ऐ सखी सुन – देवी के देश में बाजार की माया से है पूजा और व्रत की महिमा

गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार और करवा चौथ की शुभकामनाएँ । अरे, इतना चकित क्यों हो रही हो सखियों, “तीज” और “करवा चौथ” तो हम औरतों का राष्ट्रीय त्यौहार है। हम भले ही सब त्यौहार भूल जाएँ लेकिन “तीज” और “करवा चौथ” भूल गए तो इसकी सजा सात जन्मों तक भुगतनी पड़ेगी। कभी आपने ध्यान दिया है सखी, त्यौहार शब्द के आगे एक और शब्द जुड़ा है, वह है तीज। तो बूझिए तो जरा कि इसका मतलब क्या है, इसका अर्थ है भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को, भारतवर्ष की नारियों द्वारा बड़े स्तर पर मनाया जाने वाला त्यौहार या व्रत जिस दिन तमाम सती- साध्वी नारियाँ पति की लंबी उम्र की कामना के लिए पूरे चौबीस घंटे का निर्जला उपवास करती हैं। घर भर को पका कर खिलाने के बाद खुद भूखा रहकर सज -संवर‌ कर शिव पार्वती की पूजा करती हैं ताकि उनका सुहाग अखंड रहे। भले ही बहुत से हास्य कवि जो चुटकुले नुमा कविताएँ सुनाकर मंच ही नहीं श्रोताओं का  भी ह्रदय भी, क्षण भर के लिए ही क्यों न सही जीत लेते हैं, मंच पर से इस व्रत का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं, “गाय के उपवास करने पर बैल की सेहत पर भला क्या असर पड़ता है” और पुरूषों के साथ स्त्रियाँ भी यह सुनकर पेट पकड़कर हँसती हैं, लेकिन इन कवियों और श्रोता पुरूषों की  पत्नियाँ अगर उनके लिए यदि व्रत उपवास करना छोड़ दे तो वह निश्चित तौर भी चिंता के मारे दिल का रोग पाल लेंगे। तो इसीलिए त्यौहार शब्द के आगे इस “तीज” शब्द को स्थायी रूप से जोड़ दिया गया है ताकि इसे किसी भी तरह  विस्मृत न किया जा सके। अर्थात सारे त्यौहार एक तरफ तो तीज दूसरी तरफ। हालांकि यह व्रत करवा चौथ की तुलना में ज्यादा कठिन है लेकिन इसकी सुख्याति उसकी तुलना में कम है। देखो सखी, वह जमाना गया जब अल्लाह के मेहरबान होने से गधे पहलवान हुआ करते थे। अब नये दौर का नया मुहावरा है कि “मीडिया मेहरबान तो गधा पहलवान” तो मीडिया करवा चौथ के महिमामंडन में जोर शोर से लगा हुआ है। अब “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” की सिमरन अर्थात काजोल अगर सोलह शृंगार करके, अपने हाथ में पूजा की थाली लेकर गीत गाएगी, “तेरे हाथ से पीकर पानी, दासी से बण जाऊं रानी” और छल कौशल से शाहरुख जैसे नायक के हाथों पानी पीकर अंततः अपनी मनचाही जिंदगी जीने में सफल हो जाएगी तो किस लड़की का विश्वास करवा चौथ पर पुख्ता नहीं होगा। आज हर लड़की और लड़का अपने आपको फिल्मी नायक नायिका से कम नहीं समझते और फिल्मी नायिकाएँ तो करवा चौथ ही करती दिखाई जाती हैं तीज वीज नहीं। एक आध भोजपुरी सिनेमा में इसकी महिमा का गान होता होगा, तो हो। खैर सखी, असली मुद्दा तो‌ यह है कि इस सर्वव्यापी मीडिया की बदौलत करवा चौथ हम नारियों का राष्ट्रीय त्यौहार बन गया है। शायद इसीलिए जो त्योहार कभी पंजाब, राजस्थान अथवा उत्तर प्रदेश के एक अंश विशेष में मनाया जाता था, आज देश भर की स्त्रियों  द्वारा धूम धाम से मनाया जाता है। मीडिया ही नहीं आजकल बाजार ने भी सर्वशक्तिमान ईश्वर की जगह ले ली है और इसे राष्ट्रीय त्यौहार बनाने में मुख्य भूमिका निभाई है। इस अवसर पर बाजार महिलाओं के सामानों पर डिस्काउंट देकर उन्हें लूटता है तो बड़े- बड़े रेस्टोरेंट अपने यहाँ टेबल बुक कराने पर आकर्षक छूट का ललचाने वाला ऑफर भी देते हैं। वैसे भी मोहल्लेदारी का जमाना बीत चुका है जब मोहल्ले भर की औरतें किसी एक के पक्के घर की छत पर चाँद देखकर पूजा किया करती थीं। वैश्विक आंधी में चाँद भी वैश्विक हो गया हे जो किसी शानदार होटल की छत से बेहद लुभावना और आकर्षक दिखाई देता है और साथ में ढेर सारे चित्ताकर्षक प्रस्ताव भी लाता है, मसलन,.”हमारे होटल की छत से चाँद देखें और सपरिवार रात्रि भोजन पर आकर्षक छूट के साथ ही दिलकश उपहार भी जीतें।” 

