कि उन्होंने कभी कोई प्राइवेट फंडिंग नहीं ली। यदि कोई बाहर से उनकी मदद की इच्छा जताता है तो वे उनसे बच्चों के लिए कुछ करने को कहते हैं।
वीवंडर फाउंडेशन, भले ही बहुत छोटे स्तर पर काम कर रहा है लेकिन उनके छोटे-छोटे कदम एक बड़े बदलाव की शुरुआत हैं। उनके इन प्रयासों से बनारस के लोगों में जागरूकता फ़ैल रही है और आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छे उदहारण स्थापित हो रहे हैं।
गोपाल अंत में कहते हैं कि उनका उद्देश्य समाज के लिए कुछ करना है और वह आजीवन सामाजिक कार्यों से जुड़े रहेंगे। उनकी यह पहल उनके दोस्तों और जानने वालों के माध्यम से अब कोलकाता, दिल्ली और उड़ीसा तक पहुँच रही है।

(साभार – द बेटर इंडिया)

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