लोकप्रिय अध्यापक व जागरूक नागरिक थे कृष्णानंद पांडेय

– श्रीमोहन तिवारी

कुछ शिक्षक पाठ्यक्रम पूरा करते हैं और कुछ विद्यार्थियों को गढ़ते हैं और ऐसा करते हुए वे उनके मन में रह जाते हैं, कहीं नहीं जाते। निधन के बाद भी लोकप्रिय शिक्षक कृष्णानंद पांडेय भी कहीं नहीं गये। कहते हैं कि शिक्षक का वंश दो तरीके से चलता है इसलिए वह विस्तृत होता है। वह संतान परम्परा के अतिरिक्त शिष्य परम्परा के माध्यम से विस्तार पाता है इसलिए तो स्वामी विवेकान्द के साथ रामकृष्ण परमहंस याद आ जाते हैं। कृष्णानंद पांडेय के बारे में यही बात कही जा सकती है। वह अपने विद्यार्थियों की सफलता के रूप में हमारे बीच हैं।

हालांकि उनका जाना हम सबके लिए एक झटका तो है ही। उनकी विनम्रता रह – रह कर आँखों को नम कर दे रही है। परिचितों में पांडेय जी के रूप में प्रसिद्ध कृष्णा नंद पांडेय मेरे लिए तो भइया ही थे। रिसड़ा विद्यापीठ के कॉमर्स विभाग के विनम्र और लोकप्रिय शिक्षक के रूप में उनकी पहचान थी मगर वह सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करने वाले शिक्षक नहीं थे। विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए भइया हमेशा सक्रिय रहे। उनकी प्रतिभा को निखारते रहे। उन्होंने बच्चों को सामंजस्य बनाकर चलना सिखाया और उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु सदैव तत्पर रहे।

किसी भी विषय का अध्ययन करना उनके स्वभाव में था। इतिहास, साहित्य और दर्शन जैसे जटिल विषय को उन्होंने स्वाध्याय से साधा था। वे अपने विषय में पारंगत तो थे ही, साथ ही समसामायिक विषयों पर भी उनकी दूरदर्शिता अतुलनीय रही। समाज, सामान्य जनता, किसान और मजदूरों के प्रति उनके अंदर सद्भावना थी।

भैया के असमायिक निधन से हम सभी मर्माहत और व्यथित हैं। उनका अचानक चले जाना हम जैसे कई लोगों के लिए अपूरणीय क्षति है।वे सभी के प्रिय हैं. उनका आत्मीय एवं सौम्य व्यक्तित्व प्रथम परिचय में ही सबको प्रभावित कर लेता था। पुस्तकालय से उनका गहरा लगाव था।

अपने अभिन्न मित्र सर्वेश्वर तिवारी से मिलने बहुबाजार के फिरंगी काली टावर प्रायः आते रहते थे। इसी क्रम में वे पुस्तकालय भी आते रहते थे औऱ फिर शुरू होती थी साहित्यिक व राजनीतिक चर्चा। भैया की उस समय भावाभिव्यक्ति गजब की होती थी। वह हमेशा कहा करते थे कि श्रीमोहन तुम भी लेखक हो, जरा इन मुद्दों पर सोचकर देखो, देश कहाँ जा रहा है। अध्यापक होने के साथ-साथ ही वे एक जागरूक नागरिक भी थे। उनकी जो सामाजिक सोच और राजनीतिक सोच हमेशा हाशिए पर रहने वाले जन के लिए रहती थी। वह उनके प्रति चिंतित रहते थे। अब उनके बगैर चर्चा अधूरी सी रह जाएगी।

(लेखक सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष हैं)

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