सखियों, कभी आपने सोचा है कि शक्ति पूजा के बीच में यह करवा चौथ का पावन पर्व क्यों आता है ? सोचिए तो सही, एक या दो नहीं बंगाल में तो तीन- तीन देवियों की पूजा अर्थात दुर्गा, लक्ष्मी और काली पूजा के बीच मध्यमणि सा सुशोभित है, यह पति पूजा का पर्व।  देवियों की पूजा तो पूरा देश करता है लेकिन पतिदेव की पूजा सिर्फ घर की लक्ष्मी ही करती है। हाँ, हमारे इस महान नारीपूजक देश में पत्नी देवी की पूजा का कोई त्यौहार नहीं है क्योंकि या तो वह देवी है या फिर पाँव की जूती। घर की लक्ष्मी तो उसे कभी- कभार फुसलाने, बहलाने के लिए कह दिया जाता है। 

सखियों, दिमाग पर जोर डालिए और सोचिए कि आखिर पति पूजा के त्यौहार ये क्यों और कब से मनाए जाते होंगे। इन त्यौहारों की पृष्ठभूमि में हमारी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। मानव सभ्यता के आरंभिक चरण में या कबीलाई संस्कृति में इस तरह के त्यौहारों का अस्तित्व नहीं था क्योंकि वहाँ स्त्री- पुरूष दोनों कंधे से कंधा मिलाकर काम करते थे। लेकिन  सभ्यता के बदलते दौर में जब समाज में गौरवशाली विवाह संस्था का जन्म हुआ और क्रमशः जब आर्थिक मोर्चा पूरी तरह से पुरूष ने संभाल लिया, वह परिवार का केन्द्र बिंदु बन गया।  घर की देहरी के अंदर कैद कर दी गई स्त्रियाँ पूरी तरह से पुरूषों पर निर्भर या उनकी आश्रित हो गईं, तब से वह उनकी सलामती और लंबी उम्र के लिए तरह -तरह के व्रत उपवास करने लगीं। चूंकि पुरूष ने उनके भरण पोषण की जिम्मेदारी उठाई इसीलिए स्त्रियाँ उसकी सलामती के लिए पूजा पाठ करने लगीं। पति पर पूर्णतया निर्भर अबलाएँ जो पति के न रहने पर पूरी तरह से अनाथ हो जातीं, उनका अपने स्वामी अर्थात पति या मालिक की सलामती के लिए व्रत उपवास करना स्वाभाविक ही था। और इस तरह पुरूष का सामाजिक रूतबा लगातार ऊपर उठता गया और स्त्रियाँ इस पुरूषतांत्रिक समाज में अनवरत शोषण की आदी होती गईं। बदलते समय के साथ स्त्रियाँ पहले साक्षर हुईं फिर शिक्षित हुईं और धीरे धीरे आर्थिक स्वतंत्रता भी अर्जित की लेकिन मानसिक गुलामी से मुक्त होने में शायद थोड़ा वक्त और लगेगा। इसीलिए सखियों औरतों की आजादी सिर्फ पर्स से नहीं शुरू होती बल्कि अपनी रूढ़ियों और पारंपरिक बेड़ियों से मुक्त होना भी आवश्यक है। तो सखियों, थोड़ा सोचिए कि आपके लिए भी व्रत रखने की परंपरा समाज के किसी हिस्से में है क्या ? हाँ, आजकल बहुत से उदारमना पति लाड़ प्यार में अपनी पत्नी के लिए करवा चौथ का व्रत जरूर रखने लगे हैं लेकिन आनुपातिक स्थिति अभी भी विषम ही है। आप, थोड़ा सोचिए सखियों। आप से अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी।  

 

शुभजिता

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